Saturday, June 25, 2022

माया के दो रुप - स्थूल और सूक्ष्म

माया के दो रुप हैं । 
एक बृहद - मोटी अथवा स्थूल माया 
और दूसरी - सूक्ष्म। 
मोटी, स्थूल अथवा वृहद माया जैसे सांसारिक उपभोग की वस्तुएं - ज़मीन जायदाद , धन-दौलत सम्पत्ति इत्यादि। 
और सूक्ष्म माया का अर्थ है अहं भाव - अर्थात मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और सम्पत्ति इत्यादि का अभिमान। 

सद्गुरु कबीर जी फरमाते हैं :
                 मोटी माया सब तजै , झीनी तजी न जाय ।
                 पीर पैगम्बर औलिया, झीनी सबको खाय ।।

अर्थात मोटी माया का त्याग करना कठिन नहीं है। प्रयत्न करने पर कोई भी इसका त्याग कर सकता है।
लेकिन झीनी माया - अर्थात अहंभाव का त्याग इतना आसान नहीं है  
मान रुपी सूक्ष्म माया को त्यागना बहुत मुश्किल है। 
यहां तक कि पीर-पैगम्बर, औलिया, ग्यानी-ध्यानी, गुरु और ऋषि-मुनि तक भी इसके चंगुल से नहीं बच पाए।  
अक़्सर देखा गया है कि उन्हें भी अपने ज्ञान और तप-त्याग का सूक्ष्म अभिमान रहता है। 
किसी को अपने ज्ञान का अभिमान तो किसी को अपनी भक्ति का अभिमान। 
कुछ लोगों को तो अपनी विनम्रता - अपने नरम स्वभाव का भी अभिमान होता है। 
मैंने कुछ प्रसिद्ध और हरमन-प्यारे संतों को ऐसा भी कहते सुना है कि  -
" मेरे जैसा विनम्र व्यक्ति आप को दुनिया भर में कहीं नहीं मिलेगा।"  
ज़ाहिर है कि  उन्हें अपनी निम्रता-विनम्रता का भी अभिमान था। 

संत तुलसीदास भी रामचरित मानस में लिखते हैं -
           ऐसो को जग में जन नाहीं 
           प्रभुता पाए जाहिं मद नाहीं 
अर्थात संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसे कुछ प्रभुता, पद-प्रतिष्ठा  और अधिकार मिलने पर भी अभिमान न हो। 

संत कबीर जी आगे फरमाते हैं -
             झीनी माया जिन तजी, मोटी गई बिलाय ।
             ऐसे जन के निकट से, सब दुःख गए हिराय ।।

अर्थात जिसने सूक्ष्म माया को पहचान कर उसका त्याग कर दिया तो मोटी माया स्वयं ही - अपने आप ही छूट जाती है। 
जिसके मन में अहम रुपी झीनी माया न हो उसके लिए पद-प्रतिष्ठा और धन- सम्पत्ति इत्यादि भी कोई बाधा नहीं बनती।  
धन और पद-प्रतिष्ठा के रहते भी वह भक्ति के मार्ग पर निर्विघ्न चल सकता है - और मुक्ति प्राप्त कर सकता है। 
ऐसे संतों के सानिध्य से भी कल्याण हो जाता है। 
ऐसे संतजनों को पहचान कर उनके समीप - उनकी संगत में रहना चाहिए ताकि धीरे धीरे वह गुण हमारे अंदर भी आ जाए 
और अहम भाव के कारण जो दुःख हम सहते हैं उस से निवृति हो सके। 
क्योंकि अभिमान एक ऐसा काँटा है जिसे जब तक निकाला न जाए वो चुभता ही रहता है - दुःख देता रहता है  
चलने नहीं देता - आगे नहीं बढ़ने देता। 
                                    ' राजन सचदेव '

7 comments:

  1. बहुत सुंदर राजनजी

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  2. 🙏Bhut he sunder bachan ji.🙏

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  3. This is the ultimate!
    Awesome!

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  4. Beautiful thoughts and beautifully explained. Thank you Rajan Ji.
    Narendra Garg

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  5. SBHI BLOG ATI SUNDER ..PR MAYA K DO ROOP ..STHOOL AUR SUKSHM TO BAHUT HI SUNDER HAI

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  6. Awesomely awesome 👏 🙏🏾👏 Jai Gurudev 👏🙏🏾👏

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