मध्यकालीन युग के भारत के महान संत कवियों में से एक थे कवि रहीम सैन - जिनकी विचारधारा आज भी उतनी ही प्रभावशाली है जितनी उनके समय में थी।
कवि रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम खानखाना था। वे गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे और अकबर के नवरत्नों में से एक थे।
वे बड़े दानशील थे और अपनी व्यक्तिगत आय से बहुत कुछ नियमित रूप से दान कर दिया करते थे।
प्रतिदिन सुबह, जब वे अपने घर के बाहर बैठते - तो बहुत से ज़रूरतमंद लोग उनके पास आते और वे उनकी ज़रूरत के अनुसार उनकी झोली धन, वस्त्र या अन्न इत्यादि से भर देते थे । लेकिन उनका दान देने का अपना ही एक अनोखा अंदाज़ था। ये बात प्रसिद्ध थी कि रहीम जब भी किसी को दान देते - तो अपनी आँखें नीची रखते और कभी भी लोगों से आँखें नहीं मिलाते थे।
गोस्वामी तुलसीदास ने एक बार रहीम को पत्र लिखकर उन्हें पूछा कि वे दान करते समय अपनी आँखें नीची क्यों कर लेते हैं?
उन्होंने लिखा –
ऐसी देनी देन जू - कित सीखे हो सैन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन॥
अर्थात हे मित्र - तुम ऐसे दान क्यों देते हो? ऐसा तुमने कहाँ से सीखा? (मैंने सुना है) कि जैसे जैसे तुम अपने हाथ दान करने के लिये उठाते हो, वैसे वैसे अपनी आँखें नीची कर लेते हो।
रहीम ने उत्तर में जो लिखा वो नम्रता और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण था।
देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥
अर्थात - देने वाला तो कोई और - यानी ईश्वर है - जो दिन रात दे रहे हैं। लेकिन लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, इसलिये मेरी आँखें अनायास ही शर्म से झुक जाती हैं।
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पहला - यानि प्रश्न वाला दोहा गोस्वामी तुलसीदास का नहीं बल्कि कवि गंग का है।
लेकिन प्रश्न चाहे किसी ने भी किया हो - महत्वपूर्ण बात तो रहीम के उत्तर में निहित है - कि दान देते समय या किसी की मदद करते समय हमारे मन में अभिमान नहीं - बल्कि नम्रता का भाव होना चाहिए।
रहीम का मानना था कि :
‘रहिमन’ गली है सांकरी - दूजो नहिं ठहराहिं।
आपु अहै, तो हरि नहीं - हरि, तो आपुन नाहिं॥
जहां अभिमान है वहां प्रभु का निवास नहीं हो सकता।
'राजन सचदेव '
कवि रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम खानखाना था। वे गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे और अकबर के नवरत्नों में से एक थे।
वे बड़े दानशील थे और अपनी व्यक्तिगत आय से बहुत कुछ नियमित रूप से दान कर दिया करते थे।
प्रतिदिन सुबह, जब वे अपने घर के बाहर बैठते - तो बहुत से ज़रूरतमंद लोग उनके पास आते और वे उनकी ज़रूरत के अनुसार उनकी झोली धन, वस्त्र या अन्न इत्यादि से भर देते थे । लेकिन उनका दान देने का अपना ही एक अनोखा अंदाज़ था। ये बात प्रसिद्ध थी कि रहीम जब भी किसी को दान देते - तो अपनी आँखें नीची रखते और कभी भी लोगों से आँखें नहीं मिलाते थे।
गोस्वामी तुलसीदास ने एक बार रहीम को पत्र लिखकर उन्हें पूछा कि वे दान करते समय अपनी आँखें नीची क्यों कर लेते हैं?
उन्होंने लिखा –
ऐसी देनी देन जू - कित सीखे हो सैन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन॥
अर्थात हे मित्र - तुम ऐसे दान क्यों देते हो? ऐसा तुमने कहाँ से सीखा? (मैंने सुना है) कि जैसे जैसे तुम अपने हाथ दान करने के लिये उठाते हो, वैसे वैसे अपनी आँखें नीची कर लेते हो।
रहीम ने उत्तर में जो लिखा वो नम्रता और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण था।
देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥
अर्थात - देने वाला तो कोई और - यानी ईश्वर है - जो दिन रात दे रहे हैं। लेकिन लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, इसलिये मेरी आँखें अनायास ही शर्म से झुक जाती हैं।
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पहला - यानि प्रश्न वाला दोहा गोस्वामी तुलसीदास का नहीं बल्कि कवि गंग का है।
लेकिन प्रश्न चाहे किसी ने भी किया हो - महत्वपूर्ण बात तो रहीम के उत्तर में निहित है - कि दान देते समय या किसी की मदद करते समय हमारे मन में अभिमान नहीं - बल्कि नम्रता का भाव होना चाहिए।
रहीम का मानना था कि :
‘रहिमन’ गली है सांकरी - दूजो नहिं ठहराहिं।
आपु अहै, तो हरि नहीं - हरि, तो आपुन नाहिं॥
जहां अभिमान है वहां प्रभु का निवास नहीं हो सकता।
'राजन सचदेव '
Vaah sachdeva sahab
ReplyDeleteIt was not Tulsidas who said this. It was गंग in Akbar's court who said it.
ReplyDeleteI agree.
DeleteHowever, there are two popular versions of this story - one gives credit to Tulsi Das.
But I have always believed it was Kavi Gang - not Tulsidas - That is why I mentioned about Kavi Gang also in this article.
Perhaps I should rewrite this article and reverse the names ��
Wonderful doha!!! Was searching for it since so many days. Thank you so much
ReplyDeleteIt is one of most my fav. doha which inculcate humbleness.
ReplyDeleteअति सुन्दर भाव।
ReplyDeleteधन्य हैं भारतीय सन्त परम्परा।
अभिमान से बचें
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भाव है
ReplyDeleteभारतीय संत परम्परा को मेरा करबद्ध प्रणाम 🙏
बहुत खूब
ReplyDeleteSachdev Sahab, wo daani Rahim nahi Raja Harishchandra the, kripya sudha kar lijiye
ReplyDeleteअपने आप को मिटाने के परिवर्तन संभव है
ReplyDeleteरहीम और तुलसी समकालीन कवि थे। इसलिए उपरोक्त कथन सही है।
ReplyDeleteराजा सत्यवादी हरिश्चन्द्र से जोड़ना Whatsapp यूनिवर्सिटी के गुरुओं का ज्ञान है। जो तुलसी दास को हरिश्चन्द्र का समकालीन बताते हुए वीडियो वायरल कर रहे हैं। ऐसे लोग सावरकर को जेल से तोते के बाहर निकाल देते हैं। 🤣👌🇮🇳
Bhut Sundar likha hai jisne bhi likha hai
ReplyDeleteMan bhavuk ho jata hai aise vritant sunkar, apne aap ko bahutbhagyshali v samriddh shali mahsush karte hai, aisi parmparaon ka hissa bankar
ReplyDelete10 vi kakchha ki yaad taaja ho gayi hibdi sahitya ka itihaas
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