माया छाया एक सी - बिरला जानै कोय ।
भगता के पाछे फिरै - सनमुख भागे सोय॥
संत कबीर जी महाराज कहते हैं कि माया और छाया एक सी होती हैं।
जो छाया को आगे रख कर उसे पकड़ने की कोशिश करते हैं - छाया उनके आगे आगे दौड़ती है।
और जो छाया को पीछे कर लेते हैं - और स्वयं आगे हो जाते हैं - तो छाया स्वयं ही उनके पीछे पीछे चलने लगती है।
इसी तरह जो माया को सन्मुख अर्थात आगे रखते हैं - हर समय इसके पीछे भागते रहते हैं तो माया हमेशा उनके आगे ही रहती है
कभी तृप्त नहीं होने देती - उनकी लालसा और बढ़ती ही रहती है।
लेकिन जो माया को मिथ्या जान कर छोड़ देते हैं - मन से इस का त्याग कर देते हैं -
जिनका मन प्रभु भक्ति और हरि सुमिरन में लगा रहता है -
उन्हें धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और शक्ति इत्यादि अनायास ही मिल जाते हैं ।
न चाहने पर भी - बिना किसी प्रयत्न के ही सब कुछ मिल जाता है।
लेकिन यदि हम केवल इसी भाव को लेकर भक्ति करने लगें कि भक्ति के माध्यम से हमें संसार का हर सुख - हर चीज़ बिना प्रयास के ही मिल जाएगी तो गुरु कबीर जी ऐसी चेतावनी भी देते हैं कि माया अति मोहिनी है। ये कई रुपों में मन को मोह लेती है - मन पर हावी हो जाती है। केवल धन सम्पत्ति के त्याग से ही माया मर-मिट नहीं जाती।
माया मरी न मन मरा - मर मर गए सरीर
मोहिनी माया तो अंत तक साथ बनी रहती है।
कभी स्थूल रुप में - तो कभी सूक्ष्म रुप में - हमेशा मन को भरमाती ही रहती है।
कबीर माया मोहिनी - मांगे मिलै न हाथ
मनह उतारी जूठ कर लागी डोलै साथ
यहां कबीर जी महाराज चेतावनी दे रहे हैं कि माया बड़ी मोहिनी है -
मांगने से किसी के हाथ में नहीं आती।
अर्थात उनके मन में और अधिक माया - और अधिक धन-सम्पत्ति एवं शक्ति प्राप्त करने की तृष्णा बढ़ती ही रहती है। ये पूरी तरह से किसी के भी हाथ नहीं आती। कोई भी इन्सान पूर्ण रुप से तृप्त नहीं हो पाता।
लेकिन दूसरी तरफ - जो इसे झूठ समझ कर - मिथ्या जानकर इसका त्याग कर देते हैं, माया उनके साथ भी डोलती रहती है -
उनके पीछे भी लगी रहती है। अपने पाश में फांसने के लिए।
कुछ लोग इससे दूरी बना लेते हैं - इसका त्याग कर देते हैं - लेकिन फिर भी किसी न किसी रुप में माया उनके साथ डोलती ही रहती है।
उन्हें किसी और रुप में आकृष्ट करने की कोशिश करती रहती है।
अहम बन कर - ज्ञान और भक्ति, तप-त्याग, पद-प्रतिष्ठा एवं शक्ति इत्यादि के मान-अभिमान के रुप में उनके मन पर हावी हो जाती है।
कोई उनका आदर न करे - या उनका अनादर और अवज्ञा कर दे - उनकी बात न माने - तो वे क्रोधित हो जाते हैं।
ये अहम ही है जो अनादर होने पर बड़े बड़े संतों और ऋषि-मुनियों को भी उदास या क्रोधित कर देता है।
माया ऐसी शक्तिशाली मोहिनी है जो किसी न किसी रुप में सब को मोहित कर ही लेती है।
चाहे वो स्थूल अर्थात धन-सम्पत्ति के रुप में हो - या तृष्णा - लोभ - लालच के रुप में हो
या फिर सूक्ष्म अभिमान के रुप में -
मनह उतारी जूठ कर लागी डोलै साथ
डोलने का अर्थ है - चंचलता - इतराना, झूमना, नाचना - नाच कर अपनी तरफ आकर्षित करना।
चाहे वो स्थूल रुप में हो या सूक्ष्म अभिमान के रुप में हो - माया अक़्सर सबके साथ डोलती ही रहती है।
सर्पनी ते ऊपर नहीं बलिया
जिन ब्रह्मा बिसन महादेउ छलिया
(कबीर जी- गुरबाणी पृष्ठ 740)
इसलिए ज्ञानी एवं भक्तजनों को माया के इस सूक्ष्म रुप को भी अच्छी तरह समझ कर अहंभाव से बचने की कोशिश करनी चाहिए।
" राजन सचदेव "
बहुत ही अच्छी विआखिया की है आप जी ने माया के शब्द की - धन्यबाद🌹🙏🙏
ReplyDeleteBhut he sunder bachan ji.🙏
ReplyDeleteBeautiful explanation🙏
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