माया के दो रुप हैं ।
एक बृहद - मोटी अथवा स्थूल माया
और दूसरी - सूक्ष्म।
मोटी, स्थूल अथवा वृहद माया जैसे सांसारिक उपभोग की वस्तुएं - ज़मीन जायदाद , धन-दौलत सम्पत्ति इत्यादि।
और सूक्ष्म माया का अर्थ है अहं भाव - अर्थात मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और सम्पत्ति इत्यादि का अभिमान।
सद्गुरु कबीर जी फरमाते हैं :
मोटी माया सब तजै , झीनी तजी न जाय ।
पीर पैगम्बर औलिया, झीनी सबको खाय ।।अर्थात मोटी माया का त्याग करना कठिन नहीं है। प्रयत्न करने पर कोई भी इसका त्याग कर सकता है।
लेकिन झीनी माया - अर्थात अहंभाव का त्याग इतना आसान नहीं है
मान रुपी सूक्ष्म माया को त्यागना बहुत मुश्किल है।
यहां तक कि पीर-पैगम्बर, औलिया, ग्यानी-ध्यानी, गुरु और ऋषि-मुनि तक भी इसके चंगुल से नहीं बच पाए।
अक़्सर देखा गया है कि उन्हें भी अपने ज्ञान और तप-त्याग का सूक्ष्म अभिमान रहता है।
किसी को अपने ज्ञान का अभिमान तो किसी को अपनी भक्ति का अभिमान।
कुछ लोगों को तो अपनी विनम्रता - अपने नरम स्वभाव का भी अभिमान होता है।
मैंने कुछ प्रसिद्ध और हरमन-प्यारे संतों को ऐसा भी कहते सुना है कि -
" मेरे जैसा विनम्र व्यक्ति आप को दुनिया भर में कहीं नहीं मिलेगा।"
ज़ाहिर है कि उन्हें अपनी निम्रता-विनम्रता का भी अभिमान था।
संत तुलसीदास भी रामचरित मानस में लिखते हैं -
ऐसो को जग में जन नाहीं
प्रभुता पाए जाहिं मद नाहीं
अर्थात संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसे कुछ प्रभुता, पद-प्रतिष्ठा और अधिकार मिलने पर भी अभिमान न हो।
संत कबीर जी आगे फरमाते हैं -
झीनी माया जिन तजी, मोटी गई बिलाय ।
ऐसे जन के निकट से, सब दुःख गए हिराय ।।
ऐसे जन के निकट से, सब दुःख गए हिराय ।।
अर्थात जिसने सूक्ष्म माया को पहचान कर उसका त्याग कर दिया तो मोटी माया स्वयं ही - अपने आप ही छूट जाती है।
जिसके मन में अहम रुपी झीनी माया न हो उसके लिए पद-प्रतिष्ठा और धन- सम्पत्ति इत्यादि भी कोई बाधा नहीं बनती।
धन और पद-प्रतिष्ठा के रहते भी वह भक्ति के मार्ग पर निर्विघ्न चल सकता है - और मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
ऐसे संतों के सानिध्य से भी कल्याण हो जाता है।
ऐसे संतजनों को पहचान कर उनके समीप - उनकी संगत में रहना चाहिए ताकि धीरे धीरे वह गुण हमारे अंदर भी आ जाए
और अहम भाव के कारण जो दुःख हम सहते हैं उस से निवृति हो सके।
क्योंकि अभिमान एक ऐसा काँटा है जिसे जब तक निकाला न जाए वो चुभता ही रहता है - दुःख देता रहता है
चलने नहीं देता - आगे नहीं बढ़ने देता।
' राजन सचदेव '
बहुत सुंदर राजनजी
ReplyDelete🙏Bhut he sunder bachan ji.🙏
ReplyDeleteThis is the ultimate!
ReplyDeleteAwesome!
Beautiful thoughts and beautifully explained. Thank you Rajan Ji.
ReplyDeleteNarendra Garg
SBHI BLOG ATI SUNDER ..PR MAYA K DO ROOP ..STHOOL AUR SUKSHM TO BAHUT HI SUNDER HAI
ReplyDeleteAwesomely awesome 👏 🙏🏾👏 Jai Gurudev 👏🙏🏾👏
ReplyDelete🙏🙏🙏🙏
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