Thursday, June 30, 2022

रिश्ते निभाने हैं तो... Want to maintain relationships?

स्टेटस दिखाना है तो टच-फ़ोन रखिए 
रिश्ते निभाने हैं - तो  टच में रहिए 

Status dikhaana hai - to touch-phone rakhiye 
Rishtay nibhaanay hain to touch mein rahiye 

Want to show your status? 
Keep a touch phone in your hand
Want to maintain relationships?  
Then stay in touch with everyone 

Wednesday, June 29, 2022

It's Funny

It's absurd 
         It's silly and amusing.

We come into this world alone - with Nothing.

While here - 
We fight with everyone - for everything 
For the money, possessions, land, and property 
For prestige, positions, pride, and honor.
We even fight in the name of religion.

And then -  
We leave this world alone - with Nothing.

Isn't it funny? 
                         " Rajan Sachdeva "

हास्यास्पद - बेतुकी मगर मनोरंजक

 हास्यास्पद - बेतुकी मगर मनोरंजक

जब संसार में आते हैं - 
तो सब अकेले ही आते हैं - 
          और वो भी खाली हाथ। 

पर संसार में  रहते हुए  -
सबके साथ लड़ते हैं - 
हर बात - हर चीज के लिए
धन, संपत्ति, ज़मीन और जायदाद के लिए 
पद, प्रतिष्ठा, गौरव और सम्मान के लिए
यहां तक कि धर्म के नाम पर भी लड़ते हैं।

और फिर  -
जब संसार से जाने का वक़्त आता है -
तो सब अकेले ही जाते हैं - 
            और वो भी खाली हाथ। 
                                       " राजन सचदेव "

Tuesday, June 28, 2022

ख़ामोशी अगर तेरी मजबूरी है - If silence is your compulsion

तेरी ख़ामोशी अगर तेरी मजबूरी है
तो रहने दो - इश्क़ भी कौन सा ज़रुरी है
                 (लेखक अज्ञात )

Teri khaamoshi agar teri majboori hai 
To rehnay do - ishq bhi kaun sa zaroori hai
                                                   (Writer unknown)
            ~~~~~~~~~~~~
If your silence is your compulsion
Then let it be - 
Love is also not that important anyway 

माया छाया एक सी / कबीर माया मोहिनी

         माया छाया एक सी - बिरला जानै कोय ।
         भगता के पाछे फिरै - सनमुख भागे सोय॥

संत कबीर जी महाराज कहते हैं कि माया और छाया एक सी होती हैं। 
जो छाया को आगे रख कर उसे पकड़ने की कोशिश करते हैं - छाया उनके आगे आगे दौड़ती है।  
और जो छाया को पीछे कर लेते हैं - और स्वयं आगे हो जाते हैं - तो छाया स्वयं ही उनके पीछे पीछे चलने लगती है। 

इसी तरह जो माया को सन्मुख अर्थात आगे रखते हैं - हर समय इसके पीछे भागते रहते हैं तो माया हमेशा उनके आगे ही रहती है 
कभी तृप्त नहीं होने देती - उनकी लालसा और बढ़ती ही रहती है। 

लेकिन जो माया को मिथ्या जान कर छोड़ देते हैं - मन से इस का त्याग कर देते हैं - 
जिनका मन प्रभु भक्ति और हरि सुमिरन में लगा रहता है - 
उन्हें धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और शक्ति इत्यादि अनायास ही मिल जाते हैं । 
न चाहने पर भी - बिना किसी प्रयत्न के ही सब कुछ मिल जाता है। 

लेकिन यदि हम केवल इसी भाव को लेकर भक्ति करने लगें कि भक्ति के माध्यम से हमें संसार का हर सुख - हर चीज़ बिना प्रयास के ही मिल जाएगी तो गुरु कबीर जी ऐसी चेतावनी भी देते हैं कि माया अति मोहिनी है। ये कई रुपों में मन को मोह लेती है - मन पर हावी हो जाती है। केवल धन सम्पत्ति के त्याग से ही माया मर-मिट नहीं जाती।  
                          माया मरी न मन मरा - मर मर गए सरीर 
मोहिनी माया तो अंत तक साथ बनी रहती है। 
कभी स्थूल रुप में - तो कभी सूक्ष्म रुप में - हमेशा मन को भरमाती ही रहती है। 

                कबीर माया मोहिनी - मांगे मिलै न हाथ 
                मनह उतारी जूठ कर लागी डोलै साथ
यहां कबीर जी महाराज चेतावनी दे रहे हैं कि माया बड़ी मोहिनी है  - 
मांगने से किसी के हाथ में नहीं आती।  
अर्थात उनके मन में और अधिक माया - और अधिक धन-सम्पत्ति एवं शक्ति प्राप्त करने की तृष्णा बढ़ती ही रहती है। ये पूरी तरह से किसी के भी हाथ नहीं आती। कोई भी इन्सान पूर्ण रुप से तृप्त नहीं हो पाता। 

लेकिन दूसरी तरफ - जो इसे झूठ समझ कर - मिथ्या जानकर इसका त्याग कर देते हैं,  माया उनके साथ भी डोलती रहती है - 
उनके पीछे भी लगी रहती है। अपने पाश में फांसने के लिए। 
कुछ लोग इससे दूरी बना लेते हैं - इसका त्याग कर देते हैं - लेकिन फिर भी किसी न किसी रुप में माया उनके साथ डोलती ही रहती है। 
उन्हें किसी और रुप में आकृष्ट करने की कोशिश करती रहती है। 
अहम बन कर -  ज्ञान और भक्ति, तप-त्याग, पद-प्रतिष्ठा एवं शक्ति इत्यादि के मान-अभिमान के रुप में उनके मन पर हावी हो जाती है। 
कोई उनका आदर न करे - या उनका अनादर और अवज्ञा कर दे - उनकी बात न माने  - तो वे क्रोधित हो जाते हैं।
ये अहम ही है जो अनादर होने पर बड़े बड़े संतों और ऋषि-मुनियों को भी उदास या क्रोधित कर देता है। 
माया ऐसी शक्तिशाली मोहिनी है जो किसी न किसी रुप में सब को मोहित कर ही लेती है।
चाहे वो स्थूल अर्थात धन-सम्पत्ति के रुप में हो - या तृष्णा - लोभ - लालच के रुप में हो 
या फिर सूक्ष्म अभिमान के रुप में  - 
                मनह उतारी जूठ कर लागी डोलै साथ
डोलने का अर्थ है - चंचलता - इतराना, झूमना, नाचना - नाच कर अपनी तरफ आकर्षित करना।
चाहे वो स्थूल रुप में हो या सूक्ष्म अभिमान के रुप में हो - माया अक़्सर सबके साथ डोलती ही रहती है।
              सर्पनी ते ऊपर नहीं बलिया 
              जिन ब्रह्मा बिसन महादेउ छलिया 
                                     (कबीर जी- गुरबाणी पृष्ठ 740)
इसलिए ज्ञानी एवं भक्तजनों को माया के इस सूक्ष्म रुप को भी अच्छी तरह समझ कर अहंभाव से बचने की कोशिश करनी चाहिए। 
                                        "  राजन सचदेव "  

Maya and Chhaya (Shadow) are Similar

      Maaya Chaayaa ek see - Birlaa jaanay koye
    Bhagtaan kay paachhay phiray - Sanmukh bhaagay soye

Sant Kabir Ji Maharaj says that Maya and Chhaya (shadow) - are the same - very similar.
Those who try to catch the shadow in front of them - the shadow moves further - it runs ahead of them.
And those who keep the shadow behind, the shadow itself starts following them.

In the same way, those who keep Maya in front - run after it all the time - Maya remains in front of them.
It never lets them be satisfied - their greed and longing always keep increasing.
And those, who give up Maya - renounce it - whose mind is absorbed in God's devotion, and Hari Sumiran - chanting and meditating - they automatically get wealth, prestige, position and power, etc.  
Even if they don't desire it, they still get it without any effort. 

But then - 
If we start doing Bhakti with only this desire in the mind that through devotion, we will get every happiness - everything in the world without any effort, then Guru Kabir ji warns us that Maya is very seductive - enchanting, and captivating. 
It allures and captivates in many different forms. 
It overwhelms and slowly conquers the mind. 
It does not die just by giving up wealth - Mohini Maya stays with everyone till the end. 
Sometimes in a gross form - sometimes in a subtle form - it always continues to deceive the mind.

               Kabir Maya Mohini - mangay milay na haath
               Manahi utaari jooth kar - laagi dolay Saath

Here Sant Kabir Ji Maharaj warns us that Maya is an amazing Mohini - a tremendous seductive attraction - appealing and alluring - it draws everyone like a magnet.
It does not come into the hands of those who run after it - meaning they are never satisfied - they keep desiring for more - and more.  

But on the other hand, those who renounce it - consider it worthless, temporary,  transitory, and fleeting - the Maya still continues to cling with them. It continues to follow them. To get them caught in its spiral web.

Those who distance themselves from it - renounce it -  the Maya continues to oscillate with them too in one form or the other - trying to attract them in some way - such as pride and ego of their Gyan and Bhakti - knowledge and devotion - austerity, renunciation, or position, prestige, power, etc.
If someone does not respect them - disrespects or disobeys them - if someone does not listen to them, they get angry.
The ego makes even great saints and sages sad or angry when they are disrespected or disobeyed.
Maya is such a powerful thing that captivates everyone - whether it is in the form of wealth and possessions - craving and greed - or subtle pride and ego.
               
'Dolay' means wandering - to swing, to dance - to attract.
Whether it is in the form of gross or subtle pride - Maya often keeps on flirting and fluttering with everyone.
            Sarpani tay oopar nahin baliyaa
            Jin Brahmaa Bisan Mahadeo chhaliya
                           (Kabir Ji - Gurbani page 740)
Kabeer ji says - Even Lord Brahmaa, Vishnu, and Mahadev got deceived by it.
Therefore, the Gyani and Bhakta - the devotees should thoroughly apprehend this Sookshm - the subtle form of Maya and try to avoid it.
                                        " Rajan Sachdeva "

Monday, June 27, 2022

जो करते हैं तुमसे हमारी बुराईयां

बड़े ऐतमाद और तंज़-ओ-मज़ाह से 
जो करते हैं तुमसे हमारी बुराईयां 

मिलते हैं जब आके हमसे वो  'राजन '
तो  करते हैं हमसे तुम्हारी बुराईयां 
                         " राजन सचदेव "

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें गपशप करने में बहुत दिलचस्पी होती है। 
उन्हें बातें बनाना और अफवाहें फैलाना बहुत अच्छा लगता है । 
उन्हें अन्य लोगों की ख़ामियों और ग़लतियों के बारे में बात करने में मज़ा आता है । 
अगर वो किसी की कोई भूल या ग़लती के बारे में सुनते हैं -
तो उस बात की सच्चाई और प्रामाणिकता की जाँच किए बिना ही उसे चारों ओर फैलाना शुरु कर देते हैं।

याद रखें -  कि जो लोग आप के पास आकर दूसरों की निंदा करते हैं - उनकी बुराईयां करते हैं 
वो उनके पास जाकर उनसे आपकी बुराइयां - और आप की निंदा भी ज़रुर करते होंगे। 
                                                                                                     " राजन सचदेव "

एतमाद = विश्वास, उत्साह 
तंज़-ओ-मज़ाह से  = आलोचना और व्यंग्य पूर्ण मज़ाकिया लहज़े में 

Those who talk about my mistakes - Jo kartay tumsay hamaari buraiyan

Baday aitmaad aur tanz-o-mazaah say
Jo kartay hain tum say hamaari buraaiyaan 

Miltay hain jab aa kay ham say vo 'Rajan'
To kartay hain ham say tumhaari  buraaiyaan
               ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
                               Translation

With confidence - sarcasm, satire, and humor

Those who talk to you about my mistakes and follies.


The same people, when they come to me - 

with the same zeal and enthusiasm - 

they tell me about all your blunders and follies.  

                     ~~~~~~~~~~~~~~

There are people, who just love to gossip. 

They love to spread rumors. 

When they hear about some faults, flaws, or follies of some people, they enjoy talking about them - 

and without bothering to check the authenticity, they start spreading them around. 

 

Be assured that those who talk to you ill about others, 

must be talking badly about you to them too.

                                                           'Rajan Sachdeva ' 

Sunday, June 26, 2022

आप एक सफल व्यक्ति बन सकते हैं

जो उपदेश - सलाह और मशवरे आप दूसरों को देते हैं 
अगर उन पर स्वयं भी चलना शुरु कर दें -
तो आप जीवन में एक सबसे अधिक सफल व्यक्ति बन सकते हैं। 

You can be the most successful person

You can become the most successful person in life -
if you start following all the sermons and advice you give to others.
                                         (Unknown)

Saturday, June 25, 2022

Two Forms of Maya - Gross and Subtle

Maya has two forms.
Sthool Maya - Solid, Broad, or Gross Maaya
And the second is Sookshm - Subtle.

Sthool or Gross Maya means Land, wealth, property and possessions, etc.
And Sooksham - subtle Maya means egoism - pride and ego of honor, position, prestige, wealth and property, etc.

Sadhguru Kabir ji says:
              Moti Maya sab tajen- jheeni taji na jaaye 
              Peer Paighambar Auliya - Jheeni sab ko khaaye

Means - it is not hard to renounce the Moti or gross Maya. 
Anyone can give it up by trying - by working hard and practicing.
But it is not so easy to give up the subtle - minute unpretentious Maya - that is, egoism.
It is extremely hard to let go of the subtle Maya of egoism.

Kabeer ji says even the Peers-Prophets, enlightened Gyani-Dhyani, Guru, and Rishi-Munis could not escape from the clutches of this subtle Maya.

It has often been seen that they also have subtle pride or ego in their knowledge, renunciation, abstinence, and austerity.
Some are proud of their Gyan - their knowledge, 
and some are proud of their Bhakti - their devotion.
Some people are even proud of their humility - of their soft nature.
I have heard some famous and beloved great saints saying:
"You will not find a more humble person than me anywhere in the world."
Obviously, they were proud of their humility.

Saint Tulsidas also writes in Ramcharit Manas -
         "Aeso ko jag me jan naahin
         Prabbhutaa paaye jaahin mad naahin"
That there is no one in the world who does not develop ego - does not become proud after getting some authority, position, prestige, and honor.

Sant Kabir ji further says -
                 Jheeni maaya jin taji - Moti jaaye bilaaye
                 Aese Jan kay nikat say sab dukh gaye hiraaye

Means - the one who has recognized and renounced the subtle Maya, then the gross Maya automatically gets released.

For one who doesn't have the subtle pride and ego in his mind - his position, prestige and wealth, etc., do not become a hindrance for him.
Despite having wealth and prestige, he can walk on the path of Bhakti unhindered - and attain liberation.
Even others can also benefit from the company of such saints.

Recognizing such saints - staying close to them, and being in their company can gradually help us develop those qualities in ourselves as well.
And we can get relief from the misery we suffer because of the ego.
Because the ego is like a thorn in the foot - 
until it is pulled out, it keeps on pricking - 
it keeps on hurting and does not let us walk and move forward.
                                     'Rajan Sachdeva '

माया के दो रुप - स्थूल और सूक्ष्म

माया के दो रुप हैं । 
एक बृहद - मोटी अथवा स्थूल माया 
और दूसरी - सूक्ष्म। 
मोटी, स्थूल अथवा वृहद माया जैसे सांसारिक उपभोग की वस्तुएं - ज़मीन जायदाद , धन-दौलत सम्पत्ति इत्यादि। 
और सूक्ष्म माया का अर्थ है अहं भाव - अर्थात मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और सम्पत्ति इत्यादि का अभिमान। 

सद्गुरु कबीर जी फरमाते हैं :
                 मोटी माया सब तजै , झीनी तजी न जाय ।
                 पीर पैगम्बर औलिया, झीनी सबको खाय ।।

अर्थात मोटी माया का त्याग करना कठिन नहीं है। प्रयत्न करने पर कोई भी इसका त्याग कर सकता है।
लेकिन झीनी माया - अर्थात अहंभाव का त्याग इतना आसान नहीं है  
मान रुपी सूक्ष्म माया को त्यागना बहुत मुश्किल है। 
यहां तक कि पीर-पैगम्बर, औलिया, ग्यानी-ध्यानी, गुरु और ऋषि-मुनि तक भी इसके चंगुल से नहीं बच पाए।  
अक़्सर देखा गया है कि उन्हें भी अपने ज्ञान और तप-त्याग का सूक्ष्म अभिमान रहता है। 
किसी को अपने ज्ञान का अभिमान तो किसी को अपनी भक्ति का अभिमान। 
कुछ लोगों को तो अपनी विनम्रता - अपने नरम स्वभाव का भी अभिमान होता है। 
मैंने कुछ प्रसिद्ध और हरमन-प्यारे संतों को ऐसा भी कहते सुना है कि  -
" मेरे जैसा विनम्र व्यक्ति आप को दुनिया भर में कहीं नहीं मिलेगा।"  
ज़ाहिर है कि  उन्हें अपनी निम्रता-विनम्रता का भी अभिमान था। 

संत तुलसीदास भी रामचरित मानस में लिखते हैं -
           ऐसो को जग में जन नाहीं 
           प्रभुता पाए जाहिं मद नाहीं 
अर्थात संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसे कुछ प्रभुता, पद-प्रतिष्ठा  और अधिकार मिलने पर भी अभिमान न हो। 

संत कबीर जी आगे फरमाते हैं -
             झीनी माया जिन तजी, मोटी गई बिलाय ।
             ऐसे जन के निकट से, सब दुःख गए हिराय ।।

अर्थात जिसने सूक्ष्म माया को पहचान कर उसका त्याग कर दिया तो मोटी माया स्वयं ही - अपने आप ही छूट जाती है। 
जिसके मन में अहम रुपी झीनी माया न हो उसके लिए पद-प्रतिष्ठा और धन- सम्पत्ति इत्यादि भी कोई बाधा नहीं बनती।  
धन और पद-प्रतिष्ठा के रहते भी वह भक्ति के मार्ग पर निर्विघ्न चल सकता है - और मुक्ति प्राप्त कर सकता है। 
ऐसे संतों के सानिध्य से भी कल्याण हो जाता है। 
ऐसे संतजनों को पहचान कर उनके समीप - उनकी संगत में रहना चाहिए ताकि धीरे धीरे वह गुण हमारे अंदर भी आ जाए 
और अहम भाव के कारण जो दुःख हम सहते हैं उस से निवृति हो सके। 
क्योंकि अभिमान एक ऐसा काँटा है जिसे जब तक निकाला न जाए वो चुभता ही रहता है - दुःख देता रहता है  
चलने नहीं देता - आगे नहीं बढ़ने देता। 
                                    ' राजन सचदेव '

नफरतें Hatred

नफरतें बेचने वालों की भी मजबूरी है
माल तो चाहिए दुकान चलाने के लिए
             
Nafraten baichnay waalon ki bhi majboori hai
Maal to chaahiye dukaan chalaanay kay liye 
                                             (Unknown)
                  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

Those who sell hatred also have a compulsion - 
They need merchandise - 
commodities, and material to run their shop.

Friday, June 24, 2022

Sleep and Death नींद और मौत में फ़र्क़


नींद और मौत में क्या फ़र्क़ है ?
नींद आधी मौत है - 
और मौत मुकम्मल - मुस्तकिल नींद 

What is the Difference between Sleep and Death?
Sleep is half Death -
and Death is Complete, Endless Sleep.

Thursday, June 23, 2022

ये लकीरें भी अजीब हैं These Lines are Mysterious

                  Please scroll down for Roman Script and translation

       ये लकीरें भी अजीब हैं .......

हाथ पर हो तो  तक़दीर कहलाती है
ज़मीन पर हो तो सरहद बन जाती है 

चेहरे पर खिंच जाए  तो  ज़ख्म  -
और रिश्तों में पड़ जाए तो दीवार बन जाती है 

ट्रैन-ट्रैक सी सीधी हो - तो मंज़िल पे ले जाए 
टेढ़ी-मेढ़ी हों अगर - तो उलझन बन जाती है 

और अपनी लकीरें ख़ुद बनाओ - तो कोई बात बने 
लकीर का फ़क़ीर तो सारी दुनिया बन जाती है 
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      Ye Lakeeren bhee ajeeb hain ...... 

Haath par ho to taqdeer kehlaati hai
Zameen par ho to sarhad ban jaati hai

Chehray par khinch jaaye to zakhm -
Aur rishton mein pad jaaye to divaar ban jaati hai

Train-track see seedhi ho to manzil pay lay jaaye
Tedhee-medhee hon agar - to uljhan ban jaati hai 

Aur apni lakeeren khud banaao to koyi baat banay 
Lakeer ka faqeer to saari duniya ban jaati hai
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           These Lines are strange - mysterious ...

On the hand - they are called luck
Become borders if drawn on the ground.

Scraped on the face, they create a wound -
And if drawn into relationships, they become walls.

If straight like the train track - they take you to the destination -
If crooked - then they become an annoyance

And if you draw your own lines - then it's a triumph 
Otherwise, the whole world follows the lines drawn by others anyway. 
                                           ' Rajan Sachdeva '

Wednesday, June 22, 2022

Does everything happen with the will of God?

Quite often we hear a popular phrase:
"Parmatma ki ichha kay Bina kuchh nahin ho saktaa"
That Nothing can happen without the will of God.

However, it's a wrong concept - the true quote is......
"Parmatma kay bina kuchh nahin ho saktaa"
"Nothing can happen without God"

Another popular phrase:
"Parmaatma ki ichha kay ek Bina pataa bhi nahin hil saktaa"
"Nothing - not even a leaf, can move without the will of God"

But the actual phrase is:
"Nothing - not even a leaf, can move without God"

I don't know when and how the word "will of God" got added to these phrases.

"What is the difference?" One may ask.

There is a big difference.
And that is what creates confusion in our minds. 

By saying "will of God", not only do we imply that God has 'desires', but preferences as well. 
It means God is not impartial and just - 
that He favors or disfavors certain people - creates and destroys - provides or takes away according to His will and preferences.

If nothing can happen without the "will of God" then why do 'sin and evil' exist in the world? 
It means that all the bad things; killings and hatred etc. are happening with the "will of God". Because He desires so?

However, when we say "nothing can move without God" - has a different meaning altogether. 
It makes perfect sense and it is perfectly scientific.

Every gadget and appliance in our homes run on electricity. 
We see the appliances working but do not see the energy behind them. 
For example, we only see the light bulb shining, not the electricity flowing through it - because the light bulb is physical and electricity is Formless. 
We don't see the electricity, yet we know that the bulb cannot shine without the electricity.

Now, can we say that the bulb cannot shine without the 'will of electricity"?

We don't see electricity shining, heating or cooling, or even flowing - but none of the household appliances can work without it. 
And without a doubt, we know it's the 'electricity'- not the 'will of electricity' that makes the appliances move or work.
Electricity simply provides energy. Shining, heating, or cooling depends on the design and programming of the gadget, not on the will of electricity.

Similarly, God is 'Nirankaar, 'Nirgun' (Formless and attribute-less) - the 'Basic source of energy behind everything. 
Nothing can move or work without God.
But Love or hatred, kindness or cruelty, generosity or selfishness, helping and saving or torturing and killing, etc, depends on the individuals, not on the so-called 'will of God'. 
                                                          'Rajan Sachdeva'

Does Supreme Lord Reward or Punish?

According to Vedantic philosophy - and all other similar Indian ideologies:

Supreme Lord neither rewards nor punishes.


Bhagavad Geeta says:

   Nadattay kasya chitt paapam, Na chaiva sukritam Vibhuh

   Agnanen aavrutam gnanam, tena muhyanti jantavah*

                          (Bhagavad Gita 5 /15)


Vibhuh - The Omnipresent Supreme God certainly does not keep records of Paapam (sinful) and Sukritam (virtuous deeds) of anyone. 

Jantavah - the living beings are deluded because their Gyana - their knowledge is deceived by ignorance. 


God is not responsible for virtuous deeds or sinful actions of anyone. 

Individual souls have the freedom to perform good or bad actions by exercising their own free will.  


Some living beings are deluded and deceived by ignorance. 

They believe they do not have any Free will. 

They think everything happens according to the will of God. 

They ask - how can a soul have any free will?


Because the soul is a part of the Supreme Soul. 

Therefore it also possesses some qualities of the Supreme Soul. 

Since Almighty God is entirely free and supremely independent.

Therefore, we - the soul, as a part of the absolutely-independent Supreme soul, also possess some independence.

If we believe that God has created us in His own image - 

then we must have some Free-will too.


We have been provided with Free-will to utilize our faculties - our senses, mind, and intellect - 

and to choose our actions as well.

The exercise of our free-will results in our good and bad deeds - 

so we must not blame God for our deeds and their outcomes - and destiny. 


In ignorance, some people do not admit they possess the freedom to choose their actions. 

They think God is responsible for all their deeds - for their mistakes and destiny.


According to the Bhagavad Geeta - it's our Karma - our actions that bring the outcome, not some higher power sitting somewhere up in the sky and randomly deciding our fate.

Our own Karma or actions are responsible for the good or bad consequences.

"As you sow, so shall you reap" is the basic principle of the Karma theory.


Guru Nanak also promoted the same ideology:

  "Punni Papi aakhan nahin 

   kar kar karnaa likh lai jaahu

   Aapay beej Aapay hee khahu 

   Nanak Hukmi aavoh jaahu"


"Mere declarations do not make vicious or virtuous

It is the actions that get recorded.

Thus what we sow is what we reap.

By the order, Nanak (says) we come and go (move and act)

                   (Japuji Sahib - Pauri 20)


Hukam is the 'Order' - the principle.

The principle of Cause and Effect.

Some people translate Hukami as "will of God.

In that case, the first part (Aapay beej aapay....) would not make much sense.


     Aapay beej aapay hi khahu' means what we sow is what we reap.

This is a very clear message about the Karma theory.

The same as what is illustrated by Lord Krishn in Bhagavad Geeta. 


Therefore, instead of blaming the Supreme Lord for everything, we should pay attention to our Karma - 

our actions - our deeds.

                            'Rajan Sachdeva '


    * नादत्ते कस्य  चित्तपापं , न चैव सुकृतं विभु:
      अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तव:
                                   (भगवद गीता 5/ 15)

Tuesday, June 21, 2022

भगवद गीता - परिचय

भगवद गीता का शाब्दिक अर्थ है भगवान का गीत।
यह लगभग पाँच से सात हज़ार साल पहले की रचना है।
यह मूल रुप से संस्कृत में लिखा गया एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ है जो महाभारत के भीष्म पर्व के अध्याय
23-40 का एक हिस्सा है।
इसमें
18 अध्याय और कुल 700 श्लोक हैं।

भगवद गीता को एक धार्मिक ग्रंथ होने के साथ-साथ क्रियात्मक जीवन की कुंजी भी माना जाता है -
एक ऐसी मनोवैज्ञानिक पुस्तक - जो जीवन जीने का एक अनूठा ढंग दिखाती है 
जिस से हर व्यक्ति तनाव-रहित हो कर एक खुशहाल और शांतिपूर्ण जीवन का आनंद ले सके।

पहली नज़र में, ऐसा लगता है कि यह एक पारिवारिक झगड़े की गाथा है - 
चचेरे भाइयों और उनके सहयोगियों के बीच उनके राज्य के क्षेत्रीय विवाद को लेकर युद्ध की कहानी है। 
कुछ लोग इसे इस रुप में देखते हैं कि भगवान कृष्ण अर्जुन को अपने और अपने धर्मयुक्त भाईयों के उचित अधिकारों के लिए दुष्ट, अन्यायी, लालची और सत्ता के भूखे कौरवों के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा दे रहे हैं।

लेकिन अगर अन्य भारतीय शास्त्रों की तरह हम विवाद - संघर्ष और युद्ध की इस कहानी को भी एक रुपक - एक अलंकार के रुप में देखें तो इसका अर्थ बदल जाएगा ।
यदि गहरे आध्यात्मिक स्तर पर देखा जाए तो यह मन और बुद्धि के बीच असहमति और टकराव - धर्म और कर्म के क्षेत्रों में असमानता और अलगाव -
विचार और कर्म के बीच की दरार - विवाद और संघर्ष की गाथा है।  

                              भगवद गीता के मुख्य पात्र
1. धृतराष्ट्र - नयनहीन अंधे राजा - जो महाभारत के युद्ध का मुख्य कारण थे।
2. संजय -  महाराज धृतराष्ट्र को युद्ध के मैदान में आँखों देखा हाल सुना रहे थे।
3. अर्जुन - शिष्य - जो उद्विग्न और भ्रांत है - कर्तव्यविमूढ़ - दुविधा में उलझा हुआ व्याकुल,और परेशान  है।  
      जिसे ज्ञान और दिशा-निर्देश की आवश्यकता है।
4. कृष्ण -  गुरु, मार्गदर्शक और प्रेरक - 
    कहीं दूर से उपदेश देने वाले नहीं - बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर साथ रह कर मार्ग दर्शन करने वाले प्रबुद्ध गुरु।

प्रारंभिक परिचय के बाद, पूरी गीता में शिष्य अर्जुन और गुरु कृष्ण के बीच का संवाद है।
इसलिए, ये कहा जा सकता है कि भगवद गीता में केवल दो मुख्य पात्र हैं:
अर्जुन  - जिज्ञासु - लेकिन भ्रमित उद्विग्न और कर्तव्यविमूढ़ शिष्य।
और भगवान कृष्ण - प्रबुद्ध गुरु - जो अंत तक अपने शिष्य के साथ रहे और व्यक्तिगत रुप से हर कदम पर उस का मार्गदर्शन करते रहे।

ऐसा लगता है कि महाभारत के युद्ध का मुख्य कारण धृतराष्ट्र ही थे ।
हालाँकि वो पूरी भगवद गीता में केवल एक बार ही बोले - सिर्फ पहले श्लोक में।
लेकिन कौन कितना बोलता है - इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता।
केवल कुछ ही शब्द बोलने से - या कुछ भी न बोलने से भी कई बार बहुत भारी नुकसान हो सकता है।
गलत को ग़लत न कहने से - अन्याय होता देख कर भी मूक दर्शक बने रहने से अन्याय करने वालों का हौसला और बढ़ जाता है 
और वो पहले से भी अधिक अन्याय करने लगते हैं ।

धृतराष्ट्र जानते थे कि उनके परिवार में क्या हो रहा है - लेकिन फिर भी उन्होंने आंखें मूंदे रखीं।
उन का मन अपने पुत्रों के प्रति अत्यधिक एवं अनावश्यक लगाव के कारण अंधा हो गया था ।
वह अपनी सारी सम्पति - अपना राज्य और समृद्धि  केवल अपने पुत्रों के लिए - केवल अपने वंश में ही रखना चाहता था।
वह अपने भाई के परिवार और पुत्रों की आवश्यकताओं से बेखबर - विरक्त और अंधा हो गया और पांडव पुत्रों को उनका योग्य हिस्सा देने से इंकार कर दिया।
धृतराष्ट्र राजा थे - वह चाहते तो कृष्ण के सुझाव पर केवल पांच गाँव पांडवों को देने का आदेश दे कर इस भयानक युद्ध को रोक सकते थे।  
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। और न ही अपने पुत्रों को दुराचार करने से रोका। 
एक मूकदर्शक बन कर अपने पुत्रों के निर्मम क्रूर और अनुचित आचरण - उनके हर अन्यायपूर्ण व्यवहार को अनदेखा करते रहे। 
हालांकि वह राजा थे और राजा होने के नाते राज्य की सब शक्तियां उनके हाथ में थीं 
लेकिन फिर भी वह अपने पुत्रों के हाथ की कठपुतली बने रहे - उनके सामने असहाय और निर्बल  बने रहे। 
इस तरह पांडव पुत्रों को कुछ भी न देने का फैसला कर के धृतराष्ट्र ने उस  विवाद को और भड़का दिया और महाभारत के बीज बो दिए।  

इस महाकाव्य से जो सबसे बड़ा सबक सीखा जा सकता है, वह यह है कि परिवार के सदस्यों के बीच मनमुटाव और विवाद - रिश्तों में आई हुई दरार अक़्सर गृहयुद्ध का कारण बन जाते हैं और समाज में फैला असंतोष महाभारत का रुप ले लेता है। 

यदि माता-पिता अपनी एक मनभावन प्रिय संतान को ही सारी सम्पत्ति देना चाहें - और बाकी बच्चों से अन्याय और बेइन्साफी करें तो परिवार में कलह और झगड़े को रोका नहीं जा सकता - परिवार के अन्य सदस्य असंतुष्ट हो कर विद्रोही बन जाते हैं।
और जब समाज के बड़े-बुजुर्ग लालची हो जाते हैं - अपनी संतान के प्रति अत्यधिक आसक्त हो जाते हैं  - 
जब नेता - शासक और अधिकारी गण सारा धन - सारी शक्ति एवं समृद्धि अपने ही परिवार में - अपने वंश में ही रखना चाहते हैं - तो  जाने अनजाने में अनिवार्य रुप से एक महाभारत की प्रक्रिया शुरु कर देते हैं। 
जब वे सभी योग्य उत्तराधिकारीयों की उपेक्षा करके अपना पद - अपनी शक्ति धन और सम्पत्ति इत्यादि सब कुछ अपनी संतान को हस्तांतरित कर देते हैं तो वे स्वयं भी समाज में अपना स्थान और विश्वसनीयता खो देते हैं।
अंततः अत्यधिक लोभ और पारिवारिक झगड़ों के कारण, महाराज धृतराष्ट्र के जैसे महान साम्राज्य भी धराशायी हो गए - मिट्टी में मिल गए ।
                                                     ' राजन सचदेव '

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