आमतौर पर, जब हम प्रसन्न एवं परिस्थितियों से संतुष्ट होते हैं, तो हमें ईश्वर की याद नहीं आती।
लेकिन जब हम किसी कारण से दुखी या पीड़ित होते हैं - अगर हमें किसी चीज़ की ज़रुरत होती है, तो हमें झट से प्रभु की याद आ जाती है और हम सर झुका कर प्रार्थना करने लगते हैं।
बेशक़ हम खुशी के समय - उत्सवों और समारोहों के दौरान भी कुछ न कुछ प्रार्थना एवं प्रभु का धन्यवाद करते हैं - लेकिन तब हमारे मन के भावों में उतनी तीव्रता नहीं होती। खुशी के समय में की गई प्रार्थना में उतनी गहराई और तीव्रता नहीं होती जितनी तीव्रता संकट में की जाने वाली प्रार्थना में होती है।
जब संकट में होते हैं, तो हम हताश होकर किसी मदद की तलाश करने लगते हैं - और जब कहीं से भी काम न बने तो हम भगवान की ओर मुख करते हैं। संकट और असहायता का वह क्षण - और उस क्षण में की गई मार्मिक प्रार्थना की तीव्रता हमें सर्वशक्तिमान प्रभु के निकट ले जाती है।
जब एक बच्चा ऊर्जा से भरा होता है, प्रसन्नचित होता है तो वह मां के पास या उसकी गोद में बैठा नहीं रहता है।
वह चारों ओर दौड़ना और खेलना चाहता है।
जब उसे भूख नहीं होती - जब वह ऊर्जा से भरपूर होता है तो वह मां की गोद से उठ कर दूर चला जाता है।
लेकिन जब हम किसी कारण से दुखी या पीड़ित होते हैं - अगर हमें किसी चीज़ की ज़रुरत होती है, तो हमें झट से प्रभु की याद आ जाती है और हम सर झुका कर प्रार्थना करने लगते हैं।
बेशक़ हम खुशी के समय - उत्सवों और समारोहों के दौरान भी कुछ न कुछ प्रार्थना एवं प्रभु का धन्यवाद करते हैं - लेकिन तब हमारे मन के भावों में उतनी तीव्रता नहीं होती। खुशी के समय में की गई प्रार्थना में उतनी गहराई और तीव्रता नहीं होती जितनी तीव्रता संकट में की जाने वाली प्रार्थना में होती है।
जब संकट में होते हैं, तो हम हताश होकर किसी मदद की तलाश करने लगते हैं - और जब कहीं से भी काम न बने तो हम भगवान की ओर मुख करते हैं। संकट और असहायता का वह क्षण - और उस क्षण में की गई मार्मिक प्रार्थना की तीव्रता हमें सर्वशक्तिमान प्रभु के निकट ले जाती है।
जब एक बच्चा ऊर्जा से भरा होता है, प्रसन्नचित होता है तो वह मां के पास या उसकी गोद में बैठा नहीं रहता है।
वह चारों ओर दौड़ना और खेलना चाहता है।
जब उसे भूख नहीं होती - जब वह ऊर्जा से भरपूर होता है तो वह मां की गोद से उठ कर दूर चला जाता है।
लेकिन जब उसे भूख लगती है - या कहीं चोट लगती है तो वह मां की ओर भागता है।
हालाँकि बच्चे को माँ की ज़रुरत तो हमेशा ही होती है - लेकिन उसके प्रेम की तीव्रता अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग होती है।
जब उसे भूख लगी हो - या चोट लगी हो तो वह माँ की गोद में बैठना चाहता है - अन्यथा नहीं।
अक़्सर हमारी स्थिति भी ईश्वर के मामले में ऐसी ही होती है।
जब ईश्वर की बात आती है तो हम लोग भी प्राय ऐसा ही करते हैं।
पार्टियों और उत्सवों के दौरान नृत्य और मनोरंजन में डूब कर बाकी सब कुछ भूल जाना स्वाभाविक ही है।
कभी-कभी हम ऐसे खुशी के अवसरों पर सर्वशक्तिमान प्रभु को धन्यवाद तो देते हैं - लेकिन उस प्रार्थना और कृतज्ञता के समय हमारे मन की भावना कुछ अलग होती है। उसमें तीव्रता कम और औपचारिकता अधिक होती है। जल्दी से दो चार मिनट औपचारिक रुप से प्रार्थना करने के बाद हम नाच-रंग की मस्ती में डूब जाते हैं।
हालाँकि बच्चे को माँ की ज़रुरत तो हमेशा ही होती है - लेकिन उसके प्रेम की तीव्रता अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग होती है।
जब उसे भूख लगी हो - या चोट लगी हो तो वह माँ की गोद में बैठना चाहता है - अन्यथा नहीं।
अक़्सर हमारी स्थिति भी ईश्वर के मामले में ऐसी ही होती है।
जब ईश्वर की बात आती है तो हम लोग भी प्राय ऐसा ही करते हैं।
पार्टियों और उत्सवों के दौरान नृत्य और मनोरंजन में डूब कर बाकी सब कुछ भूल जाना स्वाभाविक ही है।
कभी-कभी हम ऐसे खुशी के अवसरों पर सर्वशक्तिमान प्रभु को धन्यवाद तो देते हैं - लेकिन उस प्रार्थना और कृतज्ञता के समय हमारे मन की भावना कुछ अलग होती है। उसमें तीव्रता कम और औपचारिकता अधिक होती है। जल्दी से दो चार मिनट औपचारिक रुप से प्रार्थना करने के बाद हम नाच-रंग की मस्ती में डूब जाते हैं।
ज़रा सोचिए - एक आदमी - जो ग़लती से किसी लापरवाह ड्राइवर के साथ उसकी कार या टैक्सी में बैठ गया हो - वो किस तरह पूरे रास्ते एक्सीडेंट से, मौत से डरता हुआ - हर पल भगवान से सुरक्षित यात्रा के लिए मन ही मन गिड़गिड़ाते हुए प्रार्थना करता है कि वह किसी तरह अपने गंतव्य स्थान पर सही सलामत पहुँच जाए।
और दूसरी तरफ वो इंसान - जो बनाम दिनचर्या (Routine) या अनुष्ठान (Ritual) के रुप में किसी मंदिर, गुरद्वारे, चर्च या एक वातानुकूलित सत्संग हॉल में बैठा भगवान से प्रार्थना करता है - दोनों की भावना में - उनकी प्रार्थना में कितना अंतर होगा।
क्या यह अच्छा नहीं होगा यदि हम सर्वशक्तिमान प्रभु को हर समय याद कर सकें और खुशी के क्षणों के दौरान भी उतनी तीव्रता - उसी श्रद्धा के साथ प्रार्थना कर सकें?
कहने और सुनने में तो यह बहुत अच्छा और सही लगता है, लेकिन यह इतना आसान नहीं है।
फिर भी हमें चाहिए कि कुछ समय एकांत में बैठ कर निरंकार प्रभु का ध्यान करें - सुमिरन करें ताकि एकाग्र भाव से प्रभु चरणों में समर्पित हो सकें ।
' राजन सचदेव ’
Very nice explanation of quote from Bani. Thanks Jì 🙏
ReplyDeleteVery nice
ReplyDelete🙏Bahoot hee khoobsurat advice ji. 🙏
ReplyDeleteThanks uncle ji
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