Sunday, January 15, 2023

आदत से मजबूर हूँ मैं

एक बार हम शिकागो में सत्संग करने के बाद रात को वापिस मिशिगन जा रहे थे। 
रास्ते में गाड़ी चलाते समय मैंने खिड़की से बाहर देखा तो एक बहुत ही मनोरम - बहुत ही शानदार दृश्य दिखाई दिया। 
पूर्णिमा का चाँद पूरे जोबन से चमकते हुए तेज गति से आकाश में दौड़ रहा था। 
ऐसा लग रहा था जैसे वो हमारी कार के साथ-साथ दौड़ रहा हो - कार के साथ रेस लगा रहा हो। 
बच्चों को भी ये दृश्य दिखाना चाहा तो देखा कि सब पिछली सीट पर आराम से सो रहे थे।  
अचानक मेरा मन भी चाँद के साथ साथ दौड़ने लगा। 
सोचा - चाँद से पूछूँ कि "तुम कहाँ जा रहे हो? तुम्हारी मंजिल क्या है? क्या है जिसे पाने की तुम कोशिश कर रहे हो?
यही सब सोचते-सोचते जो भाव मन में उठे उनका प्रस्तुतिकरण है ये कविता --

                      आदत से मजबूर हूँ  मैं

चाँद से मैंने पूछा क्यों तू  रात रात भर चलता है
किसको मिलने की खातिर तू सारी रात भटकता है  
सदियों चलने पर भी तूने मंज़िल अभी न पाई है
इस छोर से उस छोर तक - क्यों ये  दौड़ लगाई है
वो बोला चाह नहीं मंज़िल की, इसीलिए पुरनूर हूँ मैं   
चलना मेरी आदत है  - और आदत से मजबूर हूँ  मैं

मैना से पूछा मैंने  - क्यों मीठे राग तू गाती है
मधुर मधुर गीतों से अपने सब का दिल बहलाती है
मीठी वाणी सुनके करते लोग तुझे पिंजरे में बंद
छोडो मीठी वाणी, रहो आज़ाद  - उड़ो स्वछंद
वो बोली अपने गीतों में ही बस रहती मसरुर हूँ मैं 
गाना मेरी आदत है  - और आदत से मजबूर हूँ मैं 

पूछा मैंने झरने से क्यों कल कल, कल कल बहता है
निर्मल शीतल जल अपना धरती  को अर्पण करता है
पतली सी ये जल की धारा कहाँ तलक जा पाएगी
सागर तक पहुंचेगी या फिर मिट्टी में मिल जाएगी  
वो बोला ,बहते जल की मीठी कल कल में मख़मूर हूँ मैं
बहना मेरी आदत है  -  और आदत से मजबूर हूँ मैं 

पूछा मैंने शम्मा से  - क्यों  रात  रात भर जलती है
रौशन औरों को करने की ख़ातिर ख़ुद भी जलती है
काम निकल जाने पे सब उपकार भुला देते हैं लोग
सूरज जब निकले तो देखो  शमा  बुझा देते हैं लोग
वो बोली  - यूं तो रौशनी की ख़ातिर ही मशहूर हूँ मैं
(पर) जलना मेरी आदत है  - और आदत से मजबूर हूँ मैं

डूब रहे इक बिच्छू को मैंने हाथों में लिया उठा 
पर उस बिच्छू ने फौरन ही मेरे हाथ पे काट लिया
पूछा मैने  बिच्छू  से - कि ये कैसा अन्याय है
उसी हाथ को काटे है जो तेरी जान बचाये है
वो बोला ज़हर मिला क़ुदरत से इसीलिए मग़रुर हूँ मैं
डसना मेरी आदत है  -  और आदत से मजबूर हूँ  मैं 

पेड़ से मैंने पूछा - इतने ज़ुल्म तू क्योंकर सहता है 
गर्मी सर्दी सह कर अपना सब कुछ देता रहता है 
लोग तेरी छाया  में  बैठें  -  फल भी तेरे खाते हैं 
सूख जाए तो काट तुझे वो घर अपना बनवाते हैं 
वो बोला सदियों से निभाता आया ये दस्तूर हूँ मैं 
सहना मेरी आदत है और आदत से मजबूर हूँ मैं 

इकदिन गुरु से पूछा क्यों तुम सोए लोग जगाते हो 
क्यों  तुम भूले भटके लोगों को  रस्ता दिखलाते हो 
लोगों ने तो कभी किसी रहबर की बात ना मानी है 
गुरुओं  पीरों से  दुनिया ने  दुश्मनी  ही  ठानी  है 
वो बोले दुनिया क्या करती है, इन बातों से दूर हूँ मैं 
जगाना मेरी आदत है - और आदत से मजबूर हूँ मैं 

पूछे हैं कुछ लोग मुझे  क्यों रोज़ रोज़ तुम लिखते हो 
करते हो 
जो लिखते हो  -या बस लिखते और कहते हो 
"आजीवन विद्यार्थी हूँ मैं,  ज्ञान-अर्जन है काम मेरा
पेशा है अध्यापन,और  ' प्रोफेसर राजन ' नाम मेरा
प्रचारक हूँ, उपदेशक हूँ पर कर्म से कोसों दूर हूँ मैं
कहना मेरी आदत है -  और आदत से मजबूर हूँ मैं "
                            'राजन सचदेव '
                           (नवंबर 6, 2014)

29 comments:

  1. Uncle ji aap ji ke pass to विचारों ka khazana hai. Bahut ऊँची उड़ान हैं ji

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  2. Amazing 👌 पर आप के करम में भी है 🙏

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  3. Bahut khub ji
    Bishan

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  4. बहुत खूबसूरत

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  5. Beautiful composition. Pearl of wisdom 🙏🙏

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  6. Bahut Bahut hee sunder rachana ji.🙏

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  7. Kya Khub likha hai Uncle Ji ❤️❤️❤️

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  8. Kya Khub likha hai Uncle Ji ❤️❤️❤️

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  9. Bahut Sundar ji.
    🙏
    Sanjeev Khullar

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  10. बहुत खूब वाह वाह कमाल की कविता है 🙏🙏💕💕🌷🌷

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  11. अतिसुन्दर कविता 👍

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  12. Wah ji wah 👍👌🏻🎊

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  13. Soooo beautiful. 🙏🙏

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  14. Beautiful poem. Hearty congratulations for this thoughtful composition. Very well written.

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  15. Beautiful 👌🙏

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  16. So beautiful 😊👍🙏

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  17. So sweet hai poem
    Jas

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  18. Soooo beautiful ji bhut khoob ji💐🙏
    Ashok

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  19. V v nice matma ji
    deepak

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  20. Great u r an ocean of knowledgeji

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  21. राजन जी - ये कविता आपके लिए लिखी है ----
    --------
    लिखना आपकी आदत है - पढ़ना हमारी फितरत है
    आप लिखते रहो सब पढ़ते रहें ये सब इसकी रहमत है
    जितनी भी किताबें पढ़ीं आपने उन को ही दोहराते हो
    वरना जितना ज्ञान है आप में उससे ज़्यादा ही लिख पाते हो
    पढ़ते रहो, लिखते रहो इस में ही गुरु की रहमत है
    गर छोड़ दिया पढ़ना लिखना - प्रचार भी फिर तो मंद है
    फिर किस किस को घर घर जा कर बार बार समझाओगे
    दुनिया बदल चुकी है - अब तो लिख कर ही बतलाओगे
    इतना पढ़ कर लिखने में न जरा भी इतराते हो
    इसी लिए सबको भाते हो और राजन कहलाते हो
    सुल्तान और राजन नाम अलग हैं पर मतलब तो एक है
    सतगुरु को वो ही भाता है जो इंसान है और नेक है
    By - सुल्तान सिंह - USA

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    1. Dear Sultan ji -
      I am grateful for your sentiments and blessings in this poetry form.
      कविता रुप में इस सम्मान के लिए - ज़र्रानवाज़ी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद - शुक्रिया
      आगे भी कृपाद्रिष्टि बनाए रखना - दुआओं में याद रखना
      साभार - राजन सचदेव 🙏🙏

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  22. Rajan Ji and Sultan Singh Ji, मैं ना तो कवि हूं और ना ही लिखारी | पर शुक्र है पातशाह और आप जैसी महान आत्माओं का जो अपनी विदवता और लेखनी से दास जैसों को गुरमत पे चलने के लिए guidance देत्ते रहते हो | पातशाह और भी ज़्यादा हिम्मत और शक्ति बख्शे ताकि आप यह परोपकार करते रहो |

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