उन सभी गुरुओं को समर्पित
जिन्होंने मुझे वह बनाया जो मैं आज हूँ
** गुरु पूर्णिमा का महत्व**
गुरु पूर्णिमा भारत और नेपाल की एक आध्यात्मिक परंपरा है, जो आत्मिक, शैक्षणिक और व्यावसायिक गुरुओं को समर्पित होती है—ऐसे ज्ञानी और प्रबुद्ध व्यक्तित्व को - जो निस्वार्थ भाव से, बिना किसी आर्थिक अपेक्षा के अपना ज्ञान दूसरों से साझा करते हैं।
ऐसा माना जाता है कि बिना गुरु के मनुष्य अंधा होता है।
एक बच्चे के जीवन में प्रथम गुरु उसके माता-पिता होते हैं।
फिर गुरु उसके लिए दूसरे माता या पिता के समान बन जाते हैं।
शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य का जन्म दो बार होता है—जिसे ‘द्विजा’ कहा गया है।
पहली बार माता-पिता के संयोग से, और दूसरी बार एक सच्चे और योग्य गुरु के मिलाप से।
गुरु, एक आध्यात्मिक पिता के रुप में माता गायत्री अर्थात वेदों शास्त्रों एवं ग्रंथों की सहायता से उसे शिक्षा प्रदान करता है।
दूसरे शब्दों में, गुरु को पिता माना जाता है और शास्त्रों एवं ग्रंथों को माता।
एक सच्चा गुरु वही होता है जो प्रमाणिक शास्त्रों के अनुसार शिक्षा देता है।
गुरु पूर्णिमा का पर्व आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है—जो हिन्दू पंचांग के अनुसार जुलाई या अगस्त में पड़ती है।
पूर्णिमा का चंद्र पूर्णता का प्रतीक है
गुरु पूर्णिमा - गुरु के प्रति पूर्णता के विश्वास का प्रतीक है।
ऐसा माना जाता है कि गुरु पूर्ण होना चाहिए —पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह।
क्योंकि जो स्वयं पूर्ण होगा वही अपने शिष्यों को भी पूर्ण बनाने में सक्षम हो सकेगा।
गुरु पूर्णिमा गुरु के प्रति श्रद्धा विश्वास और आभार प्रकट करने का आभास है।
और यह अत्यंत महत्वपूर्ण भी है। क्योंकि किसी से कुछ सीखने के लिए सिखाने वाले गुरु के ज्ञान और योग्यता पर विश्वास होना आवश्यक है।
हम उस व्यक्ति से कुछ नहीं सीख सकते, जिसके ज्ञान और योग्यता पर हमारे मन में कोई संदेह हो।
इसलिए, हमें ऐसा गुरु ढूंढना चाहिए, जिसे उस विद्या या विषय का पूर्ण ज्ञान और गहरी समझ हो।
जब हमें उनके ज्ञान और योग्यता पर विश्वास पूर्ण होगा तभी हम उनके मार्गदर्शन में आगे बढ़ सकेंगे।
*क्या बिना शिष्य के कोई गुरु संपूर्ण गुरु हो सकता है?
एक शिक्षक ने अपने छात्र से पूछा:
"जॉनी बेटा - तुम्हारी उम्र कितनी है?"
जॉनी ने जवाब दिया "छह साल"
"और तुम्हारे पापा की उम्र?"
जॉनी ने कहा - "वो भी छह साल के हैं"
शिक्षक : "ये कैसे हो सकता है?"
जॉनी बोला: "क्योंकि वो उसी दिन पापा बने थे जब मैं पैदा हुआ था !"
जैसे संतान के बिना कोई व्यक्ति पिता नहीं हो सकता उसी प्रकार शिष्य के बिना कोई गुरु भी नहीं बन सकता।
कोई व्यक्ति तब तक गुरु नहीं होता जब तक उसका कोई शिष्य न हो।
और जब शिष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है - पूर्ण हो जाता है - तभी गुरु भी पूर्ण गुरु कहलाता है।
** गुरु कोई पदवी या नौकरी नहीं है।**
गुरु एक शिक्षक, टीचर या प्रोफेसर की तरह कोई पेशा या डिग्री नहीं है ।
गुरु एक पवित्र रिश्ता है—एक श्रद्धाभाव है - उस व्यक्ति के प्रति जो केवल ज्ञान ही नहीं देता, बल्कि शिष्य का कदम कदम पर मार्गदर्शन करता है—उसे आत्मिक विकास और पूर्णता की ओर ले जाता है।
इसलिए, गुरु के प्रति आभार केवल उसकी प्रशंसा करने - स्तुतिगान करने अथवा धन्यवाद या उपहार देने तक सीमित नहीं होना चाहिए।
सच्चा आभार तो स्वयं के उत्थान के लिए निरंतर प्रयास में होता है।
शास्त्र तो यहां तक कहते हैं कि :
सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै
अर्थात: ईश्वर हम शिष्य और गुरु दोनों की रक्षा करें, हम साथ-साथ आगे बढ़ें
दोनों ही तेजस्वी हों -(हमारा ज्ञान तेजस्वी हो) और हम कभी एक दुसरे से द्वेष एवं ईर्ष्या न करें।
अर्थात दोनों ओर से ही उत्तरदायित्व के साथ निरंतर प्रयास में होता रहे।
जहाँ गुरु हर शिष्य को व्यक्तिगत रुप से आगे बढ़ाने का प्रयास करता है
और शिष्य पूरी निष्ठा से ज्ञान को समझने, आत्मसात करने और जीवन में उतारने का प्रयास करता है।
जैसे माता-पिता अपने बच्चों की सफलता से गर्व और आनंद महसूस करते हैं,
वैसे ही गुरु भी अपने शिष्य की उन्नति और आत्मिक प्रगति से संतोष और प्रसन्नता अनुभव करता है।
गुरु वही है जो हमें उस समय भी सम्भावनाओं से भरपूर देखे, जब हम खुद को नहीं देख पाते।
सतगुरु कबीर जी महाराज ने इस बात को बहुत सुंदर शब्दों में कहा है :
गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है - गढ़ गढ़ काढ़े खोट
अंतर हाथ सहार दे — बाहर मारे चोट
अर्थात गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी का घड़ा।
गुरु बाहर से चोट करता है - सुधारता है
लेकिन अंदर से हाथ देकर उसे टूटने से बचाता है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा:
"गुरु वह है, जिसने स्वयं मुक्ति का मार्ग तय किया हो, और दूसरों को उसी मार्ग पर ले जा रहा हो।"
गुरु का उद्देश्य केवल सांसारिक ज्ञान या करियर की उन्नति कराना नहीं है,
बल्कि हमारे मन को ऊपर उठाना और हमारे भीतर के निहित सामर्थ्य को जाग्रत करना है।
जैसा दलाई लामा ने कहा: विद्या का अर्थ केवल धन कमाने की विद्या नहीं है --
युवाओं के अंतर्मन और हृदय के उत्थान की शिक्षा धन कमाने की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण है।"
और अल्बर्ट आइंस्टीन के शब्दों में:
"सच्चे गुरु द्वारा दी गई शिक्षा से रचनात्मकता तथा और सीखने का भाव जागृत होता है।"
गुरु केवल शिक्षक नहीं, बल्कि एक प्रकाश स्तंभ है।
गुरु द्वारा दिया गया सच्चा ज्ञान कभी छीना नहीं जा सकता।
जो गुरु अपने शिष्य की प्रगति से ईर्ष्या करे, या उसे पूर्णता तक नहीं पहुँचना देना चाहे, वह पूर्ण गुरु नहीं हो सकता।
जैसे माता-पिता अपने बच्चे की सफलता में अपनी तपस्या की सार्थकता पाते हैं, वैसे ही गुरु भी अपने शिष्य की आत्मिक ऊँचाई में संतोष और आनंद की अनुभूति करता है।
गुरु के प्रति सच्चा और निष्कलंक आभार केवल शब्दों में नहीं, बल्कि अपने आत्मविकास और आत्मसिद्धि में है।
जिससे गुरु यह महसूस करे कि उसका कार्य पूर्ण हुआ - उसका मार्गदर्शन सार्थक रहा।
ईश्वर हम सब को उस पूर्णिमा की अवस्था तक पहुँचने की शक्ति एवं सामर्थ्य दे — जिसे ‘आंतरिक पूर्णता’ कहा जाता है।
~ राजन सचदेव ~