Saturday, October 31, 2020

कठोपनिषद भाग 3 - पहले भाग से सीखने योग्य कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातें 

 पहले भाग का सारांश: 

नचिकेता ने अपने पिता को चेतावनी दी:

                                 'अनन्दा नाम ते लोकास्तान्स गच्छति ता ददत '
"आनन्दहीन जगत  को वह प्राप्त करता है जो इस तरह की दक्षिणा देता है ।"
                                     ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

ऐसा नहीं है कि नचिकेता को अपने पिता से प्रेम नहीं था।
किसी भी अन्य नौ वर्षीय युवा पुत्र की तरह - नचिकेता के लिए पिता उस के गुरु एवं उस के नायक (hero) भी थे। और जैसा कि हम देख सकते हैं, वह बहुत बुद्धिमान बालक प्रतीत होता है। 
उसने अपने पिता को चेतावनी दी - उनका अपमान करने के लिए नहीं - बल्कि उनके कल्याण के लिए - पिता के लिए प्रेम और सम्मान के कारण।
लेकिन पिता अपने युवा पुत्र की ऐसी बात सह नहीं पाए। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा।

अधिकांश माता-पिता और बुजुर्ग लोग इसी तरह से प्रतिक्रिया करते हैं।
प्रत्येक पीढ़ी के लोग ये समझते हैं कि वे नई पीढ़ी के लोगों से ज़्यादा जानते हैं।  इसलिए नई युवा पीढ़ी को उन्हें यह नहीं बताना चाहिए कि क्या करना है और क्या नहीं करना चाहिए। 
उनका मानना है कि बच्चों और नौजवानों को बिना किसी हील-हुज्जत के - बिना कोई सवाल किए बड़ों की बात को मानना और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।

हम यह भूल जाते हैं कि हर नई पीढ़ी को अनायास ही - बिना किसी विशेष प्रयास के एक बहुत बड़ा लाभ स्वयंमेव ही मिल जाता है। 
जो ज्ञान पहले से सीखा, खोजा या आविष्कार किया जा चुका है - वह उनके लिए पहले से ही उपलब्ध है और वे उससे आगे बढ़ कर अगले चरण सीख सकते हैं। 
अपने ज्ञान को उस बिंदु से आगे बढ़ा सकते हैं। 
पहले किए जा चुके अविष्कारों के आधार पर और नए आविष्कार कर सकते हैं। 
यही कारण है कि नई पीढ़ियां हमेशा पिछली पीढ़ियों से कुछ क़दम आगे रही हैं।
जो इस मूल प्राकृतिक तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकते, उनका हमेशा नई युवा पीढ़ी के साथ टकराव रहता है।

नचिकेता के पिता ने भी यही सोचा था कि उनका पुत्र बहुत छोटा है और उन्हें कोई मूल्यवान सलाह देने के क़ाबिल नहीं है।
वह अपने मित्रों और सहकर्मियों से तो सलाह मशवरा कर रहे थे लेकिन पुत्र की बात उन्हें अपमानजनक लगी। 
उनके अहंकार को चोट लगी और वह क्रोधित हो कर चिल्लाए:
                                              "मृत्यवे त्वां ददामीति"
 तुम्हें मैं मृत्यु को दान कर दूंगा 

इन कहानियों को पढ़ने और सुनने का उद्देश्य है उनसे कुछ सीखना। 
अगर कभी कोई ऐसी ही परिस्थिति हमारे सामने हो जब हमारे बच्चे या नौजवान अथवा अधीनस्थ सहयोगी या कर्मचारी कोई बात कहें या सलाह दें तो इसे अपना अपमान न समझें। 
क्रोध न करें - उन्हें शांति से सुनें। इसे अपने मान या गर्व का मुद्दा न बनाएं। 
उनके साथ खुले हृदय से बात करें - 
उनके विचारों पर गंभीरता से विचार करें और अगर वे सही हैं, तो इसे विनम्रता और ख़ुशी से स्वीकार कर लें।
                                                       ' राजन सचदेव ’
जारी रहेगा ........

3 comments:

Easy to Criticize —Hard to Tolerate

It seems some people are constantly looking for faults in others—especially in a person or a specific group of people—and take immense pleas...