दयालुता एवं उदारता कोई कृत्य नहीं हैं ।
यह हमारे मन के - हमारे विचारों के प्रतिबिंब हैं।
जो दिल के साफ और पवित्र हैं -
जिनके मन में हमेशा अच्छे और सकारात्मक विचार उठते हैं
वे स्वाभाविक रुप से ही दयालु और उदार होते हैं।
दया और उदारता उन के स्वभाव का एक अंग होता है।
उन्हें दयालु होने का दिखावा नहीं करना पड़ता -
उन्हें अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कोई अभिनय नहीं करना पड़ता।
उनकी दयालुता और उदारता दिखावा नहीं बल्कि उन का स्वभाव -
उनके विचारों का ही प्रतिबिम्ब होता है।
इसीलिए तो वेद कहते हैं:
अपने विचारों पर ध्यान दें, क्योंकि धीरे धीरे वे आपके कर्म बन जाते हैं।
निरंतर कर्म आपकी आदत बन जाते हैं - और आदतें आपके व्यक्तित्व को परिभाषित करती हैं।
अंततः आप वही बन जाते हैं जो आपके विचार होते हैं।
इसलिए - अगर हम अपने स्वभाव को बदलना चाहते हैं तो निरंतर अपने विचारों को बदलने की कोशिश करें।
अपने विचारों को बदलकर हम सहज में ही अपने स्वभाव को बदल सकते हैं।
" राजन सचदेव "
धन निरंकार जी, बख्श लेना दास अक्ल बुद्धी मे आपके चरणरज बराबर भी नहीं है, पर दास का यह मानना है कि हमारी सोच, अक्ल, बुद्धि, सौभाग्य, दुर्भाग्य,सबकुछ तो इस के कब्जे मे है यदि व्यक्ती अपनी इच्छानुसार विचारों को साध पाता तो हर कोई बाल्मीकि ही बनना चाहता है
ReplyDeleteग्रन्थ कहते है जीवन-मृत्यु, लाभ-हानी, यश-अपयश, विधी हाथा.
धन निरंकार जी और आपके विचारों के लिए धन्यवाद।
Deleteकृपया इस पर भी विचार करें : --
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा । (रामायण)
अर्थात सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है ! कोई दूसरा सुख-दुःख देता है‒यह कुबुद्धि है, कुत्सित बुद्धि है ।
और यही बात तुलसीकृत रामायण में भी आयी है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
(राम चरित मानस)
अगर ये कहें कि परमात्मा ने दुःख दिया ‒ ईश्वर ने हमें बुरी सोच - बुरे विचार या बुरे कर्म दिए - यह सिद्धान्त की दृष्टि से ही गलत है । एक तरफ तो हम ये कहते हैं कि परमात्मा एवं सत्गुरु परम दयालु हैं, परम हितैषी हैं, और सर्वसमर्थ हैं । तो फिर वह किसी को दुःख दे सकते हैं क्या ? किसी को बुरे विचार बुरी भावना दे सकते हैं?
फिर सब ग्रंथों शास्त्रों - संतों महात्माओं और गुरु पीरों को शुभ विचार और शुभ कर्म करने के लिए प्रेरणा देने की क्या आवश्यकता है? अगर हम अपने विचार और कर्म बदल ही नहीं सकते तो फिर हमें मन वचन और कर्म से किसी का भी बुरा न करने के लिए क्यों कहा जाता है? क्या केवल ईश्वर चाहेगा तो हमारे विचारऔर कर्म को बदल देगा अन्यथा नहीं?
हमें अपनी सोच और कर्म की जिम्मेवारी स्वयं लेनी होगी। धर्म ग्रंथ - गुरु पीर और संत महात्मा हमें प्रेरणा दे सकते हैं और हमारी सहयता कर सकते हैं लेकिन कर्म हमे ही करना है।
लेकिन हाँ - हमने किया -- ये कहने से मन में अभिमान आता है इसलिए कहा जाता है कि स्वयं को कर्ता न समझो। ईश्वर की कृपा समझो। अभिमान - अहम भाव से बचे रहो।
Wow !
Delete🙏🏻🙏🏻🙏🏻 100% true
ReplyDeleteNirankar अपने kirpadrishti bnaye rakhe ji. Hum hamesha अच्छी मत अच्छी सोच ke sath जीवन बसर करें ji🙏🏻
Beautiful.Thank you for your guidance and inspiration🙏
ReplyDelete