Friday, December 23, 2022

बोलें या चुप रहें?

कई बार जीवन में ये समस्या सामने आ जाती है कि हम बोलें या चुप रहें? 
बचपन से ही हम ये सुनते आ रहे हैं कि बोलने और चुप रहने का अपना अपना समय होता है। 

सूफी कवि शेख सा'दी का एक शेर है, जिस में वह भी यही कहते हैं कि समय के अनुसार दोनों का अपना अपना महत्व है।  

                      अगरचे पेश ख़िरदमन्द ख़ामोशी अदब अस्त 
                      बवक़्त मसलेहत अन बै कि दर सुख़न कोशी 
                      दू चीज़ तीरह अक़्ल अस्त - दम फ़रो बस्तन 
                      बवक़्त गुफ्तन - ऊ गुफ्तन बवक़्ते ख़ामोशी 
                                                                     (शेख़ सादी)

                      اگر چه پیش خردمند خاموشی ادب است 
                   به وقت مصلحت آن به که در سخن کوشی 
                      دو چیز طیره عقل است - دم فرو بستن 
                       به وقت گفتن و  گفتن به وقت خاموشی   

अर्थात:
हालांकि चुप रहना एक समझदार व्यक्ति का विशेष गुण माना जाता  है लेकिन सही समय पर सुझाव देना भी समझदार होने की निशानी है।
अक़्सर दो जगह पर लोग ग़लती कर जाते हैं -
 जब बोलना ज़रुरी हो, तब चुप रहते हैं और जहां चुप रहने की ज़रुरत हो वहां बोल जाते हैं। 

मनुष्यों की सबसे बड़ी क्षमताओं में से एक है - 
संवाद अर्थात वार्तालाप करने की क्षमता। 
शब्दों द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की क्षमता  - बोलकर अपने अनुभवों को दूसरों के साथ साँझा करना। 
प्रभावी बोलना एक कला है - एक प्रतिभा, एक कौशल, जिसके लिए सीखने और अभ्यास करने की आवश्यकता होती है।

चुप रहना भी एक महान कला है - इसके लिए भी बहुत धैर्य और अभ्यास की आवश्यकता होती है।

बुद्धिमत्ता यह जानने में है कि कब बोलना है और कब चुप रहना है। 
स्थिति का मूल्यांकन करने की क्षमता - अर्थात कब सलाह देने का समय है और कब चुप रहना अच्छा है।
जैसे बिना मतलब बोलते रहना और बिना मांगे सलाह देना उपयोगी नहीं होता, उसी तरह हमेशा मौन रहना भी सकारात्मक और उपयोगी नहीं हो सकता। 
परिस्थिति के अनुसार निर्णय लेना कि हमें कब चुप रहकर सुनना है, और कब बोलना है, ये हमारी बुद्धिमता पर निर्भर करता है। 

यदि हमारा मौन गलत जगह पर है, गलत समय पर है, तो ये हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों को नुकसान पहुंचा सकता है और यहां  तक कि परिवार, व्यापार और सामाजिक प्रतिष्ठानों (Organizations) को  गिरा भी सकता है। कई महान संगठन, Organizations और साम्राज्य सिर्फ इसलिए गिर गए क्योंकि बुद्धिमान लोग मौन रहे - सही समय पर नहीं बोले।
महाभारत में दो ऐसी घटनाओं का ज़िक्र है जिन से इस बात का स्पष्टीकरण हो सकता है। 

                                              १. 
युधिष्ठिर द्वारा आयोजित महायज्ञ के बाद, दुर्योधन कुछ दिन इंद्रप्रस्थ में पांडवों के नव निर्मित महल में रहे। यह नया महल मायासुर द्वारा कई अद्भुत कलाकृतियों के साथ बनाया गया था। दुर्योधन महल के सुंदर वास्तुकला को देखकर आश्चर्यचकित था और पांडवों की भव्यता एवं विलासिता से बहुत ईर्षित हो गया। मायासुर ने कई भ्रमपूर्ण मायावी प्रभाव भी बनाए थे, जैसे कि एक फर्श जो पानी से भरा प्रतीत होता था - वास्तव में कांच से बना था और एक गलियारे के अंत में एक दीवार थी जो देखने में एक दरवाजा लगता था। जब दुर्योधन ने उस दरवाजे से प्रवेश करने की कोशिश की, तो उसका सर दीवार पर लगा क्योंकि वह वास्तव में दरवाजा नहीं था। जब वह आगे गया तो उसने गलियारे में पानी देखा, इसलिए उसने अपनी धोती को घुटनों से ऊपर खींच लिया। लेकिन वह कांच का फर्श था जो पानी जैसा प्रतीत होता था। आगे जाने पर दुर्योधन पानी में गिर गया, क्योंकि वह सूखे फर्श की तरह दिखाई दिया। यह देखकर, भीम और अन्य पांडव हँसने लगे और उसका मजाक उड़ाने लगे। पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने जोर से हंसते हुए कहा - 'अंधे पिता का अंधा बेटा '।
दुर्योधन ने इस बात से स्वयं को घोर अपमानित महसूस किया और उसने द्रौपदी और पांडवों से बदला लेने का निष्चय किया। 
कई विद्वानों और इतिहासकारों का मानना है कि पांडवों के प्रति दुर्योधन की शत्रुता का मुख्य कारण ये कठोर अपमानजनक टिप्पणी ही थी। यदि द्रौपदी चुप रहती और ऐसी कठोर बात कह कर दुर्योधन का अपमान नहीं करती तो शायद इतिहास कुछ अलग होता। 

                                                  २. 
पांडव कौरवों के साथ शतरंज के खेल में द्रौपदी को हार गए। खेल से पहले निर्धारित नियमों के अनुसार विजेता को अधिकार था कि वह हारने वाले के साथ जैसा चाहे वैसा बर्ताव कर सकता था। दुर्योधन द्रौपदी से बदला लेना चाहता था। इसलिए, उसने खुली सभा में द्रौपदी को बुलाया और सब के सामने उसका वस्त्रहरण करने का आदेश दिया। 
जब सभा में द्रौपदी का अपमान और वस्त्रहरण किया जा रहा था, तब भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे कई विद्वान् और शास्त्र ज्ञाता वहां मौजूद थे। 
लेकिन उन्होंने कौरवों की ऐसी दुर्भावनापूर्ण और अनैतिक कार्रवाई के खिलाफ कुछ नहीं कहा। हालांकि भीष्म और सभा में मौजूद अन्य सभी मंत्री एवं विद्वान जानते थे कि जो हो रहा था वह ग़लत और अनैतिक था, फिर भी वे कौरवों के प्रति अपनी वफादारी का सबूत देने के लिए चुप रहे। 
उन्होंने सोचा कि उनके लिए स्वामी के प्रति वफ़ादारी और खेल के नियम - गलत होते हुए भी धर्म, नैतिकता और सिद्धांतों से ऊपर थे।
वह इस दुविधा में पड़ गए कि वह मालिक के प्रति वफादारी दिखाएं या सत्य और धर्म  के लिए आवाज़ उठाएं ? 
जाहिर है, उन्होंने सिद्धांतों और नैतिकता के बजाय - सत्य और धर्म का पक्ष लेने की जगह राजा - अर्थात अपने स्वामी के प्रति वफ़ादारी निभाने का निर्णय लिया - जो कि गलत था। और इतिहास ने उन्हें इसके लिए कभी माफ़ नहीं किया।

सही समय पर सही निर्णय लेना बहुत महत्वपूर्ण है। 
भाषण दें या मौन रहें - ये परिस्थिति पर निर्भर करता है। 
बोलें या चुप रहें ? इस का निर्णय सोच समझ कर बुद्धिमानी से लेना चाहिए !!
                                                 ' राजन सचदेव '

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