कल एक विदूषी मोहतरिमा ज़ेहरा निगाह द्वारा लिखा एक विचारोत्तेजक (सोचने पर मजबूर करने वाला) शेर पढ़ने को मिला।
"औरत के ख़ुदा दो हैं - हक़ीक़ी ओ मजाज़ी
पर उस के लिए कोई भी अच्छा नहीं होता
"ज़ेहरा निगाह"
अर्थात -
औरत के दो ख़ुदा - यानि दो मालिक होते हैं।
एक इस संसार में - इस लोक में (उसका पति) और दूसरा परलोक में - यानी ख़ुदा।
लेकिन कोई भी उसके लिए अच्छा या निष्पक्ष - पक्षपात और भेदभाव से रहित नहीं है।
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शायद इस तरह की सोच इब्राहिमिक* धर्मों की देन है - इस विचारधारा का स्तोत्र उनकी धर्म-पुस्तकों में निहित है।
इब्राहिमिक ग्रंथों में लिखित एक कहानी के अनुसार जब ख़ुदा ने आदम को बनाया तो कहा कि ये 'अशरफ-ओ-मख़लूक़ात' - अर्थात सबसे उत्तम और उत्कृष्ट रचना है - और उसे रहने के लिए स्वर्ग में जगह दी।
एक दिन रब्ब ने देखा कि आदम अकेला और उदास बैठा था।
तब उसने आदम की सेवा और मनोरंजन करने के लिए आदम की छाती में से एक पसली निकाल कर उससे हव्वा - अर्थात एक औरत बना दी - जिसे देख कर आदम बहुत खुश हुआ।
इस कथा या विचारधारा के अनुसार, रब्ब ने पुरुष और स्त्री को न तो एक साथ - एक ही समय में बनाया और न ही उनको एक समान दर्जा दिया।
हव्वा यानि औरत को आदम यानी आदमी अथवा पुरुष की सेवा और उसका मनोरंजन करने के लिए बनाया गया था।
इस धारणा के चलते अब से कुछ ही दशक पहले तक भी पश्चिमी देशों में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर के अधिकार नहीं थे। अनेक अरबी और पश्चिमी देशों में या तो महिलाओं को वोट देने का अधिकार ही नहीं था या उनकी वोट को आधा माना जाता था। यानी दो महिलाओं की वोट एक पुरुष की वोट के बराबर मानी जाती थी।
एक ही तरह के काम के लिए महिलाओं को पुरुष से आधा वेतन मिलता था।
सौभाग्य से अमेरिका ने क़रीब साठ साल पहले इस कानून को बदल दिया था।
औरत* - एक अरबी शब्द है। (कृपया फुटनोट में औरत का शाब्दिक अर्थ देखें)
हिंदी शब्द हैं - पुरुष और स्त्री अथवा नर और नारी।
किसी भी प्रामाणिक हिंदू शास्त्र ने कभी भी नारी को नर या पुरुष से कम नहीं कहा है।
वास्तव में, हिंदू शास्त्रों में तो महिलाओं को एक उच्च स्थान दिया गया है -
"यत्र नार्यस्तु पूज्यते - तत्र रमन्ते देवता"
अर्थात- जहां महिलाओं का सम्मान और पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं।
और व्यावहारिक रुप से तो यह विचारधारा केवल हिंदू धर्म और संस्कृति में ही देखने को मिलती है - जहाँ अनेक नारी देवियों की पूजा की जाती है - जैसे देवी दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, काली देवी, देवी सीता, एवं राधा देवी इत्यादि।
यहां तक कि पत्नी का नाम देवताओं के नाम से पहले लिया जाता है - जैसे कि राधा-कृष्ण, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण, गौरी-शंकर, आदि।
कोई भी हिंदू पूजा या धार्मिक अथवा सामाजिक रीति-रिवाज पत्नी की उपस्थिति के बिना पूरा नहीं माना जाता। किसी भी धार्मिक पूजा अथवा यज्ञ में पत्नी का उपस्थित होना अनिवार्य माना जाता है।
अन्य किसी भी धर्म में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
हालाँकि गुरु नानक देव ने भी कहा था - "सो क्यों मंदा आखिए जित जम्मे राजान"
बचपन में, मैंने अपने और अन्य रिश्तेदारों के घरों में एक लोकप्रिय हिंदू प्रथा देखी थी जिसे ' कंजकां ' कहा जाता था - इस प्रथा में आस-पड़ोस की पाँच कन्याओं अर्थात छोटी बच्चियों को घर में आमंत्रित किया जाता था और पूरे परिवार द्वारा उनकी पूजा की जाती थी।
उन्हें एक उच्च स्थान पर बिठाया जाता था - और परिवार के सभी सदस्य उनके चरणों में बैठते थे और उन्हें प्रणाम करते थे।
प्रणाम करने के बाद उन्हें भोजन और उपहार दिए जाते थे।
मुझे याद है कि हमारे गैर-हिंदू पड़ोसी और मित्र ऐसे रीति-रिवाजों का मज़ाक उड़ाते थे। यहाँ तक कि पश्चिमी मानसिकता वाले तथाकथित हिंदू बुद्धिजीवियों ने भी ऐसे रीति-रिवाजों की आलोचना की और उनका मज़ाक उड़ाया।
लेकिन सत्य तो ये है कि हिन्दू परिवारों द्वारा की गई इस प्रथा और इसी तरह के अन्य हिन्दू रीति-रिवाजों के इस प्रकार के व्यावहारिक प्रदर्शनों ने युवा मनों पर एक स्थायी प्रभाव डाला। इन रीति-रिवाज़ों का प्रयोजन था कमसिन - युवा - नौजवान लड़कों के मनों में यह प्रबुद्ध और सशक्त धारणा पैदा करना कि महिलाओं का सम्मान किया जाना चाहिए और किसी भी प्रकार से उन्हें अपने से कम नहीं समझा जाना चाहिए।
" राजन सचदेव "
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मैं नहीं जानता कि ज़ेहरा निगाह ने ये शेर किस संदर्भ में लिखा है लेकिन भारत में इस वक़्त चल रहे एक चर्चित केस पर ये शेर बहुत सही बैठता है - जिस में एक तलाक शुदा मुस्लिम महिला को गुज़ारा-भत्ता दिए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ जिस तरह से मौलवियों के ब्यान आ रहे हैं - और कह रहे हैं कि एक तलाक शुदा मुस्लिम महिला को उसके जीवनयापन के लिए गुज़ारा-भत्ता दिया जाना उनके मज़हब और धार्मिक पुस्तकों यानि कुरान और हदीस के खिलाफ है और ये मर्दों के हक़ में नाइंसाफी है।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~*इब्राहिमिक धर्म = तीन धर्म - यहूदी, ईसाई और इस्लाम - जिन का मूल उदगम अथवा पहला पैग़म्बर है हज़रत इब्राहीम
"औरत" शब्द मूल रुप से अरबी शब्द "अवरा" से आया है।
अरबी में, अवरा या अवरात शब्द का अर्थ - दोष, अपूर्णता, दोषपूर्ण, कमजोर, जननांग, कमर, निजी अंग, नग्नता, नंगापन, लज्जा इत्यादि को दर्शाते हैं ।[3] (विकिपीडिया)
उर्दू शब्दकोश के अनुसार, औरत का शाब्दिक अर्थ है - जिस के पास औरा - गर्भाशय का प्रवेश द्वार है।
विकिपीडिया के अनुसार अरब में औरत के समूचे शरीर और बालों तक को नग्नता और उत्तेजना का प्रतीक माना जाता था इसलिए हर एक औरत के लिए अपने आप को सर से पाँव तक ढके रखना एक अनिवार्य नियम था।
Kadva satya ji
ReplyDelete👍👍👍👍🙏♥️♥️🌹🌹
ReplyDeleteExplained beautifully 🙏🏿
ReplyDeleteThis couplet by Zehra Nigah explores the dual expectations and challenges faced by women in traditional societies. Let's break it down:
ReplyDelete**"औरत के ख़ुदा दो हैं - हक़ीक़ी ओ मजाज़ी"**
- Translation: A woman has two gods - the real one (true God) and the metaphorical one (her husband or societal expectations).
- Meaning: In many cultures, women are often expected to balance their devotion between their spiritual beliefs (true God) and their earthly obligations, which are often represented by their husbands or the societal norms that dictate their roles and behavior.
**"पर उस के लिए कोई भी अच्छा नहीं होता”**
- Translation: But for her, neither is truly good.
- Meaning: Despite her efforts to fulfill both roles and meet both sets of expectations, neither her spiritual devotion nor her adherence to societal norms completely satisfies her or acknowledges her struggles. She often finds herself in a position where her efforts are not fully appreciated or rewarded.
Overall, the couplet highlights the difficult position of women who are caught between religious and societal expectations, often feeling that they can never fully satisfy either.