कवि नीरज की एक दार्शनिक रचना - जो कल भी सत्य थी, और आज भी
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बदन पे जिस के शराफ़त का पैरहन देखा
वो आदमी भी यहाँ हम ने बद-चलन देखा
ख़रीदने को जिसे कम थी दौलत-ए-दुनिया
किसी कबीर की मुट्ठी में वो रतन देखा
मुझे मिला है वहाँ अपना ही बदन ज़ख़्मी
कहीं जो तीर से घायल कोई हिरन देखा
बड़ा न छोटा कोई फ़र्क़ बस नज़र का है
सभी पे चलते समय एक सा कफ़न देखा
ज़बाँ है और बयाँ और - उस का मतलब और
अजीब आज की दुनिया का व्याकरन देखा
लुटेरे डाकू भी अपने पे नाज़ करने लगे
उन्होंने आज जो संतों का आचरन देखा
जो सादगी है कुहन में हमारे ऐ 'नीरज'
किसी पे और भी क्या ऐसा बाँकपन देखा
~ पद्मभूषण डॉ. गोपालदास 'नीरज' ~
कुहन = पुरातन, पुराना, (हमारी पुरानी सभ्यता)
Nice poem covering many aspects.🙏
ReplyDeleteHaqeeqat ka alaam yahe hai ji aaj ka doar
ReplyDeleteभाषा और भावनाओं का अप्रतिम मीलन देखा
ReplyDeleteदिलको छुनेवाला नीरजजी का शब्दोंका जादु देखा
🙏🙏🙏🙏🙏