Wednesday, February 14, 2024

क्या ईश्वर को हमारे विश्वास की परीक्षा लेने की आवश्यकता है?

क्या ईश्वर को हमारे विश्वास की परीक्षा लेने की आवश्यकता है?
क्या ईश्वर सचमुच हमारी वफादारी की परीक्षा लेना चाहते हैं ?

यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञ है - तो वह हमारी क्षमता और सीमाओं को पहले से ही जानते हैं।
उन्हें परीक्षा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है - वह पहले से ही जानते हैं कि परीक्षण का परिणाम क्या होगा।
दूसरा - यदि ईश्वर का प्रेम सबके लिए एक जैसा है, तो वह यह परीक्षण क्यों करना चाहेगा कि हम उसकी कृपा के पात्र हैं या नहीं?

प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों में ईश्वर का वर्णन करते हुए कहा गया है:
          "सर्व  लोकैक नाथम्"
भगवान सर्व लोक के नाथ हैं - सभी के रक्षक और पालनहार हैं - 
न केवल अपने प्रियजनों के - या केवल उनके जो उनसे प्रेम करते हैं - बल्कि सभी के।
ईश्वर किसी से द्वेष और नफ़रत नहीं करते।

तो, यह विचार कहां से आया कि भगवान हमारे विश्वास की परीक्षा लेते हैं?

शायद यह धारणा पश्चिमी विचारधारा का प्रभाव है जो यह मानते हैं कि प्रभु ने मनुष्य को अपनी छवि में - अर्थात अपने जैसा बनाया है।
सिद्धांतानुसार यदि 'ए - 'बी के समान है - तो 'बी को भी 'ए के जैसा ही होना चाहिए।
इसलिए, यदि मनुष्य ईश्वर की छवि है, तो ईश्वर को भी मनुष्य के जैसा ही होना चाहिए।
तो हमने यह मान लिया कि चूँकि हम उसकी छवि हैं, इसलिए ईश्वर भी ज़रुर हमारे जैसा ही होगा।
इसलिए हम ईर्ष्या, क्रोध और पक्षपात जैसी मानवीय भावनाओं को ईश्वर के साथ भी जोड़ लेते हैं 
और ऐसा मानने लगते हैं कि ईश्वर भी पक्षपात करते हैं -  
हमारी तरह ही ईश्वर में भी ईर्ष्या और द्वेष जैसी भावनाएं मौजूद हैं।
जैसा कि बाइबल के एक्सोडस के अध्याय 20 में लिखा है: 
तब परमेश्वर ने ये बातें कहीं -
 “मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूँ। मैं तुम्हें मिस्र देश से बाहर लाया। मैंने ही तुम्हें दासता से मुक्त किया। 
इसलिए तुम्हें निश्चय ही मेरे आदेशों का पालन करना चाहिए।
“ मेरे अतिरिक्त किसी अन्य ईश्वर के आगे मत झुको।
क्योंकि मैं - तुम्हारा परमेश्वर - ईर्ष्यालु हूँ 
जो दूसरे देवताओं की पूजा करते हैं मैं उनसे घृणा करता हूँ। 
यदि कोई व्यक्ति मेरे विरुद्ध पाप करता है तो मैं उस का शत्रु बन जाता हूँ।
मैं उस व्यक्ति की सन्तानों को - तीसरी और चौथी पीढ़ी तक को दण्ड दूँगा।
किन्तु मैं उन व्यक्तियों पर कृपा करता रहूँगा जो मुझसे प्रेम करेंगे और मेरे आदेशों को मानेंगे। 
मैं उनके परिवारों के प्रति सहस्रों पीढ़ीयों तक कृपालु रहूँगा।
 “तुम्हें परमेश्वर के नाम का उपयोग गलत ढंग से नहीं करना चाहिए।
यदि कोई व्यक्ति यहोवा के नाम का उपयोग गलत ढंग से करता है तो वह अपराधी है और यहोवा उसे कभी माफ़ नहीं करेगा।
                                     (Bible - Exodus chapter 20 - verses 2, 3, 5, 6. 7)

कुछ लोग ये सोचते हैं कि जिस तरह ईर्ष्यालु पति-पत्नी अपने जीवनसाथी पर नज़र रखना पसंद करते हैं 
और लगातार उनकी वफादारी की परीक्षा लेना चाहते हैं - 
उसी तरह ईश्वर भी अपनी संतान और प्रजा की परीक्षा लेते रहते हैं - क्योंकि वो हमारे जैसे ही तो हैं।
हम अक़्सर ये मान लेते हैं कि भगवान अपने पसंदीदा लोगों पर सौभाग्य की वर्षा करते हैं  
और जो लोग उसकी अवज्ञा करते हैं उन्हें ईश्वर के क्रोध और प्रकोप का शिकार हो कर असीम दुःख भोगने पड़ते हैं। 
ईश्वर उन्हें पहाड़ जैसे दुःखों में डाल देता है।  
अगर ये सच है तब तो ईश्वर को लगातार हमारी परीक्षा लेने की आवश्यकता पड़ेगी - 
ये देखने के लिए कि हम उसके प्रति वफादार हैं या नहीं।

 लेकिन इसका सीधा अर्थ ये हुआ कि ईश्वर न तो सर्वज्ञ है और न ही सर्वशक्तिमान।

ईश्वर दंड और दुःख देता है और परीक्षा लेता है - यह तर्क और भावना शायद अपने कर्मों की ज़िम्मेदारी लेने से इनकार करने का एक माध्यम और तरीका है।
इसलिए हर बात को हम ईश्वर पर थोप कर फ़ारिग हो जाते हैं। 
हर बात का दोष ईर्ष्यालु और भेदभावपूर्ण ईश्वर पर दे कर स्वयं को सांत्वना दे लेते हैं।

एक पुरानी कहानी है कि एक व्यक्ति ने रास्ता चलते एक बूढ़े ग़रीब और भूखे आदमी को देखा तो उसे खाना खिलाने के लिए अपने घर ले आया।
खाना शुरु करने से पहले व्यक्ति ने उस बूढ़े आदमी से प्रार्थना करने और खाना उपलब्ध करवाने के लिए प्रभु का धन्यवाद करने के लिए कहा।
वृद्ध आदमी ने यह कह कर प्रार्थना करने से इंकार कर दिया कि वह न तो प्रभु को  मानता है और न ही उसकी पूजा अर्चना इत्यादि करता है।
वह मेजबान व्यक्ति - जो खुद को भगवान का एक सच्चा और परम भक्त मानता था - यह सुनते ही क्रोधित हो गया और बिना खाना खिलाए ही उसे घर से निकाल दिया।
थोड़ी देर बाद उसे ग़ैब से एक आवाज़ सुनाई दी - 
''तुम ने उस बूढ़े ग़रीब आदमी को नास्तिक और नाशुक्रा समझ कर घर से निकाल दिया -  
लेकिन देखो  - मैं उसे उम्र भर खाना देता रहा हूँ - 
हालांकि वो पिछले ६० साल से मुझे गालियां दे रहा है फिर भी मैं उसे जीवन भर भोजन देता रहा हूँ ।
और तुम उसे एक समय का भोजन भी न दे सके?" 
         मनुष्य और भगवान के बीच यही अंतर है।

ईश्वर का प्रेम और करुणा बिना कारण के - बिना किसी प्रतिफ़ल की आशा किए होता है और सभी के लिए समान होता है - बिना किसी भेदभाव के। 
तो, क्या उसे हमारे विश्वास की परीक्षा लेने की ज़रुरत या इच्छा होगी ?

कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर जिनसे प्रेम करता है उन्हें और समृद्ध और दृढ़ एवं शक्तिवान बनाने के लिए कष्ट देता है -
'"ईश्वर जिनसे प्रेम करता है?""
क्या ईश्वर सभी से - समान रुप से और बिना शर्त के प्रेम नहीं करता?
यदि ऐसा है, तो फिर तो उसे सभी को दृढ और श्रद्धावान बनाने के लिए समान रुप से कष्ट देना चाहिए। 
फिर तो हर इंसान को प्रभु की ओर से बराबर का दुःख और कष्ट मिलना चाहिए ताकि हर व्यक्ति समान रुप से दृढ़ और बलवान बन जाए।

दूसरी बात --
क्या हम जानबूझकर अपने प्रिय परिवार और बच्चों को दुःख दे सकते हैं ? कष्ट पहुंचा सकते हैं?
यदि हम साधारण मनुष्य होते हुए भी अपने बच्चों और प्रियजनों को पीड़ा नहीं दे सकते तो क्या एक सर्वशक्तिमान और सब से प्रेम करने वाला ईश्वर अपने बच्चों को कष्ट और पीड़ा देना चाहेगा?
यदि ईश्वर चाहे तो कोई कष्ट दिए बिना ही हमें मजबूत और दृढ़ बना सकता है - क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है।

वैसे ये संभव तो है - ऐसा हो सकता है कि जीवन में कष्ट और कठिनाइयाँ झेलते झेलते कुछ लोग मजबूत बन जाएं - 
लेकिन बहुत से लोग कठिनाइयों से घबरा कर टूट भी जाते हैं - निराश हो कर पलायनवादी बन जाते हैं।
और निश्चय ही यह बात ईश्वर भी जानता ही होगा। 
क्योंकि वह सर्वज्ञ है उसे पता है कि कौन दृढ होगा और कौन टूट जाएगा।  
इसलिए उसे किसी की परीक्षा लेने की कोई ज़रुरत नहीं है।

कुछ लोग यह भी कहते हैं कि ईश्वर हमारी क्षमता को जानता है और हमें उतने ही कष्ट देता है जितना हम सहन कर सकते हैं।
यदि ईश्वर हमारी क्षमता को पहले से ही जानता है तो फिर उसे परखने की क्या आवश्यकता है?

यह विचार कि भगवान हमें कष्ट देकर हमारी शक्ति और धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं - उन लोगों के लिए सांत्वना का कारण हो सकता है जो कर्म के नियम को स्वीकार नहीं करना चाहते - कि जो कुछ भी होता  है वह वर्तमान और पिछले कर्मों  का ही परिणाम है।
क्योंकि वे अपनी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते इसलिए वे सब कुछ भगवान पर डाल देते हैं -  
जीवन में किसी कठिनाई का सामना करना पड़े तो उसे प्रभु-इच्छा या ईश्वर की तरफ़ से कोई परीक्षा मान लेते हैं 
वैसे देखा जाए तो ऐसा मानने में कोई बुराई भी नहीं है - 
क्योंकि हो सकता है कि ऐसा विशवास कर लेने से कुछ लोगों के लिए कठिन समय से गुज़रना आसान हो जाए।

लेकिन एक ज्ञानी - एक प्रबुद्ध व्यक्ति इस बात को अच्छी तरह से जानता और समझता है कि ईश्वर सर्वज्ञ है - 
वह सब कुछ जानता है 
वह हमारी - अर्थात हर इन्सान की क्षमताओं और कमज़ोरियों को पूर्ण रुप से जानता है -
इसलिए उसे हमारे विश्वास और वफादारी की परीक्षा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।
 
विश्वास और वफ़ादारी की परीक्षा लेने की ज़रुरत अल्पज्ञ इंसान को होती है - 
सर्वज्ञ ईश्वर को नहीं।
                             " राजन सचदेव "

7 comments:

  1. 🙏Bahut hee sunder aur Uttam bachan ji .🙏

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  2. Agreed, Law of karma. In Gurudev Hardev Satguru Baba ji has explained in detail when Rev Bakel asked the question about karm to hazoor.. It was clearly explained by hazoor 🙏

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  3. 🙏🌹बहुत ही गहरी थ्योरी है सिर के ऊपर से निकल जाने वाली कई साल पहले ओशो के लेख में इससे मिलती जुलती थ्योरी पढ़ी थी आज रिव्यू हो गई 🙏

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  4. We as human being try to understand God with our intellect but by definition God id beyond Intellect. "Man Buddhi Te Aklon Bahaare..." This article definitely provide clarity to me. Thank you so much for sharing 🙏🙏

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