Friday, March 3, 2023

पुण्यतिथि - बरसी - फ़िराक़ गोरखपुरी

जनाब फ़िराक़ गोरखपुरी (28 अगस्त 1896 - 03 मार्च 1982)
(रेख़्ता से साभार) 
              एक मुद्द्त से तेरी याद भी आई न हमें
            और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

आज (3 मार्च) उर्दू के विख्यात एवं अत्यंत सम्माननीय शायर श्री रघुपति सहाय - उर्फ़ फ़िराक़ गोरखपुरी की बरसी है। 
फ़िराक़ गोरखपुरी एक युग निर्माता शायर और आलोचक थे।
उन्हें इस सदी का एक बहुत ही महान एवं प्रमुख उर्दू शायर माना जाता है जिन्होंने एक नई - आधुनिक उर्दू गज़ल के लिए राह बनाई - उर्दू शायरी को एक नया दृष्टिकोण दिया और इसे एक नई दिशा प्रदान की - 
नए युग की भावना, सांसारिकता और सभ्यता के पक्षों पर प्रबल ज़ोर देकर एक स्वस्थ वैचारिक साहित्य का मार्ग प्रशस्त किया और उर्दू ग़ज़ल को अर्थ व विचार और शब्द व अभिव्यक्ति के नए क्षितिज दिखाए। 
भारत सरकार ने उन्हें साहित्य के सबसे बड़े अवार्ड - भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया।

उनका जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में हुआ। 
रघुपति सहाय - उर्फ़ फ़िराक़ गोरखपुरी बहुत विद्वान और महान शायर थे - जिन्हें अपने जीवनकाल में ही बहुत प्रेम, आदर और सम्मान मिला - लेकिन दुर्भाग्य से उनका व्यक्तिगत जीवन बहुत ही दुख-पूर्ण रहा। 
18 साल की उम्र में उनकी शादी किशोरी देवी से कर दी गई जो फ़िराक़ की ज़िंदगी में एक नासूर साबित हुई। 
जब उनकी उम्र 20 साल की थी उनके वालिद का देहांत हो गया। ये फ़िराक़ के लिए एक बड़ी त्रासदी थी। छोटे भाई-बहनों की परवरिश और शिक्षा की ज़िम्मेदारी फ़िराक़ के सर आन पड़ी। बेजोड़ शादी और पिता के देहांत के बाद घरेलू ज़िम्मेदारियों के बोझ ने फ़िराक़ को तोड़ कर रख दिया, और पढ़ाई छोड़नी पड़ी। उसी ज़माने में वो मुल्क की सियासत में शरीक हो गए। सियासी सरगर्मियों की वजह से 1920 ई. में उनको गिरफ़्तार किया गया और उन्होंने 18 माह जेल में गुज़ारे।

1930 ई.में उन्होंने आगरा यूनीवर्सिटी से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. का इम्तिहान विशेष योग्यता के साथ पास किया और कोई दरख़ास्त या इंटरव्यू के बिना ही इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में लेक्चरर नियुक्त कर दिए गए। 
लेकिन फ़िराक़ ने वहां अपनी शर्तों पर ही काम किया। वो एक आज़ाद तबीयत के मालिक थे। महीनों क्लास में नहीं जाते थे। अगर कभी क्लास में गए भी तो पाठ्यक्रम से अलग हिन्दी या उर्दू शायरी या किसी दूसरे विषय पर गुफ़्तगु शुरु कर देते थे। वो वर्ड्स्वर्थ के आशिक़ थे और उस पर घंटों बोल सकते थे।
उनकी कुछ बातों को समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था लेकिन न तो वो उन्हें छुपाते थे और न शर्मिंदा होते थे। उनके सगे-सम्बंधी भी, विशेष कर छोटे भाई यदुपति सहाय, जिनको वो बहुत चाहते थे और बेटे की तरह पाला था, उनसे अलग हो गए - जिसका फ़िराक़ को बहुत दुख था।
घर के बाहर तो फ़िराक़ बहुत ही आदरणीय, सम्मानित और महान थे - लेकिन घर के अंदर वो बहुत बेबस और मजबूर थे - घर में उन की क़दर करने वाला कोई भी न था। वो दुःख और मजबूरी की एक ऐसी चलती फिरती प्रतिमा थे जो अपने ऊपर ख़ुशहाली का लिबास ओढ़े था। 
उनके इकलौते बेटे ने सत्रह-अठारह साल की उम्र में आत्महत्या कर ली। उनकी पत्नी किशोरी देवी भी उन्हें छोड़ कर चली गई। इस तन्हाई में शराब-ओ-शायरी ही फ़िराक़ के साथी व दुखहर्ता थे। 
बाहर की दुनिया ने उनकी शायरी के इलावा सिर्फ उनकी हाज़िर जवाबी, हास्य-व्यंग्य, विद्वता, ज्ञान-विवेक और सुख़न-फ़हमी को ही देखा। अपने अंदर के आदमी को फ़िराक़ अपने साथ ही ले गए।

शायरी के लिहाज़ से फ़िराक़ बीसवीं सदी की अद्वितीय आवाज़ थे।
उन के शे’र दिल को प्रभावित करने के इलावा सोचने को विवश भी करते हैं और उनकी यही विशेषता उन्हें दूसरे सभी शायरों से उत्कृष्ट करती है।
कामुकता को अनुभूति, समझ और चिंतन व दर्शन का हिस्सा बना कर महबूब के शारीरिक सम्बंधों को ग़ज़ल का हिस्सा बनाने का श्रेय फ़िराक़ को जाता है। जिस्म किस तरह ब्रह्मांड बनता है, इश्क़ किस तरह इश्क़-ए-इंसानी में तबदील होता है और फिर वो कैसे जीवन व ब्रह्मांड से सम्बंध प्रशस्त करता है, ये सब फ़िराक़ के चिंतन और शायरी का हिस्सा थे। 
फ़िराक़ के मिलन की अवधारणा दो जिस्मों का नहीं दो ज़ेहनों का मिलाप है। 
वो कहा करते थे कि उर्दू अदब ने अभी तक औरत की कल्पना को जन्म नहीं दिया। 
उर्दू ज़बान में अरब के किरदार लैला-मजनू इत्यादि तो हैं - लेकिन शकुन्तला, सावित्री,अनसूया और सीता कहीं भी नहीं हैं। 
देवी- देवियाँ भारतीय संस्कृति और मानस का एक अभिन्न और अनिवार्य हिस्सा हैं।
जब तक उर्दू अदब देवीयत को नहीं अपनाएगा उसमें हिन्दोस्तान का तत्व शामिल नहीं होगा - और उर्दू ज़ुबान सांस्कृतिक रुप से हिन्दोस्तान की तर्जुमानी नहीं कर सकेगी।

फ़िराक़ ने उर्दू ज़बान को नए शब्दों से अवगत कराया, उनके अलफ़ाज़ ज़्यादातर रोज़मर्रा की बोल-चाल के, नर्म और मीठे हैं। फ़िराक़ की शायरी की एक बड़ी ख़ूबी और विशेषता ये है कि उन्होंने सांसारिक अनुभवों के साथ साथ सांस्कृतिक मूल्यों की महानता और महत्व को समझा और उन्हें काव्यात्मक रूप प्रदान किया।
जोश मलीहाबादी (एक प्रसिद्ध मान्यवर शायर) ने फ़िराक़ के बारे में कहा था -  
“मैं फ़िराक़ को युगों से जानता हूँ और उनकी अख़लाक़ (बुद्धि) का लोहा मानता हूँ। इल्म-ओ-अदब की समस्याओं पर जब उनकी ज़बान खुलती है तो लफ़्ज़ों के लाखों मोती रोलते हैं और इस अधिकता से कि सुननेवाले को अपनी कम स्वादी का एहसास होने लगता है.... जो शख़्स ये तस्लीम नहीं करता कि फ़िराक़ की अज़ीम शख़्सियत हिंदू सामईन (श्रोताओं)  के माथे का टीका, उर्दू ज़बान की आबरु और शायरी की मांग का सिंदूर है, वो ख़ुदा की क़सम - कोरा .......है।

3 मार्च 1982 को दिल की धड़कन बंद हो जाने से फ़िराक़ उर्दू अदब को दाग़-ए-फ़िराक़ दे गए और सरकारी सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया।
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1961 ई. में उनको साहित्य अकादेमी अवार्ड से नवाज़ा गया
1968 ई.में उन्हें सोवियत लैंड नेहरू सम्मान दिया गया। 
भारत सरकार ने उनको पद्म भूषण ख़िताब से सरफ़राज़ किया। 
1970 ई. में वो साहित्य अकादेमी के फ़ेलो बनाए गए और “गुल-ए-नग़्मा” के लिए उनको अदब के सबसे बड़े सम्मान ज्ञान पीठ अवार्ड से नवाज़ा गया जो हिन्दोस्तान में अदब (साहित्य) का नोबेल इनाम माना जाता है। 1981 ई. में उनको ग़ालिब अवार्ड भी दिया गया।
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नोट : ऊपर दी गई अधिकतर जानकारी रेख़्ता की वेबसाईट से ली गई है। 

1 comment:

  1. Bahut khoob. Naman to a great poet ji.🙏

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