हमें अपने विचारों और दृष्टिकोण को दूसरों के साथ साँझा करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
अगर हमें लगता है कि हम सही हैं और हमारे विचार और दृष्टिकोण दूसरों की मदद कर सकते हैं, तो उन्हें सांझा करना चाहिए।
अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करें - लेकिन दूसरों की बात सुनने के लिए भी तैयार रहें।
जिन लोगों के पास निर्णय लेने की शक्ति है वे तय करेंगे कि वे क्या करना चाहते हैं - लेकिन कम से कम एक बार उन्हें आपका दृष्टिकोण देखने और समझने का मौका तो ज़रुर दें।
आमतौर पर हम अपने विचारों को साझा नहीं करना चाहते क्योंकि हम दूसरे लोगों की प्रतिक्रियाओं से डरते हैं।
हमें लगता है कि शायद लोग उन्हें पसंद नहीं करेंगे।
कुछ लोग स्वभाव से ही अच्छे और विशाल दिल वाले होते हैं।
बेशक वे भी कुछ ऐसी बातें देखते हैं जो उन्हें अच्छी नहीं लगतीं - लेकिन फिर भी वो चुप रहते हैं क्योंकि वो किसी की आलोचना या निंदा नहीं करना चाहते या किसी को नाराज़ नहीं करना चाहते ।
और कुछ लोगों को डर होता है कि अगर वो कुछ कहेंगे तो उनके वरिष्ठ अधिकारी या कुछ अन्य प्रभावशाली लोग नाराज़ हो जाएंगे - जिस से उनकी अपनी पोजीशन - पद और सम्मान कम हो जाएगा।
कभी-कभी हमें ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है जहां हम दुविधा में पड़ जाते हैं - सिद्धांतों और वफादारी के बीच चयन करने की दुविधा। जहां सिद्धांतों अथवा निष्ठा और स्वामिभक्ति में से किसी एक को चुनने की नौबत आ जाती है।
ऐसे में - अवसरवादी लोग तो अपने अधिकारीयों के प्रति निष्ठा और वफादारी चुनेंगे - जबकि अच्छे और सच्चे लोग हमेशा अपने सिद्धांतों पर टिके रहेंगे।
महाभारत की एक प्रसिद्ध कहानी -
खुले दरबार में द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था - उसे निर्वस्त्र किया जा रहा था।
भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे कई महान, विद्वान और बुद्धिमान लोग दरबार में बैठे थे।
वो जानते थे कि यह गलत है, लेकिन फिर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा।
वो चुप रहे क्योंकि उन्होंने सिद्धांतों से ऊपर अपने राजा के प्रति निष्ठा और वफादारी को चुना।
मौन को आमतौर पर स्वीकृति माना जाता है।
दुर्योधन को उनकी चुप्पी से प्रोत्साहन मिला।
चूंकि उन्होंने उस कार्रवाई की निंदा नहीं की। उसे रोकने का प्रयत्न नहीं किया
तो सबने यही सोचा कि ये महान लोग भी इस बात से सहमत थे कि दुर्योधन जो कर रहा था वह गलत नहीं था।
हम सोचते हैं कि चुप रहने से - हम अपने आप को किसी भी विवाद से दूर रख सकते हैं।
लेकिन मौन भी संचार का - वार्तालाप का उतना ही सक्रिय रुप है जितना कि बोलना।
अगर कोई समस्या है और हम कुछ नहीं कहते तो लोग ये सोच सकते हैं कि उस समस्या में हमारा भी उतना ही हाथ है - हमारी भी गलती उतनी ही है जितनी कि समस्या उत्पन्न करने वाले अन्य लोगों की।
एक प्रसिद्ध कहावत है कि -
"दुनिया बुरे लोगों के कारण उतनी पीड़ित नहीं है -
जितनी अच्छे लोगों की चुप्पी के कारण।
"राजन सचदेव "