Saturday, December 31, 2022

End-of-the-Year Apology and Gratitude

Those who think I am too proud ... 
Those who think I've ignored them... 
Those who ever felt offended by my attitude or temperament... 
Those whom I might have hurt by words or actions... 
Those whose promises I didn't fulfill... 
Those who felt I am scornful and unfriendly... 
Those whom I didn't visit or call during this year... 
            I apologize. 

From the day we met -
If you have ever felt insulted in any way by my words or actions -
If I ever spoke to you in harsh words or mocked and ridiculed you -
If I have ever hurt you in any way -
If I have ever intentionally or inadvertently ignored you,
Or annoyed you in any way  -
Then -
By folding both hands, I sincerely apologize.
And surely hope that you will be kind enough to forgive me for every mistake and folly I have ever made.

And those - who have helped me in any way -
Who taught and helped shape my thoughts - and made me what I am today
Those who made me smile -
and made me feel worthwhile -
I thank you from the core of my heart and sincerely hope to keep receiving even more guidance, love, and blessings in the coming year and every year after. 
                                                 " Rajan Sachdeva "

वर्ष-अंत क्षमा याचना एवं धन्यवाद

जो लोग सोचते हैं कि शायद मुझे बहुत गर्व या दंभ है -  ...
जो सोचते हैं कि मैंने उनकी उपेक्षा की - उन्हें नज़रअंदाज़ किया। 
जिनको मेरे व्यवहार या स्वभाव से कभी ठेस पहुंची हो ...
जिन्हें मेरे शब्दों या किसी कार्य से चोट पहुंची हो ...
जिनसे किये हुए वादे पूरे नहीं कर पाया ...
जिन को लगता हो कि मैं बहुत मिलनसार - मित्रवत या दोस्ताना नहीं हूं...
जिनसे मैं इस साल न तो मिल सका और न ही फोन किया...
        उन सब से मैं क्षमाप्रार्थी हूं।

जब से हमारा परिचय हुआ,
तब से लेकर आज तक  -
मेरे किसी वचन, अथवा आचरण या व्यवहार से
किसी भी तरह से आपका अपमान हुआ हो -
आपका दिल दुखा हो -
यदि मैंने कभी आपको कर्कश वचन कहे हों -
यदि जाने अनजाने में आपकी उपेक्षा की हो -
या आपको किसी बात से नाराज़ किया हो -
किसी भी तरह से चोट पहुंचाई हो -
     तो मैं दोनों हाथ जोड़ कर एवं नतमस्तक हो कर
आपसे क्षमा प्रार्थी हूँ
और आशा करता हूँ कि आप उदारता पूर्वक
इस याचना को स्वीकार करते हुए
मेरी हर ग़लती और नादानी के लिए क्षमा प्रदान करेंगे 

और जिन्होंने मेरी किसी भी रुप में - किसी भी तरह से मदद की  -
जिन्होंने मुझे सब कुछ सिखाया और मेरे विचारों को आकार और परिपक्वता देने में सहायक बने - 
जिन्होंने मुस्कुराने और प्रसन्नता के अनेकानेक मौके प्रदान किये -
मुझे सार्थक महसूस करवाया  -
मैं उन सब को अपने दिल की गहराई से धन्यवाद देता हूं - 
तहे-दिल से उनका शुक्रगुज़ार और आभारी हूँ 
और आशा करता हूं कि न केवल आने वाले वर्ष में - बल्कि उसके बाद भी -
पहले से भी अधिक मार्गदर्शन, प्रेम और आशीर्वाद हमेशा प्राप्त होता रहेगा ।
                                                  " राजन सचदेव "

नव वर्ष अभिनन्दनम Nav Varsha Abhinandanam

नव वर्ष अभिनन्दनम


https://www.youtube.com/watch?v=Q8JYVWIJ7Xw


एक और साल समाप्त होने जा रहा है

एक और साल समाप्त होने जा रहा है।
एक ऐसा साल - जो किसी के लिए तो असाधारण - बहुत अच्छा और सुखद रहा होगा। 
और किसी के लिए ज़्यादा अच्छा नहीं - या शायद दुखद भी रहा हो -
और बहुतों के लिए बस एक और साधारण - औसत वर्ष रहा होगा  ।
साल आते हैं और चले जाते हैं -
कौन जानता है कि हम एक और साल देखने के लिए जीवित रहेंगे भी या नहीं।
लेकिन महत्वपूर्ण बात तो केवल इतनी है कि हम अपना जीवन - रोज़मर्रा की ज़िंदगी किस तरह से जीते हैं।
जैसे कहा जाता है कि :
जीवन को आपके द्वारा ली जाने वाली सांसों की गिनती से नहीं - 
बल्कि उन क्षणों से मापा जाता है जो आपकी सांस को रोक लेते हैं- जो आपको रोमांचित कर देते हैं ।'
इसलिए जीवन पूर्ण रुप से जिएं। जीवन के हर पल को संजोएं।
अपने सम्बन्धियों, मित्रों, निकट और प्रियजनों को बिना किसी शर्त और कारण से प्रेम दें - उनकी मदद करें।
छोटी छोटी बातों को दीवार न बनने दें। 
भूलने और क्षमा करने की आदत डालें।
अगर किसी ने आपके साथ कुछ गलत या बुरा किया हो तो उन्हें क्षमा कर दें।
और जितना भी किसी का भला कर सकते हैं वो करें। 
और कोशिश करें कि जानबूझकर किसी के मन को चोट न पहुंचे।

लेकिन इसके साथ ही अपना भी ख्याल रखें।
हर रोज़ कुछ ऐसा करें जो आपको अच्छा लगता है - जो आपको पसंद है।
अपने चारों ओर अच्छाई और खुशियां फैलाएं।
और याद रखें - 
आपके सुख और आपकी खुशी के लिए कोई और नहीं बल्कि आप स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
दूसरे क्या कहते या करते हैं - इससे उत्तेजित न हों - परेशान न हों।
क्योंकि आपकी मर्ज़ी के बिना कोई भी आपके मन की शांति को भंग नहीं कर सकता।
इसलिए अपने मन को नियंत्रित रखें - पक्का रखें - और दृढ रहें।
ध्यान और सुमिरन के लिए समय निकालें -
जो मिला है उसके लिए हर समय निरंकार प्रभु का धन्यवाद करते रहें। 
और साथ ही - अपने मित्रों एवं सहयोगियों का धन्यवाद करना भी न भूलें

              सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया
              सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।

सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें,
सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे।
                                   " राजन सचदेव "

Another year is coming to an end

Another year is coming to an end.
A year that might have been outstanding for some, devastating for others -
and just another average year for many.

Years come and go - 
Who knows if we will live to see another year or not.
However, what is important is how we live and act every day.
As they say: 
Life is not measured by the breaths you take - 
 but by the moments that take your breath away.'
So live your life fully. Cherish every moment of your life. 
Love and help your near and dear ones unconditionally.
Forgive and try to forget what wrong others might have done to you.
Do all the good you can and try not to hurt anyone intentionally. 
At the same time, take care of yourself as well.
Do something each day that you love to do. 
Spread goodness and happiness around. 

And remember - 
No one is responsible for your happiness and attitude but yourself. 
Do not get agitated by what others do or say - 
Let no one take your peace of mind away. 
Take time out for contemplation - introspection - meditation, and Sumiran.
And most of all - 
Be grateful for what you have. 
Thank Almighty Nirankar for everything. 
And at the same time, do not forget to thank all near and dear ones and everyone else around. 
         " Om Sarve Bhavantu Sukhinaḥ -  Sarve Santu Niramayah 
          Sarve Bhadraani Pashyantu - Ma Kashchid Dukh Bhaagbhavet"
May everyone be at peace- may no one suffer from any illness
May all see goodness everywhere - and may no one suffer.
                 Stay Happy - Stay Blessed - Stay Peaceful. 
                                           " Rajan Sachdeva "

Friday, December 30, 2022

Tribute - Mata Heeraben

                            Tribute - Mata Heeraben Modi
                          (Received from a friend in India)

As soon as the news of the death of Prime Minister Narendra Modi's mother was received -
we thought - today, her body would be kept somewhere for the Antim Darshan  - last glimpses in a royal style. 
And then - as it happens at the death of the family members of politicians and heads of the states  - a majestic procession will be carried out. 
Then - She will be cremated in a royal manner - and the funeral program will become political.
But when I switched on the television - 
I saw that Modi ji and his brother - along with other family members had already reached the crematorium - carrying the mother's dead body in a very ordinary way.

Such normality is not seen even in the families of middle-class people. It is unbelievable to see the picture that such a prominent leader of the world is carrying his mother's body in an ordinary way - on a bier of bamboo and grass.
Such simplicity... never seen in the past and probably will never be seen again.
Millions of salutations to the mother who gave birth to such a wonderful personality.  
                  Humble tribute.
 
Morning - at 6 AM
There is news that the mother is no more.
The funeral procession begins at 9 a.m.
And by 9.38 in the morning the funeral process is over.
no VIP protocol
no road blockage
No Party Workers - No Slogans
No mausoleum in hundreds of acres
back to work at 11 am

Karmayogi people create their identity through their work!
Salutations  - Hundreds of salutations
                           (Received from a friend & posted with Thanks)
Note: 
I have no connection nor inclination towards any political party.
But when someone (anyone) does some decent and commendable work, we should respect them - admire and praise their actions. 
Such actions of humility and simplicity are undoubtedly noteworthy and highly commendable. 
                                             " Rajan Sachdeva "



श्रद्धांजलि - माता हीराबेन

                                          (भारत से एक मित्र द्वारा प्राप्त)

जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की माता जी हीराबेन के देहावसान की खबर मिली ... तो लगा कि आज उनका पार्थिव शरीर कंही अंतिम दर्शन के लिए रखा जायेगा..... फिर जैसा अन्य राजनेताओं के परिवार जनों की मृत्यु में होता है राजसी तरीके से उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा और अंतिम संस्कार का कार्यक्रम सियासी हो जाएगा 
लेकिन ऐसा सोचते सोचते जब टेलीविज़न ऑन किया तो देखा मोदी जी और उनके भाई सहित परिवार जन तो माँ के पार्थिव शरीर को बिल्कुल सामान्य तरीके से लेकर श्मशान पंहुच चुके हैं। 
इतनी सामान्यता तो मध्यमवर्गीय आम लोगो के परिवारों में देखने को नहीं मिलती। चित्र देखकर विश्वास नहीं होता कि विश्व के इतने बड़े नेता अपनी माँ को सामान्य रुप में -- बाँस और घास की अर्थी को कंधा देकर चल रहे हैं 

इतनी सादगी .... न भूतो न भविष्यति  
अर्थात न कभी देखी  और शायद न ही कभी देखने को मिलेगी। 
ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व को जन्म देने वाली माँ को शत शत नमन 
 विनम्र श्रद्धांजलि 
                 ~~~~~~~~~~~~~~~~
सुबह 6 बजे खबर लगती है मां नहीं  रही
सुबह 9 बजे शव यात्रा शुरु होती है 
और सुबह 9.38 तक अंतिम संस्कार प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। 

कोई वीआई पी प्रोटोकॉल नही
कोई सड़क व्यवधान नहीं
न पार्टी न कार्यकर्ता - न कोई नारे 
न सैकड़ों एकड़ में समाधि स्मारक 
11 बजे अपने काम पर वापस 

कर्मयोगी अपने काम से पहचान बनाते है ! 
नमन - शत शत नमन 
                             (एक मित्र द्वारा प्रेषित - साभार)

नोट : मेरा किसी भी सियासी - राजनीतिक पार्टी से कोई सम्बन्ध नहीं है। 
 लेकिन कोई भी व्यक्ति जब कोई अच्छा और महान कार्य करे तो हमें उसका आदर और अनुसरण करना चाहिए और उनके कार्य की प्रशंसा करनी चाहिए। 
                   " राजन सचदेव " 



जिसे देखो - वो हवा में ही रहता है Everyone seems to be in the air

आजकल जिसे देखो - वो हवा में ही रहता है
फिर जमीन पर न जाने इतनी भीड़ कैसे है?

Aaj kal jisay dekho vo hawaa mein hee rehtaa hai 
Phir zameen par na jaanay itni bheed kaisay hai ?
            ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

These days - everyone seems to be in the air.
Then how come - there is so much crowd on the ground?

संरक्षण बनाम नियंत्रण

अक़्सर जब हम किसी की परवाह अथवा देखभाल करते हैं - उन्हें संरक्षण देते हैं तो  हम उनके जीवन को नियंत्रित भी करना चाहते हैं।
किसी भी परवाह अथवा स्नेह के साथ ही उन पर नियंत्रण रखने का एक सूक्ष्म भाव भी पैदा हो जाता है। 
हर प्रकार के प्रेम के साथ कुछ न कुछ अधिकार की भावना भी जुडी रहती है ।
जैसे माता पिता अपने बच्चों की देखभाल करते हैं - उन्हें भरपूर प्रेम देते हैं किंतु साथ ही वह उनके जीवन को नियंत्रित भी करना चाहते हैं।
इसी तरह बड़े भाई बहन, शिक्षक,अधिकारी,नेता इत्यादि भी अपने छोटे भाई बहन, शिष्यों ,अनुयायियो, कनिष्ठ कर्मचारियों को अपने नियन्तण में रखना चाहते हैं।
 वे ऐसा इसलिए करते है क्यूंकि वो उन्हने संरक्षण देते हैं - उनकी परवाह और देखभाल करते हैं। इसलिए उन्हें अपने कण्ट्रोल में भी रखना चाहते हैं।
लेकिन कभी कभी यह नियंत्रण ज़रुरत से ज्यादा भी होने लगता है।
परंतु हर चीज की एक सीमा होती है। 
यह जानना भी ज़रुरी है कि किसे, कब, और कहां तक नियंत्रित रखा जा सकता है - 
और किस बात को - किस व्‍यवहार और किन गतिविधियों को नियंत्रित करना चाहिए और किस को नहीं।

 किसी की परवाह और चिंता करना, उन्हें संरक्षण देना - या फिर किसी के सम्पूर्ण जीवन को ही अपने नियंत्रण में  कर लेना - इन दोनों बातों में बहुत अंतर है।  
जहां परवाह' प्रेम की एक अभिव्यक्ति है, - वहीं दूसरी ओर नियंत्रण अभिमान को दर्शाता है।
परवाह से रिश्ते मजबूत होते हैं -  और अधिक नियंत्रण से बिखर जाते हैं।
स्नेह और परवाह दो दिलों को करीब लाती है - लेकिन नियंत्रण से दूरियां और बढ़ जाती हैं।
देखभाल और परवाह से हर जख्म भर जाते हैं - नियंत्रण केवल पीड़ा देने का काम करता है।
ज़रुरत से ज्यादा नियंत्रण नकारात्मकता को जन्म देती है - इससे अपने भी दूर हो जाते हैं।

इसलिए बच्चे हों या बड़े - सब की देखभाल और परवाह तो ज़रुर करें पर ज़रुरत से ज्यादा नियंत्रित रखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए - क्योंकि कोई भी इंसान नियंत्रण में रहना पसंद नहीं करता। हर इंसान को स्वतंत्रता और आज़ादी प्रिय है।
क्योंकि स्वतंत्रता मनुष्य का स्वभाव है  - आज़ादी इंसान की फितरत है। 
और मानव जीवन का मूल लक्ष्य भी यही है - मुक्ति - स्वतंत्रता - मोक्ष।

किस शख़्स के हिस्से में?- Kis shakhs kay hissay may?

बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है?
बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है 
                                           - मुनव्वर राना -
 
Bulandi der tak kis shakhs kay hissay may rehti hai?
Bahut oonchi imaarat har ghadi khatray may rehti hai 
                                                      (Munaavaar Rana)

No one stays on top forever
Tall buildings are always in danger 

Care vs Control

When we care for people, we usually want to control them too.
There is always a subtle control hidden behind any apparent care. 
With every kind of love, some sense of entitlement is also associated with it.
With any care or affection comes a subtle desire to have some control over them.
Parents love and care for their children, but at the same time, they want to control them too. 
Sometimes too much - more than it's required. 

Similarly, elder siblings, teachers, leaders, and executives want to control their younger siblings, students, followers, junior employees, etc. 
They want to control them - because they care for them.
However, there should be a limit - a criterion on what should and should not be controlled. 

There is a difference between caring and controlling. 

Care is an expression of love, while control is an expression of ego.
Care unites - Control divides.
Care builds closeness - Control isolates & creates distance
Care connects - Control disconnects 
Care binds - Control breaks 
Care heals - Control hurts. 
Too much control creates negativity. It turns people away and may even make them rebellious. 

So, keep caring for people but do not try to control them all the time - at least, not more than required.
Because no one likes to be controlled. 
Everyone likes to have some freedom. 
That is the innate nature - the deepest desire of every human being - to achieve liberation - Freedom - Moksha.

Thursday, December 29, 2022

काग़ज़ पर इक शेर लिखा था Kaagaz par ik sher likha tha

काग़ज़ पर इक शेर लिखा था
                        उसे बकरी चबा गई
सारे शहर में चर्चा फैला
                   इक बकरी शेर को खा गई

Kaagaz par ik sher likha tha
                          Usay bakree chabaa gayi
Saaray shehar mein charcha phaila
                        Ik bakree sher ko kha gayi

अपने विचार और दृष्टिकोण साँझा करें

हमें अपने विचारों और दृष्टिकोण को दूसरों के साथ साँझा करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
अगर हमें लगता है कि हम सही हैं और हमारे विचार और दृष्टिकोण दूसरों की मदद कर सकते हैं, तो उन्हें सांझा करना चाहिए।
अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करें - लेकिन दूसरों की बात सुनने के लिए भी तैयार रहें।
जिन लोगों के पास निर्णय लेने की शक्ति है वे तय करेंगे कि वे क्या करना चाहते हैं - लेकिन कम से कम एक बार उन्हें आपका दृष्टिकोण देखने और समझने का मौका तो ज़रुर दें।

आमतौर पर हम अपने विचारों को साझा नहीं करना चाहते क्योंकि हम दूसरे लोगों की प्रतिक्रियाओं से डरते हैं।
हमें लगता है कि शायद लोग उन्हें पसंद नहीं करेंगे।
कुछ लोग स्वभाव से ही अच्छे और विशाल दिल वाले होते हैं। 
बेशक वे भी कुछ ऐसी बातें देखते हैं जो उन्हें अच्छी नहीं लगतीं - लेकिन फिर भी वो  चुप रहते हैं क्योंकि वो किसी की आलोचना या निंदा नहीं  करना चाहते या किसी को नाराज़ नहीं करना चाहते ।
और कुछ लोगों को डर होता है कि अगर वो कुछ कहेंगे तो उनके वरिष्ठ अधिकारी या कुछ अन्य प्रभावशाली लोग नाराज़ हो जाएंगे -  जिस से उनकी अपनी पोजीशन - पद और सम्मान कम हो जाएगा। 
कभी-कभी हमें ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है जहां हम दुविधा में पड़ जाते हैं -  सिद्धांतों और वफादारी के बीच चयन करने की दुविधा। जहां सिद्धांतों अथवा निष्ठा और स्वामिभक्ति में से किसी एक को चुनने की नौबत आ जाती है। 
ऐसे में - अवसरवादी लोग तो अपने अधिकारीयों के प्रति निष्ठा और वफादारी चुनेंगे - जबकि अच्छे और सच्चे लोग हमेशा अपने सिद्धांतों पर टिके रहेंगे।

महाभारत की एक प्रसिद्ध कहानी -
खुले दरबार में द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था - उसे निर्वस्त्र किया जा रहा था।
भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे कई महान, विद्वान और बुद्धिमान लोग दरबार में बैठे थे।
वो जानते थे कि यह गलत है, लेकिन फिर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा।
वो चुप रहे क्योंकि उन्होंने सिद्धांतों से ऊपर अपने राजा के प्रति निष्ठा और वफादारी को चुना।
मौन को आमतौर पर स्वीकृति माना जाता है।
दुर्योधन को उनकी चुप्पी से प्रोत्साहन मिला।
चूंकि उन्होंने उस कार्रवाई की निंदा नहीं की। उसे रोकने का प्रयत्न नहीं किया 
तो सबने यही सोचा कि ये महान लोग भी इस बात से सहमत थे कि दुर्योधन जो कर रहा था वह गलत नहीं था।

हम सोचते हैं कि चुप रहने से - हम अपने आप को किसी भी विवाद से दूर रख सकते हैं। 
लेकिन मौन भी संचार का - वार्तालाप का उतना ही सक्रिय रुप है जितना कि बोलना।
अगर कोई समस्या है और हम कुछ नहीं कहते तो लोग ये सोच सकते हैं कि उस समस्या में हमारा भी उतना ही हाथ है - हमारी भी गलती उतनी ही है जितनी कि समस्या उत्पन्न करने वाले अन्य लोगों की।
एक प्रसिद्ध कहावत है कि - 
"दुनिया बुरे लोगों के कारण उतनी पीड़ित नहीं है - 
जितनी अच्छे लोगों की चुप्पी के कारण।
                                    "राजन सचदेव "

Share your Thoughts and Perspectives

We should not be shy about sharing our thoughts and perspectives with others. 
If we think we are right and our views and perspectives can help others, then we should pass them on. 
Present your point of view - but be open to listening to theirs as well. 
The people who have the power to make the decisions will decide what they want to do - but at least it is good to let them see your point of view.

Usually, we do not want to share our thoughts because we are afraid of other people's reactions. 
We are afraid that others may not like them. 
Many people are good-hearted by nature. They may see certain things that they do not like.
But they stay silent because they do not want to criticize or offend anyone.
Some are afraid that they might annoy their superiors or some other influential people, and they might lose their position and respect. 
Sometimes we face situations where we are in a dilemma - a predicament - to choose between principles and loyalty. 
While opportunists will choose loyalty, good people will always stick to principles.  

The famous story from Mahabharat -   
Draupadi was being stripped - disrobed in the open court.
Many great, learned, and wise people - such as Bhishma Pitamah, and Dronacharya were sitting in the court. 
They knew it was wrong, but they said nothing. 
They chose to be silent because they chose loyalty toward the king over principles. 

Silence is usually considered like approval - being in agreement with the situation. 
Duryodhan was encouraged by their silence. 
They did not disapprove or condemn his action. 
So everyone thought that these great people were also in agreement - that what Duryodhan was doing was not wrong. 

We might think that by staying silent - we can keep ourselves away - from being involved in any conflict. 
But silence is as much an active form of communication as speaking. 
If there is a problem and we do nothing, people may think the issue is as much our fault as the others who caused the problem. 

As per the famous quote:
“The world suffers - Not because of the bad people
 But because of the silence of the good people.” 
                                   " Rajan Sachdeva "

Wednesday, December 28, 2022

अधिक दोस्त - या सच्चे दोस्त?

युवावस्था में - जवानी में हम बहुत से दोस्त और एक बड़ा सा सामाजिक दायरा चाहते हैं।
सोशल मीडिया पर हमें जितने अधिक फॉलोअर्स और लाइक मिलते हैं, हम उतना ही रोमांचित और ख़ुशी महसूस करते हैं।

लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं - हमारे लिए अधिक मित्रों और परिचितों की बजाए असली और सच्चे दोस्तों का होना अधिक महत्वपूर्ण होता जाता है। 
जैसे-जैसे हम अधिक अनुभवी होते जाते हैं - मात्रा से अधिक गुणवत्ता - गिनती की बजाए गुण - Quantity की जगह Quality ज़्यादा  महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण हो जाती है। 

जीवन के हर पड़ाव में कई दोस्त आते हैं और चले जाते हैं - कुछ दोस्त बनते हैं और कुछ छोड़ जाते हैं
 - और फिर हम नए दोस्तों की तलाश शुरु कर देते हैं।
लेकिन असली दोस्त तो वही होते हैं जो हमेशा आपके साथ रहते हैं। 
जो सुख-दुःख में - ख़ुशी और ग़मी में - अच्छे और बुरे समय में - दुःख और मुसीबत में कभी आपका साथ नहीं छोड़ते। 
जो मुश्किल पड़ने पर हमेशा काम आते हैं। 
अगर ऐसे दोस्त मिल जाएं तो उनकी क़दर करें - उन्हें छोड़ें नहीं - उनका हाथ थामे रहें।  
उन्हें कभी दूर न होने दें। 
याद रखें - महत्ता और सार्थकता गुणों की होती है - गिनती की नहीं। 

Quality over Quantity

When we are young - we want to have more friends and a large social circle. 
The more followers and likes we get on social media, the more thrilled and happier we feel.

However, as we grow older - it becomes less and less important to have more friends and acquaintances - 
and more vital to have real and true friends. 
As we become more experienced, it becomes more important and meaningful to have Quality over Quantity.   
During the course of life, many friends come and go - we make some friends and lose some - and start looking for more. 
However, it's the real friends that stay with you forever - through thick and thin - through good and bad times - who never leave your side in times of trouble or sorrow.

Appreciate when you find such friends - Do not lose them - 
Cherish them and hold on to them. 
Remember - it's the quality that is important - not quantity.

Tuesday, December 27, 2022

Sukhasya Dukhasya Na-ko-api daata - No one is giver of Joy & Suffering

Sukhasya Dukhasya Na-ko-api daata
Paro dadatiti kubuddhiresha. 
Aham Karomeeti Vrithabhimaanam
Sva-Karm Sootray Garasito-hi-Lokah 
                                             (Ramayan)
Meaning:
There is no one else - who is the giver of happiness and sorrow.
To think that someone else gives happiness and sorrow is a sign of ignorance and thoughtlessness.
I am the doer and provider of everything - is also a false egotistic conception.
Everyone is bound in the chain of their Karmic cycle. 

The same thing is said in Tulsi Ramayana also:
        Kaahu na kou sukh dukh kar data
        Nij krit karm bhog sabu bhraataa
                 (Ram charit maanas - Ayodhya kaand)
There is no one else who gives happiness and sorrow.
Hey brother - everyone experiences happiness and sorrow according to their own deeds.
The same is also said in Gurubani:
         Dadai dos na deu kisai dos karma aapaneya 
        Jo main keeaa so main paaya dos na deejai avar jana 
                                                    (Gurbani page 433)

Sant Tulasidas further explains:
             Baday bhaag maanush tanu paava
             Sur durlabh sab granthanhi gaava
             Saadhan dhaam mochchh kar dvaara
             Payi na jehin parlok sanvaara
     So partra dukh paavayi sir dhuni dhuni pachhtaayi
     Kaalahin karmahin Eeshvarahin, mith‍yaa dosh lagaayi. 
                                          (Ram charit maanas - Uttarkaand)
Meaning:- 
By great fortune, this human body has been received. 
All the scriptures have said that this human body is rare even to the gods or angels. 
It is the abode of means and ways - and the door to salvation.
The one who does not take advantage of the hereafter after getting it (this opportunity) - always finds sorrow, beats his head, and repents.
Instead of admitting his fault, he falsely blames time, fate, or God.

We often do not want to take responsibility for anything - or the outcome of our actions. 
By holding someone else responsible - especially for our sorrows and sufferings, we feel some relief and solace.

However, if we consider ourselves responsible for our fate and circumstances - then we may try to do everything wisely. 
If we understand well that our deeds create our destiny - we will always try to do good deeds to secure a better future.
The adverse effects of past deeds can also be changed - up to some extent - by doing auspicious deeds in the present. 
That is why holy scriptures and saints preach and inspire us to do Satsang, Bhakti, and Seva with humility.
But if you cannot do any good - at least do not harm or hurt anyone.
Vedas say:
        "Ma Gridhah Kasyasvidhnam"
                   (Ishavasya Upanishad)
Never try to snatch someone's money - something that belongs to someone else.
                                  " Rajan Sachdeva "

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥
                         (अध्यात्मरामायण )
अर्थात सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है।
कोई दूसरा (हमें सुख और दुःख) देने वाला है - ऐसा समझना कुबुद्धि - मंदबुद्धि और अल्प-ज्ञान का सूचक है।

 'मैं ही सब का कर्ता हूँ ' यह मानना भी मिथ्याभिमान है । 
हमारा समस्त जीवन और संसार स्वकर्म - अपने कर्म के सूत्र में बँधा हुआ है । 

यही बात तुलसीकृत रामायण में भी कही गई है‒
                काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
                निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥

                           (राम चरित मानस - अयोध्या काण्ड)
अर्थात सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है।
हे भाई - सब अपने अपने कर्मों के अनुसार ही सुख दुःख भोगते हैं।

यही बात गुरबाणी में भी कही गई है‒
              ददै दोस न देउ किसै दोस करमा आपणेया
              जो मैं कीआ सो मैं पाया दोस न दीजै अवर जना 
                                         (गुरबाणी पन्ना 433)

अर्थात् अपने सुख-दुःख के उत्तरदायी हम स्वयं ही हैं - कोई दूसरा नहीं । 
जो जैसा करता है वह वैसा ही भरता है। किसी दूसरे को जिम्मेदार ठहराना गलत है। 

              बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
              साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥
             सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
              कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्‍या दोष लगाइ॥ (
राम चरित मानस - उत्तरकाण्ड)

अर्थात बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। 
सब ग्रंथ कहते हैं कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। 
यह (मनुष्य शरीर)  साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है।
इसे पाकर भी जिस ने परलोक न संवारा
वह हमेशा दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है। 
तथा अपना दोष न समझकर उल्टे काल पर, भाग्य पर या ईश्वर पर मिथ्या ही दोष लगाता रहता है॥

हम अक़्सर अपनी किसी बात - किसी घटना या अपने किसी काम के परिणाम की जिम्मेवारी नहीं लेना चाहते। 
ख़ास तौर पर अपने दुःख और कष्टों के लिए किसी और को जिम्मेवार और दोषी ठहरा कर हमें कुछ राहत और सांत्वना सी महसूस होती है।
लेकिन अगर हम अपने भाग्य एवं परिस्थितियों के लिए स्वयं को जिम्मेवार समझेंगे तो आगे के लिए हर काम को समझदारी से करने की कोशिश करेंगे। 
अगर हम ये अच्छी तरह से समझ लें कि हमारे कर्म ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं तो हम हमेशा अच्छे कर्म ही करने की कोशिश करेंगे।
वर्तमान के शुभ कर्मो के द्वारा पिछले कर्मों के दुष्परिणाम को भी बहुत हद तक बदला जा सकता है।
इसीलिए धर्म ग्रन्थ और संत महात्मा हमें सत्संग, भक्ति, नम्रता और सेवा भावना इत्यादि की प्रेरणा देते रहते हैं।
लेकिन अगर किसी का भला नहीं कर सकते तो कम-अज़-कम किसी का बुरा तो न करें।
वेद कहते हैं:
                           मा गृधः कस्यस्विद्धनम्  
                                                        (ईशोपनिषद )
अर्थात किसी का धन - किसी का हक़ छीनने की कभी कोशिश न करो।
                                      " राजन सचदेव "

Monday, December 26, 2022

Kabeera baat gareeb kee - If a poor person

"Kabeera baat gareeb kee saanchi na maanay koyi 
Dhanvaan kay jhooth pay - haan jee, haan jee hoyi"

If a poor person tells the truth, no one pays attention to him.
And if the rich person even tells a lie, people accept it as the truth.

In this world, respect is only given to money and position.
   Not to the person.

कबीरा बात गरीब की

             कबीरा बात गरीब की सांची ना माने कोई। 
             धनवान के झूठ में - हां जी हां जी होई ।।

ग़रीब व्यक्ति अगर सच भी बोले तो लोग उस पर ध्यान नहीं देते 
और धनवान अगर झूठ भी बोले तो लोग उसे सच मान लेते हैं। 

संसार में सम्मान केवल धन और पद का होता है - 
     व्यक्ति का नहीं।

Personal or Impersonal God

Last night - during a get-together - an old question surfaced again:
"I am wrestling between the two opposite thoughts we quite often hear in the Satsangs: 
One is that God is a neutral power, which is a quiet witness who never intervenes.
And on the other hand, we hear that God is very loving and kind - who hears and fulfills all our prayers. 
Aren't these both claims opposite and contradictory to each other?"
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I personally do not see much contradiction between the two.
They are rather complimentary to each other - depending on how we think and which state of mind we are in.
Let's look at both theories and their apparent difference.

         Impersonal, Niraakar, abstract God versus Personal - kind and benevolent Lord:

As I understand, Bhagavad Geeta, Gurubani, and the Nirankari mission support and teach the Vedantic philosophy of Niraakar and Nirgun Brahm which is 'Impersonal God '.

Gurubani says: 
"Roop na rang na rekh kichh, Trai gun te Prabh bhinn" 
God has neither any form nor shape - nor any of the three qualities"
That means neither anger nor compassion or kindness. In other words, Supreme God is a silent witness.

The entire Nirankari philosophy is outlined in the first Shabad of Avtar Bani;
"Roop rang te Rekhon nyaare, Tainu Lakh Pranam karaan" 
                   (Salutation to the Formless, attributeless God)
Bhagvad Gita says :
        "Nadattey kasya chit Paapam, nachaiv sukritam Vibhuh"
Meaning "God neither punishes anyone for their sins nor rewards for their good deeds."
He is just a quiet witness.

It also indirectly implies that we have freedom of choice - that we are responsible for our actions and that no one intervenes in any way.

This is the view of a Brahm Gyani and a Nirankari who believes in the formless Niraakar and Nirguna Parmatma (God).

However, the problem with this belief is that most of us can understand this intellectually - but practically it is extremely difficult to follow.
We cannot always feel, in day-to-day life, that "I am That; a part of Almighty God and in full control"

We can not really see every situation, good or bad simply as an illusion.
We can not always detach ourselves from everything by saying that “I am not a body and nothing of this world affects me".

Most of us, most of the time, feel that we are more or less helpless and we need someone to pray to - who will listen to us, fulfill our desires and take care of us whatever we need.
So, instead of an impersonal God, most of us like the idea of believing in a personal God.

                     Three forms or states of Brahm
The Sanatan Indian philosophy, besides teaching about the abstract Impersonal God, also explains its three forms, namely:
1. Nirgun Brahm : Niraakar and Nirguna
(Formless with no attributes) A silent witness.

2. Ishwar or Paramatma: Niraakar but Sagun Brahm :
Formless God with qualities such as compassion, love and
kindness.

3. Bhagvaan : Sakaar and Sagun:
God in physical form with all the above-mentioned qualities such as the personal Gurus or Avtaars.

First would be considered the Impersonal God while second and third would be the 'Personal God'.
Personal God can be "Niraakar " or 'Sakaar '
Are they different? 
 No.
Do we have to choose one or the other? 
 No.
In reality, all three are the same in different forms. 
It depends on how we look at it.
Goswami Tulasi Das says;
“Agunahi Sagunahi nahin kachhu Bhedaa”
                                      &
“Jo gun Rahit, Sagun soi kaise
Jal, Hima, Upal Bilag nahin jaise”
Meaning: There is no difference between Nirgun Brahm and Sakaar Brahm.
How could that be? Just as water, ice, and steam are not different. They are simply different forms of the same.”

Which belief is good for us? 
Depends on who we are and which level we are at.
Dr. Radhakrishnan divides humanity into three categories.
1. Intellectual
2. Emotional
3. Action-oriented
The first two would be relative here;
Intellectual or Gyani & Emotional Bhakta.

For the first ones, who have the knowledge and control over 'self ' - the path of Nirgun and Niraakaar Brahm is fine. 

But the Bhaktas who are emotional, may not be able to accept and handle the idea of an Impersonal God who is not going to do anything for them. So the second or third path might be better for them.
Lord Krishna says:
"ye yathaa maam prapadyantay taans tathaiva bhajaamyaham
mama vartmanuvartante manuṣhyah paartha sarvashah"
                           (Bhagvad Gita 4:11)
"In whatever way people worship and surrender unto Me, I reciprocate accordingly. 
O son of Pritha - knowingly or unknowingly, everyone follows My path."
In other words - However one worships, He accepts their devotion."

In the end, it all comes down to acceptance and surrendering in whatever way one wants to.
A Gyani will say "It happened the way it happened because of my Karma. God is simply the witness".
A Bhakta will say “It happened because God wanted it to happen this way."
If it happened in his favor, a Bhakta thinks:" He gave it to me because I prayed".
If not in favor: "I prayed but He did not give it to me because, for whatever reason, He did not want it or He has something better."

A Gyani will say "There is no need to pray”.
“Bin boleyaan sab kichh jaanadaa, Kis aage keechai Ardaas”
                               (Gurubani)
A Gyaani thinks “Whatever is going to happen, will happen according to my Karma", and he accepts it.

While Bhaktas find satisfaction in praying.
They believe: 
"Jo maangoon Thakur apnay te, soi soi devai"
 (Whatever I ask, my Lord gives me)
                     and 
"Keeta lodiye kumm so hair pai aakhiye
Kaaraaj day svaar Satguru sach Sakhiye"
                          (Gurbani)
(If you need something done, ask - pray to the Lord and it will be done - your desire will be fulfilled) 

They pray and accept the outcome as "His will.

Unlike a worldly person who will complain and get frustrated or angry, the Gyani and the Bhakta, both will maintain their peace by accepting everything, thru their own respective belief.

I cannot say which would be the right belief for someone else. It depends on each individual's intellectual and mental-emotional state.

Lord Krishna says in Bhagavad Gita:
       " Teshaam Gyani Nitya yukta, EkBhaktir Vishishyate"

“The 'Gyani Bhakta ' is my favorite one” 
- the combination of both. 
As Vishishtha Advaitvaad endorses and advocates the Advaita - Nondualism ideology - but at the same time strongly recommends the Bhakti - faith, devotion, and prayer - until one reaches the level of oneness with the Lord. 
                                       ‘Rajan Sachdeva’

Sunday, December 25, 2022

Focusing on others' faults and weaknesses

Even if we don't mean to be critical, we often focus on everyone's flaws, mistakes, and weaknesses. 
In our mind, consciously or unconsciously - we start passing judgment on everyone around us. 

However, the moment we think that the other person is wrong, we create a barrier between us that prevents us from seeing any goodness in them. 
Gradually, this practice of focusing on other people's faults becomes a habit that eventually prevents us even from reaching our own goodness. 
The more we focus on others' weaknesses, the more we lose our own goodness.

Merry Christmas and Happy Holidays to All

It's Christmas.
It's the Holiday season.
In this western part of the world where we live - almost everyone decorates their living room with an ornamented Christmas tree and long strings of lights outside the house.
The shopping malls, roads, and streets in residential areas display magnificent, spectacular views during the Holiday season. Some houses are decorated so gorgeously and splendidly that they catch everyone's eyes and become a point of attraction and admiration. They are a delight to look at and often make us wonder how much money and time they must have spent to do all that magnificent work.
Nevertheless, it's a beautiful scene all around.

But what about the light of consciousness - waiting to be lit inside our hearts and minds?
Do we ever think about that?
Lighting thousands of lights in and outside our houses will not make any difference in our life - unless we illuminate our minds with awakened consciousness.
The Guru has given us the torch - the light of Gyana, and we must keep it lit all the time.
It's our responsibility to see everything clearly in the light of Gyana.
Christmas is not just about exchanging and opening gift packs - It's about opening our hearts.

So, today, while opening our gift packs, let's think about opening our hearts and minds.
Let's illuminate - not only our houses but our minds as well - by getting rid of all kinds of false beliefs and narrowmindedness in our minds.
We must choose our path wisely and responsibly - with awakened consciousness. So that we all continue to prosper in physical and spiritual realms together.
May all be Happy and free from illness and misery.
May no one Suffer.
May all live with tolerance and acceptance of others' beliefs and lifestyles.
May there be love and harmony everywhere.
Remember: Auspicious wishes given with a pure heart are also the best gifts for any season.
Merry Christmas and Happy Holidays to everyone.
                    Let's illuminate our lives - inside and outside.
                                                 " Rajan Sachdeva "
          

Saturday, December 24, 2022

The Best way to Escape a Problem

Running away from the problems only increases the distance from finding the solution.
The best way to escape from a problem is to solve it.
Usually, we have a tendency to avoid problems as long as we can.
Sometimes we try to resort to a temporary and short-term solution in a hurry - by trying to find a quick fix. 
Quick fixes and short-term solutions might be easy and faster, but they do not last long.

Whether worldly or spiritual - we must try to find the correct answers 
and long-term solutions to all our questions and problems.
Avoiding questions or ignoring doubts can not solve anything.

समस्याओं से बचने का एकमात्र उपाय है -- उनका समाधान

किसी समस्या से बचने का सबसे अच्छा तरीका उसका समाधान ढूंढ़ना है।
अगर समस्याओं से दूर भागेंगे तो समाधान खोजने में दूरी और बढ़ जाएगी।

आमतौर पर, जहां तक सम्भव हो सके - हम समस्याओं से बचने की - उन्हें टालने की कोशिश करते हैं।
या कभी-कभी हम जल्दी में किसी अस्थायी और अल्पकालिक समाधान का सहारा लेने की कोशिश करते हैं।
अल्पकालिक समाधान आसान तो हो सकते हैं लेकिन लंबे समय तक नहीं चलते।

चाहे सांसारिक हो या आध्यात्मिक - हमें अपने प्रश्नों के सही उत्तर खोजने का प्रयास करना चाहिए 
और सभी शंकाओं और समस्याओं का दीर्घकालिक और स्थाई समाधान ढूंढ़ना चाहिए ।
प्रश्नों को टालने और शंकाओं को नज़रअंदाज़ कर देने से कोई भी मसला हल नहीं हो सकता।

Friday, December 23, 2022

Those who are trying to bring you down...


Speak or not to Speak?

Many times we face this dilemma in our lives - 
To speak or not to speak.
From early on, we were taught that there is a time for speech and a time for silence.
Sheikh Sa'di, a famous Sufi poet - says: depending on the situation, both are equally important. 
I remember one of his famous sher (couplet) in the Persian language:
                     अगरचे पेश ख़िरदमन्द ख़ामोशी अदब अस्त 
                      बवक़्त मसलेहत अन बै कि दर सुख़न कोशी 
                      दू चीज़ तीरह अक़्ल अस्त - दम फ़रो बस्तन 
                      बवक़्त गुफ्तन - ऊ गुफ्तन बवक़्ते ख़ामोशी 
                                                                     (शेख़ सादी)

       
              اگر چه پیش خردمند خاموشی ادب است 
                   به وقت مصلحت آن به که در سخن کوشی 
                      دو چیز طیره عقل است - دم فرو بستن 
                       به وقت گفتن و  گفتن به وقت خاموشی    


                      Agarche pesh khiradmand khamoshi adab-ast
                      Ba-vqt maslehat an be ki dar sukhan koshi 
                      Du cheez teerah aqal ast - dam faro bastan
                      Ba-vaqt guftan, ou guftan ba-vaqt khamoshi  
                                                              (Sheikh Sa’di)
Translation:
Though it's a virtue for the wise to stay quiet 
It is also virtuous to give advice when required, at the right time.
Two things are imprudent – unwise
To keep quiet when one should speak.
And to speak when it’s time to keep silence.  
                                                       (Sheikh Sa’di)
One of the greatest abilities that humans have, is the ability to communicate - to convey their feelings to others through speech - to share their experiences through verbal communication.
Effective Speaking is an art – a talent, a skill, which may require some learning and practice.
Silence is also one of the greatest skills - which also requires a lot of patience and practice. 
'Wisdom' is to know when to speak and when not to speak - the ability to evaluate the situation - when it’s time to offer advice and when it’s important to stay quiet.  
However, just as 'keep on talking' and giving unsolicited or unwanted advice is not useful, silence may also not be always positive and useful.
It is up to us to assess the situation and decide when and where we must be silent and be a quiet listener, and when and where we should not be silent. 

If our silence is in the wrong place, at the wrong time, it can damage personal and social relationships and even bring down the family, business, and social establishments. Many great organizations and empires have collapsed just because wise people did not speak up at the right time. 

In the classic epic of Mahabharat, there are two stories that would elaborate on this point further to make it more clear.
   
                                                                    1. 
After Yudhisthira's sovereign yajna, Duryodhan did not leave Indraprastha and stayed in the Pandavas' newly built palace. This new palace was built by Mayasura with many wonderful and amazing artifacts. Duryodhan was amazed to see the beautiful architecture of the palace and became very jealous of Pandava's luxury. Mayasura had also created many illusionary effects, such as a floor that appeared to be a pool filled with water which in fact was made of glass, and a wall at the end of a corridor that appeared to be a door. 
When Duryodhana tried to enter through a door, he hit his head against the wall because it was not really a door. When he went further he saw a pool of water so, he pulled his dhoti (pants) above the ankles. It was a glass floor that looked like a pool. 
Then Duryodhana went ahead and fell into a pool, which appeared to be a dry floor. Seeing this, Bhima and the other Pandavas who were present there were amused and started to make fun of him. Draupadi, the Pandavas' wife, started laughing loudly and commented - 'A blind father's blind son'. 
Duryodhana felt insulted by this comment so much that he vowed to take revenge on Draupadi and all the Pandavas. 
Many scholars and historians believe that these rude remarks were the main cause of Duryodhana's animosity towards Pandavas.
Had Draupadi kept quiet and not made that rude comment, perhaps the history would have been different. 

                                                                    2.
Pandavas lost Draupadi in the game of chess to Kauravas. According to the rules laid down before the game, winners had the right to do anything they wished to do. The Kauravas wanted to take revenge. So, they brought Draupadi into the open court and decided to unrobe her in front of everyone. 
When she was being insulted and unrobed in the court, the eminent scholars and stalwarts of ethics and morality such as Bheeshm and Dronachaarya were also present there. But they did not speak up against such a malicious, immoral action of their lords, the Kauravas. 
Though Bheeshma and all other ministers and scholars present in the court believed it was unethical and immoral, they still kept quiet in order to show their loyalty to the Kauravas. They thought that the loyalty to their lords and the rules of the game, though wrong, was above ethics and principles.
They had a dilemma - to choose between Rules or Ethics -  between Loyalty or morality. 
Apparently, they made a wrong, unwise decision of choosing loyalty instead of principles and morality.
And history never forgave them for that. 

Taking the right decision at the right time is very important.
Speech or Silence -  To Speak or not to speak?
It all depends on the situation.
So, Choose wisely.
                                            ‘Rajan Sachdeva’

बोलें या चुप रहें?

कई बार जीवन में ये समस्या सामने आ जाती है कि हम बोलें या चुप रहें? 
बचपन से ही हम ये सुनते आ रहे हैं कि बोलने और चुप रहने का अपना अपना समय होता है। 

सूफी कवि शेख सा'दी का एक शेर है, जिस में वह भी यही कहते हैं कि समय के अनुसार दोनों का अपना अपना महत्व है।  

                      अगरचे पेश ख़िरदमन्द ख़ामोशी अदब अस्त 
                      बवक़्त मसलेहत अन बै कि दर सुख़न कोशी 
                      दू चीज़ तीरह अक़्ल अस्त - दम फ़रो बस्तन 
                      बवक़्त गुफ्तन - ऊ गुफ्तन बवक़्ते ख़ामोशी 
                                                                     (शेख़ सादी)

                      اگر چه پیش خردمند خاموشی ادب است 
                   به وقت مصلحت آن به که در سخن کوشی 
                      دو چیز طیره عقل است - دم فرو بستن 
                       به وقت گفتن و  گفتن به وقت خاموشی   

अर्थात:
हालांकि चुप रहना एक समझदार व्यक्ति का विशेष गुण माना जाता  है लेकिन सही समय पर सुझाव देना भी समझदार होने की निशानी है।
अक़्सर दो जगह पर लोग ग़लती कर जाते हैं -
 जब बोलना ज़रुरी हो, तब चुप रहते हैं और जहां चुप रहने की ज़रुरत हो वहां बोल जाते हैं। 

मनुष्यों की सबसे बड़ी क्षमताओं में से एक है - 
संवाद अर्थात वार्तालाप करने की क्षमता। 
शब्दों द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की क्षमता  - बोलकर अपने अनुभवों को दूसरों के साथ साँझा करना। 
प्रभावी बोलना एक कला है - एक प्रतिभा, एक कौशल, जिसके लिए सीखने और अभ्यास करने की आवश्यकता होती है।

चुप रहना भी एक महान कला है - इसके लिए भी बहुत धैर्य और अभ्यास की आवश्यकता होती है।

बुद्धिमत्ता यह जानने में है कि कब बोलना है और कब चुप रहना है। 
स्थिति का मूल्यांकन करने की क्षमता - अर्थात कब सलाह देने का समय है और कब चुप रहना अच्छा है।
जैसे बिना मतलब बोलते रहना और बिना मांगे सलाह देना उपयोगी नहीं होता, उसी तरह हमेशा मौन रहना भी सकारात्मक और उपयोगी नहीं हो सकता। 
परिस्थिति के अनुसार निर्णय लेना कि हमें कब चुप रहकर सुनना है, और कब बोलना है, ये हमारी बुद्धिमता पर निर्भर करता है। 

यदि हमारा मौन गलत जगह पर है, गलत समय पर है, तो ये हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों को नुकसान पहुंचा सकता है और यहां  तक कि परिवार, व्यापार और सामाजिक प्रतिष्ठानों (Organizations) को  गिरा भी सकता है। कई महान संगठन, Organizations और साम्राज्य सिर्फ इसलिए गिर गए क्योंकि बुद्धिमान लोग मौन रहे - सही समय पर नहीं बोले।
महाभारत में दो ऐसी घटनाओं का ज़िक्र है जिन से इस बात का स्पष्टीकरण हो सकता है। 

                                              १. 
युधिष्ठिर द्वारा आयोजित महायज्ञ के बाद, दुर्योधन कुछ दिन इंद्रप्रस्थ में पांडवों के नव निर्मित महल में रहे। यह नया महल मायासुर द्वारा कई अद्भुत कलाकृतियों के साथ बनाया गया था। दुर्योधन महल के सुंदर वास्तुकला को देखकर आश्चर्यचकित था और पांडवों की भव्यता एवं विलासिता से बहुत ईर्षित हो गया। मायासुर ने कई भ्रमपूर्ण मायावी प्रभाव भी बनाए थे, जैसे कि एक फर्श जो पानी से भरा प्रतीत होता था - वास्तव में कांच से बना था और एक गलियारे के अंत में एक दीवार थी जो देखने में एक दरवाजा लगता था। जब दुर्योधन ने उस दरवाजे से प्रवेश करने की कोशिश की, तो उसका सर दीवार पर लगा क्योंकि वह वास्तव में दरवाजा नहीं था। जब वह आगे गया तो उसने गलियारे में पानी देखा, इसलिए उसने अपनी धोती को घुटनों से ऊपर खींच लिया। लेकिन वह कांच का फर्श था जो पानी जैसा प्रतीत होता था। आगे जाने पर दुर्योधन पानी में गिर गया, क्योंकि वह सूखे फर्श की तरह दिखाई दिया। यह देखकर, भीम और अन्य पांडव हँसने लगे और उसका मजाक उड़ाने लगे। पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने जोर से हंसते हुए कहा - 'अंधे पिता का अंधा बेटा '।
दुर्योधन ने इस बात से स्वयं को घोर अपमानित महसूस किया और उसने द्रौपदी और पांडवों से बदला लेने का निष्चय किया। 
कई विद्वानों और इतिहासकारों का मानना है कि पांडवों के प्रति दुर्योधन की शत्रुता का मुख्य कारण ये कठोर अपमानजनक टिप्पणी ही थी। यदि द्रौपदी चुप रहती और ऐसी कठोर बात कह कर दुर्योधन का अपमान नहीं करती तो शायद इतिहास कुछ अलग होता। 

                                                  २. 
पांडव कौरवों के साथ शतरंज के खेल में द्रौपदी को हार गए। खेल से पहले निर्धारित नियमों के अनुसार विजेता को अधिकार था कि वह हारने वाले के साथ जैसा चाहे वैसा बर्ताव कर सकता था। दुर्योधन द्रौपदी से बदला लेना चाहता था। इसलिए, उसने खुली सभा में द्रौपदी को बुलाया और सब के सामने उसका वस्त्रहरण करने का आदेश दिया। 
जब सभा में द्रौपदी का अपमान और वस्त्रहरण किया जा रहा था, तब भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे कई विद्वान् और शास्त्र ज्ञाता वहां मौजूद थे। 
लेकिन उन्होंने कौरवों की ऐसी दुर्भावनापूर्ण और अनैतिक कार्रवाई के खिलाफ कुछ नहीं कहा। हालांकि भीष्म और सभा में मौजूद अन्य सभी मंत्री एवं विद्वान जानते थे कि जो हो रहा था वह ग़लत और अनैतिक था, फिर भी वे कौरवों के प्रति अपनी वफादारी का सबूत देने के लिए चुप रहे। 
उन्होंने सोचा कि उनके लिए स्वामी के प्रति वफ़ादारी और खेल के नियम - गलत होते हुए भी धर्म, नैतिकता और सिद्धांतों से ऊपर थे।
वह इस दुविधा में पड़ गए कि वह मालिक के प्रति वफादारी दिखाएं या सत्य और धर्म  के लिए आवाज़ उठाएं ? 
जाहिर है, उन्होंने सिद्धांतों और नैतिकता के बजाय - सत्य और धर्म का पक्ष लेने की जगह राजा - अर्थात अपने स्वामी के प्रति वफ़ादारी निभाने का निर्णय लिया - जो कि गलत था। और इतिहास ने उन्हें इसके लिए कभी माफ़ नहीं किया।

सही समय पर सही निर्णय लेना बहुत महत्वपूर्ण है। 
भाषण दें या मौन रहें - ये परिस्थिति पर निर्भर करता है। 
बोलें या चुप रहें ? इस का निर्णय सोच समझ कर बुद्धिमानी से लेना चाहिए !!
                                                 ' राजन सचदेव '

Speech is Silver - Silence is Gold


Speech is silver - Silence is gold.

The silence that guards you with respect and honor -
is better than a speech that may later bring you regret.

What is the use of such a speech or conversation which leads to remorse? 

Some people have the habit of trying to provoke others.
In such a situation, silence would be better. 
It can protect your honor - as well as remorse.

संवाद से मौन बेहतर है

वह मौन जो सम्मान के साथ आपकी रक्षा करे 
उस संवाद - उस वार्तालाप से बेहतर है जिससे बाद में पश्चाताप हो। 

ऐसे वार्तालाप - ऐसी बातचीत का क्या फायदा जिस से बाद में पश्चाताप हो - पछतावा हो। 
उस से तो मौन अच्छा है जो आप के सम्मान की रक्षा कर सकता है।

कुछ लोगों की आदत होती है कि वे दूसरों को उकसाने का यत्न करते हैं 
ऐसी परिस्थिति में मौन रहना ही बेहतर है। 
इस से आप का सम्मान भी बचा रहेगा और बाद में पछताना भी नहीं पड़ेगा। 

Thursday, December 22, 2022

कभी कभी मैं याद में तेरी Sometimes I get so lost

कभी कभी मैं याद में तेरी यूं  खो जाता हूँ 
मैं नहीं रहता हूँ तब - बस तू हो जाता हूँ 
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Kabhi kabhi main yaad me teri yoon kho jataa hoon 
Main nahin rehtaa hoon tab - bus Tu ho jataa hoon 

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Sometimes I get so lost in your remembrance - 

That I stop to exist - and just become one with you. 


What is Moksha?

According to Sanatan Hindu/ Vedantic ideology, Moksha is not a physical location in some other Loka (realm), another plane of existence, or ...