कुसुमस्तवकस्येव द्वयी वृत्तिर्मनस्विनः ।
मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य शीर्यते वन एव वा ॥
(भर्तृहरि नीति शतक श्लोक 33 )
भावार्थ:
फूलों की तरह ही विचारशील मनुष्यों की स्थिति भी इस संसार में दो प्रकार की होती है।
या तो वे फूलों की तरह गले का हार - अर्थात सर्वसाधारण के प्रतिनिधि और शिरोमणि बन जाते हैं
या फिर वन (जंगल) के फूलों की तरह एकांत में - अकेले ही जीवन व्यतीत कर देते हैं।
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