शिशिरवसन्तौ पुनरायातः
कालः क्रीडति गच्छतिआयुः
कालः क्रीडति गच्छतिआयुः
तदपि न मुंचति आशा वायुः ॥१२॥
आदि शंकराचार्य के इस श्लोक में दो गहन अर्थ छिपे हुए हैं।
"आदि शंकराचार्य - भज गोविन्दम (१२)
दिन और रात - शाम और सुबह
दिन और रात - शाम और सुबह
सर्दी और वसंत बार-बार आते-जाते रहते हैं अर्थात ऋतुएं बदलती रहती हैं - बार-बार आती जाती रहती हैं।
काल की इस क्रीड़ा - इस खेल के साथ आयु घटती रहती है - धीरे धीरे समाप्त हो जाती है
पर आशा-मंशा का तूफ़ान कम नहीं होता - इच्छाओं का कभी अंत नहीं होता ॥
आदि शंकराचार्य के इस श्लोक में दो गहन अर्थ छिपे हुए हैं।
प्रकृति की तुलनात्मक उदाहरण दे कर इस श्लोक में शंकराचार्य ने मानव के शारीरिक और मानसिक - दोनों पहलुओं को छुआ है।
सुबह शाम - दिन रात और सर्दी गर्मी, वसंत अदि के बदलने के साथ साथ मानव शरीर की उमर भी बढ़ती रहती है
या दूसरे शब्दों में - शेष बची हुई आयु कम होती रहती है।
लेकिन शरीर के वृद्ध और जीर्ण होने पर भी आशा-मंशा और इच्छाओं का अंत नहीं होता॥
दूसरा अथवा मानसिक पहलू
प्रकृति में दिन रात और सर्दी गर्मी, वसंत अदि ऋतुएं बदलती और बार-बार आती जाती रहती हैं। लेकिन दिन के बाद रात का अर्थ यह नहीं कि दिन हमेशा के लिए समाप्त हो गया। ऋतुओं के बदलने - गर्मी या सर्दी के जाने का ये अर्थ नहीं कि अब कभी दोबारा गर्मी या सर्दी नहीं होगी।
ये तो काल का चक्र है जो चलता ही रहेगा।
जैसे काल-चक्र - समय का खेल चलता रहता है उसी तरह मानव मन में भी आशा-मंशा और इच्छाओं का खेल चलता ही रहता है।
एक इच्छा की पूर्ति या समाप्ति का अर्थ ये नहीं कि आशा-मंशा समाप्त हो गयीं।
इनका अंत नहीं होता।
एक आशा - एक इच्छा पूरी हुई तो फिर से एक नई आशा - एक नई इच्छा पैदा हो जाएगी।
ऋतुओं की तरह ही आशा-मंशा भी आती जाती रहती हैं। सिर्फ बदलती हैं - खत्म नहीं होतीं।
जैसे प्रकृति का - समय का खेल चलता रहता है वैसे ही मन में इच्छाओं और आशा-मंशा का खेल भी जीवन भर चलता ही रहता है।
अब प्रश्न ये है कि हमारी व्यक्तिगत और आध्यात्मिक उन्नति में इस बात का क्या महत्त्व है?
इस श्लोक को - और इस जैसी अन्य बातों को केवल समस्या समझ कर ही छोड़ देना काफी नहीं है।
इस बात को तो सब जानते हैं - लेकिन प्रश्न ये है कि इसका समाधान क्या है?
सोचने की बात तो ये है कि जैसे हमें ऋतुओं के बदलने का ज्ञान है।
हम जानते हैं कि रात दिन - सर्दी गर्मी इत्यादि समाप्त नहीं हुईं - ये आती जाती रहेंगी
और हम पहले से ही गर्मी सर्दी इत्यादि से बचने के लिए कोई प्रबंध कर लेते हैं।
उसी प्रकार अगर हम मन के इस खेल को भी अच्छी तरह समझ लें - तो इसे नियंत्रित रखने और दुःख एवं निराशा से बचने का कोई इंतज़ाम भी कर सकेंगे।
' राजन सचदेव '
My favorite composition by Adi Guru Shakracharya! 🙏🏼🙏🏼💐
ReplyDeleteDhan Nirankar.
ReplyDelete🙏🙏🙏🙏🙏🙏
Very Thoughtful
ReplyDelete🙏🙏
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