Thursday, September 17, 2020

पुण्य तिथि - शहंशाह बाबा अवतार सिंह जी महाराज

बाबा अवतार सिंह जी महाराज निरंकारी - जिन्हें हम सभी प्यार से शहंशाह जी कहते हैं - आज के दिन - 17 सितंबर, 1969 को इस नश्वर एवं क्षणभंगुर संसार से विदा हुए थे।
उनकी असाधारण शिक्षाएं और अविस्मरणीय प्रेम भरी यादें आज भी मेरे मन में कल की तरह ताजा हैं।

वो दिन - जिस ने मेरा जीवन बदल दिया 

मैं क़रीब 13 साल का था जब एक सहपाठी के अनुरोध पर, मैं पहली बार 6 मार्च, 1962 को बाबा अवतार सिंह जी के दर्शन करने गया था।
लेकिन मैं इस शर्त पर गया था कि वो मुझे ज्ञान लेने और बाबा जी को अपना गुरु बनाने के लिए - उनका शिष्य बनने के लिए नही कहेंगे।

सत्संग के बाद, मेरा दोस्त मुझे कुलदीप सिंह आहलुवालिया जी के घर ले गया जहाँ शहंशाह जी ठहरे हुए थे। जो लोग पंजाब में पुराने घरों के डिजाइन से परिचित हैं, उन्हें याद होगा कि घर के बीचों-बीच एक खुला आँगन हुआ करता था - जो चारों ओर कमरों से घिरा होता था।
हम ऐसे ही उस बीच वाले आँगन में खड़े थे - और मेरे दोस्त ने मुझसे पूछा - क्या विचार है ? ज्ञान लेना चाहते हो?
मैंने उसे याद दिलाया कि मैं इस शर्त पर वहां आया था कि वह ज्ञान के बारे में मुझसे बात नहीं करेंगे । उन्होंने कहा: मैंने सोचा शायद आपका विचार बदल गया हो लेकिन कोई बात नहीं - जैसा आपका विचार है। मैं तो अब सारा दिन यहीं रहूँगा - अगर आप जाना चाहें तो ठीक है।
हमने हाथ मिलाया और विदा ली। वह ऊपर के कमरे में चला गया, और मैं वहां से वापस आने के लिए बाहर के दरवाज़े की तरफ चल पड़ा।

गैलरी में दो कमरे थे - एक कमरे का दरवाजा खुला था, और मैंने देखा कि सामने शहंशाह जी एक दीवान पर बैठे थे। उनके चेहरे पर एक तेज - एक अजीब सा जलाल था - मेरी आँखें उन के नूरी - चमकते हुए दीप्तिमान चेहरे से हट नहीं सकीं। मुझे उनके चारों ओर एक प्रकाशमान आभा सी महसूस हुई और जैसे कोई चुंबकीय शक्ति मुझे खींच रही हो - मैं कमरे के अंदर चला गया। 
लगभग 5-6 अन्य लोग पहले से ही वहां बैठे थे। मैं उन सब के पीछे बैठ गया। 
शहंशाह जी ने मुझे देखा और शायद - क्योंकि मैं बहुत छोटी उमर का था - उन्होंने मुझे आगे आकर उनके पास - उनके सामने बैठने के लिए कहा।
जब उन्होंने ज्ञान दिया तो मैं आश्चर्य-चकित हो कर उसी में खो गया।
जहां वो बैठे थे , उनके पीछे छत के करीब एक रोशनदान था - एक छोटी सी खिड़की थी। मैं उस खिड़की के बाहर टकटकी लगा कर देखता रहा। इस महान शून्य की विशालता और उससे निकलने वाली पारगम्य ऊर्जा को निहारता रहा। मेरे उस समय के भावों और अनुभव को शब्दों में व्यक्त करना असम्भव है।
उन्होंने पूछा कि मैं उस खिड़की से बाहर क्या देख रहा था?
मैंने भगवद् गीता का एक श्लोक सुनाया - जहाँ अर्जुन कहते हैं कि वह सूर्य, चंद्र, सितारे - धरती एवं सभी जीव जंतु - और कौरव और पांडव - दोनों पक्षों की सेनाओं को भी उस विराट रुप के अंदर देख रहे हैं।
मैंने कहा - यही तो वह विराट रुप है जो अर्जुन ने देखा होगा।
बाबा जी ने अपना हाथ मेरे सर पर रखा और फिर बहुत प्यार से मेरी पीठ को सहलाने लगे।
फिर उन्होंने दूसरों की तरफ देख कर कहा: 'एह कोइ पुरानी ज्ञानी रुह आई ऐ।'

उसी पल से, ज्ञान के पश्चात मेरा जीवन हमेशा के लिए बदल गया - मैं सदा के लिए उन्हीं का हो कर रह गया। 
                                                                          'राजन सचदेवा'

जल सेवा - फ़िरोज़पुर - 1963 

शहंशाह जी, संत अमर सिंह जी, निहाल सिंह जी एवं अन्य महात्माओं के साथ स्टेज पर  
मोगा - 1963 



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It is easy to find fault in others - The real test of wisdom is recognizing our own faults.  Criticizing and condemning others is not hard. ...