Monday, February 23, 2015

इक दुनिया में सब रहते हैं,

इक दुनिया में सब रहते हैं, 
                            इक दुनिया सब के अंदर है 
इस दुनिया से मिलती जुलती, फिर भी इस से अलग थलग,
                            इक दुनिया सब के अंदर है 

इस दुनिया को अपने अंदर सब छुपा के रखते हैं 
देख न ले कोई, सब की नज़रों से बचा के रखते हैं 

कोई कितना पास भी आ जाए, दिल में भी चाहे समा जाए 
फिर भी इस दुनिया पे हम परदा ही डाले रखते हैं 

डरते हैं कि अंदर के भावों को कोई जान न ले 
छुपे हुए इस अंदर के मानव को कोई पहचान न ले

इसीलिए हम चेहरे पर कोई नक़ाब चढ़ाते हैं 
इक दिन में ही देखो कितने ही चेहरे बदलाते  हैं

अंदर चाहे नफरत हो बाहर से प्रेम जताते हैं 
अंदर है अभिमान, बाहर नम्रता दिखलाते हैं 

कहते हैं कुछ और ज़ुबां से, दिल में होता है कुछ और 
मुख से माँगें भक्ति, दिल में है मिल जाए शक्ति और 

बाहर से दिखते भरे पुरे, पर अंदर से रीते हैं 
अंदर और बाहर की दुनिया कई रंगों में जीते हैं 

औरों की नज़रों से तो हम इसे बचा के रखते हैं 
लेकिन ख़ुद भी अपने अंदर जाने से हम डरते हैं 

कभी जो अंदर का मानव अपना एहसास दिलाता है 
मैं भी हूँ, मुझको भी देखो, ये आवाज़ लगाता है 

उसकी आवाज़ दबाने को हम खुद को और उलझाते हैं 
शोर बढ़ा के बाहर का अंदर का शोर दबाते हैं 

डरते हैं कि अन्तस् ही आईना हमें दिखा न दे 
असलीयत जो है हमारी वो तस्वीर दिखा न दे 

इसीलिए हम शायद कभी अकेले बैठ नहीं पाते 
और अपने ही अंदर की दुनिया को देख नहीं पाते

औरों की या खुद की नज़रों से तो इसे बचा लेंगे 
अन्तर्यामी प्रभु से लेकिन कैसे इसे छुपा लेंगे 

इक दुनिया में हम रहते हैं, इक दुनिया अपने अंदर है 
बाहर के जग से मिलती जुलती, 
फिर भी इस से अलग थलग,
                            इक दुनिया अपने अंदर है 

अंतर और बाहर में चूँकि फ़र्क़ बना ही रहता है 
इसीलिए ही जीवन में उलझाव सदा ही रहता है 

 अंदर और बाहर की दुनिया जिस दिन इक हो जाएगी 
"राजन" उस दिन ही जीवन में परम शान्ति हो जाएगी 

                                      "राजन सचदेव " 


No comments:

Post a Comment

The Biggest Gathering of Humanity on the Planet

A friend forwarded the following article to me with a request to post it on my blog. The article offers a fair observation—neither political...