Sunday, February 19, 2023

महा शिव-रात्रि एवं भगवान शिव के चित्र का प्रतीकवाद

भगवान शिव, विष्णु, गणेश, सरस्वती, और दुर्गा इत्यादि हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियां अथवा चित्र उनके वास्तविक चित्र - वास्तविक फोटो नहीं हैं - वे प्रतीकात्मक हैं। 
भारत के प्राचीन ऋषि एवं विद्वान अपने संदेशों को संप्रेषित करने के लिए लाक्षणिक भाषा और प्रतीकात्मक चित्रों का प्रयोग करते रहे हैं। 
हिंदू विचारधारा को समझने के लिए इन मूर्तियों और चित्रों के पीछे छुपे हुए प्रतीकवाद को समझने की ज़रुरत है।
             भगवान शिव के चित्र में प्रतीकवाद

भगवान शिव को आदि-योगी तथा आदि-गुरु माना जाता है।
दोनों शब्द - योगी और गुरु बहुत हद तक पर्यायवाची हैं।
योगी का अर्थ है मिला हुआ  - जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया - जिसका परमात्मा से मिलाप हो गया।
और गुरु का अर्थ है जो अज्ञानता के परदे को हटाकर ज्ञान का प्रकाश प्रदान करे।
एक पूर्ण योगी ही पूर्ण गुरु हो सकता है।
एक गुरु तब तक वास्तविक गुरु नहीं हो सकता जब तक कि वह स्वयं ज्ञानी एवं योगी न हो।
जिसे स्वयं ही आत्मज्ञान न हो - जिसका परमात्मा से मिलाप न हुआ हो - वह दूसरों को परमात्मा का ज्ञान कैसे दे सकता है? जो स्वयं ही परमात्मा से न मिला हो - वह दूसरों को कैसे मिला सकता है?


इसी तरह, एक योगी - जिसने परमात्मा को पा लिया - जिसका मिलाप हो गया - यदि वह अपने ज्ञान और अनुभव से दूसरों की मदद नहीं करता - उन्हें परमात्मा तक पहुँचने में उनकी सहायता नहीं करता तो उसे स्वार्थी ही कहा जाएगा।
इसलिए शिव आदि-योगी भी हैं और आदि-गुरु भी। 
 

                                                           
                                          भगवान शिव की उपरोक्त छवि में प्रतीकवाद

भगवान शिव के उपरोक्त चित्र में पहली महत्वपूर्ण बात है उनके आसपास का वातावरण।
वह एक बहुत ही शांत वातावरण में ध्यान मुद्रा में बैठे हैं।
किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने और जीवन में कुछ भी हासिल करने के लिए परिवेश - अर्थात आस पास का माहौल और वातावरण एक अहम भूमिका निभाते हैं।
इसलिए, एक छात्र अथवा साधक को ज्ञान मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त परिवेश और शांत वातावरण खोजने या तैयार करने का प्रयास करना चाहिए।
                       
                                    सर पे बंधी जटाएं
उनकी जटाएं अथवा उलझे हुए बाल उनके सिर के ऊपर एक गाँठ में बंधे हैं।
सिर - बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है - और लहराते बाल बिखरे हुए विचारों और इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
गांठ में बंधी जटाओं का अर्थ है नियंत्रित इच्छाएं और विचार - मन और बुद्धि में सामंजस्य - विचार और ज्ञान में सामंजस्य।
                                                गंगा
पुराणों की कथा के अनुसार, जब गंगा अति वेग से स्वर्ग से नीचे उतरी, तो शिव ने उसे अपनी जटाओं  में पकड़ लिया और फिर धीरे-धीरे उसे पृथ्वी पर छोड़ा।
गंगा ज्ञान का प्रतीक है - सत्य के ज्ञान का - जिसे शिव ने ऊपर से - अर्थात दिव्य प्रेरणा से प्राप्त करके पहले अपने शीश में धारण किया। विश्लेषण और अनुभव के बाद फिर धीरे धीरे संसार में वितरण किया।
                                       
                                        अर्ध चन्द्र
चाँद सुंदरता एवं शांति का प्रतीक है।
चाँद की रौशनी अर्थात चाँदनी शीतलता प्रदान करती है।
भगवान शिव की जटाओं में एक वर्धमान चंद्र शीतलता, शांति, और धैर्य का प्रतीक है।

                                          तीसरी आँख  
मस्तक पर तीसरी आँख - मन की आँख अर्थात ज्ञानचक्षु का प्रतिनिधित्व करती है।
भौतिक आंखों से दिखाई देने वाले संसार से परे वास्तविकता को देखने के लिए हमें मन की आंखें खोलने की ज़रुरत पड़ती है।  
क्योंकि सत्य को भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता 
सत्य को जानने और समझने के लिए तो तीसरा नेत्र अर्थात ज्ञान-चक्षु चाहिए। 
                                             गले में सर्प
सर्प अथवा सांप जहरीला होता है, और दुष्टता एवं बुराई का प्रतिनिधित्व करता है 
संसार में बुराई के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता।
चाहे वह दृश्यमान हो या अदृश्य - नियंत्रित या अनियंत्रित - कुछ हद तक, यह हर किसी के दिलो- दिमाग में मौजूद रहती है।

लेकिन शिव ने सर्प को अपने गले में - अर्थात अपने वश में कर लिया है।
वह गले में लिपटे हुए सर्प के दंश से अछूते और अप्रभावित हैं।  

                                        नीला कंठ 
एक प्रसिद्ध पुराणिक प्रतीकात्मक कथा है:
सागर-मंथन के दौरान अमृत और विष - दोनों निकले।
अर्थात अस्तित्व के महासागर का विश्लेषण करने पर सकारात्मकता और नकारात्मकता दोनों ही प्रकट रुप से दिखाई दीं।
हर कोई अमृत ही चाहता था -
प्रकट रुप में कोई भी विष नहीं चाहता।
लेकिन शिव जानते थे कि नकारात्मकता का विष संसार में हर जगह - हमारे चारों ओर मौजूद है - और इससे पूरी तरह बचना संभव नहीं है।
इसलिए शिव ने इसे निगल लिया - लेकिन उन्होंने इसे अपने गले से नीचे - अपने पेट में नहीं जाने दिया। अर्थात किसी भी तरह से विष को अपने ऊपर प्रभावित नहीं होने दिया।
नील कंठ अथवा नीले गले से पता चलता है कि बेशक बुराई और नकारात्मकता उनके पास आती है - उन्हें प्रभावित करने की कोशिश करती है - लेकिन वे इसे अपने गले से नीचे नहीं जाने देते, और इसलिए वह नकारात्मकता और बुराई से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होते।

                                                   शरीर पर भस्म
भस्म अथवा राख से ढका हुआ शरीर इस बात का प्रतीक है कि शरीर मिट्टी से बना है - 
एक दिन समाप्त हो जाएगा - और राख में ही मिल जाएगा।
शरीर नश्वर है - परिवर्तनशील और नाशवान है -  स्थायी नहीं है।
आत्मा या चेतना ही अनित्य और अविनाशी है।

                                                         त्रिशूल
जब शिव शांत और ध्यान मुद्रा में होते हैं तो उनका त्रिशूल उनके पास धरती में गड़ा हुआ रहता है।
त्रिशूल के तीन शूल तीन गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
त्रिशूल उनके हाथ में नहीं  -  बल्कि उन से दूर रखा हुआ है।
अर्थात वह त्रैगुणातीत हैं  - तीनों गुणों से रहित।

त्रिशूल उनके हाथ में तो नहीं है - लेकिन सुलभ है।
ज़रुरत पड़ने पर वह कभी-कभी इसे धारण कर के बुराई को नष्ट करने के लिए तांडव मुद्रा में इसका उपयोग कर सकते हैं।

                                                          डमरु
प्राचीन समय में भारत के गाँवों में कोई घोषणा करने के लिए डमरु का उपयोग किया जाता था। 
डमरु सूचना और निमंत्रण का प्रतीक है।
शिव के पास डमरु भी ज्ञान का संदेश और निमंत्रण का सूचक है।

                                                          कमंडल
सम्पत्ति के रुप में उनके सामने केवल एक कमंडल है
जो कि संतोष का प्रतीक है।
और इस बात का संदेश देता है कि योगी एवं गुरु की ज़रुरतें बहुत कम होती हैं -
वह फिजूल और बहुत अधिक संग्रह नहीं करते।
उनके मन में कोई लालच नहीं होता।
वह केवल निष्काम भाव से संसार का भला करने का यत्न करते हैं
और कभी भी लालसा और लोभ वश हो कर अपने और अपने परिवार के लिए धन संचय और संपत्ति का निर्माण करने का प्रयास नहीं करते।

शिव - अर्थात अदि गुरु अपनी व्यक्तिगत जीवन शैली के साथ संतुष्टि एवं धैर्य का उदाहरण देते हुए आत्मसंतोष का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इस प्रतीकवाद को समझने से हमें एवं अन्य साधकों को सत्य एवं अध्यात्म के सही मार्ग को समझने और अपनी आध्यात्मिक यात्रा जारी रखने में मदद मिल सकती है।
                   महा शिव-रात्रि की शुभकामनाएं
                                " राजन सचदेव "

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