कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।
परिवार और समाज में रहना मानव स्वभाव का एक अंग है।
हर व्यक्ति अपने जैसी विचारधारा वाले लोगों के साथ मिलने-जुलने और उनके करीब रहने की कोशिश करता है।
परिवार और समाज में रहना मानव स्वभाव का एक अंग है।
हर व्यक्ति अपने जैसी विचारधारा वाले लोगों के साथ मिलने-जुलने और उनके करीब रहने की कोशिश करता है।
हर व्यक्ति के अपने मित्र और रिश्तेदार होते हैं।
हर व्यक्ति अपने मित्रों और संबंधियों का एक दायरा बना लेता है और अपना अधिकाँश समय उन्हीं के साथ बिताना चाहता है।
हर व्यक्ति अपने मित्रों और संबंधियों का एक दायरा बना लेता है और अपना अधिकाँश समय उन्हीं के साथ बिताना चाहता है।
क्योंकि स्वभाव से ही हम सब किसी न किसी समाज, संगठन या समूह के साथ जुड़े रहना चाहते हैं -
एक ऐसे समाज अथवा संगठन के साथ - जहां लोग एक दूसरे को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं -
एक दूसरे को ऊँचा उठने और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में उनकी मदद करते हैं।
लेकिन अगर हम अपने समाज - अपने दायरे के लोगों को देखें और उनसे प्रेरित न हों -
लेकिन अगर हम अपने समाज - अपने दायरे के लोगों को देखें और उनसे प्रेरित न हों -
तो वो एक दायरा नहीं - बल्कि एक पिंजरा है
जिस में हम हमेशा कैदी बने रहेंगे और कभी आगे नहीं बढ़ पाएंगे।
But the human nowadays has caged ones own self and dosent want to free him or herself .
ReplyDeleteContemporary "I-ME-MYSELF" instead of "WE-OUR-OURSELVES' being norm is called 'DYRA' Though in actual sense, it's nothing but cage.
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