आज सुबह के ब्लॉग में जनाब निदा फ़ाज़ली का एक शेर सांझा किया था।
मन बैरागी - तन अनुरागी - क़दम क़दम दुश्वारी है
अभी जब इसे दुबारा पढ़ा - तो ख्याल आया कि कभी कभी इस से उलट भी होता है।
यानी - तन बैरागी - मन अनुरागी
अर्थात बाहर से तो बैरागी - संसार से विरक्त होने का दिखावा होता है
लेकिन मन अनुरागी होता है - हमेशा संसार में ही लिप्त रहता है।
इससे भी जीवन में आनंद नहीं आ पाएगा।
मुँह से तो कहते रहें कि जीवन साधारण और सादगी पूर्ण होना चाहिए - लेकिन मन में शानो-शौक़त और ऐशो-इशरत की कामना बनी रहे - मन हमेशा सांसारिक कामनाओं में ही भटकता रहे -
अगर ज़ाहिर और बातिन - बाहर और अंदर - शब्द और विचार एक से न हों तो भी जीवन में शांति न आ पाएगी।
" राजन सचदेव "
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