वृद्धोयाती गृहीत्वा दण्डं - तदपि न मुंचति आशा पिण्डम
'आदि शंकराचार्य '
अंग सब ढ़ीले - बाल झड़ गए - टूट गए सब दन्त
लाठी बिन चल पाए न 'राजन '- आशा का पर हुआ न अंत
अर्थात:
शरीर के सब अंग गल गए - अर्थात ढीले, कमज़ोर और निष्क्रिय हो गए
सिर के बाल पक गए - और झड़ गए
मुख दंतविहीन - अर्थात सारे दांत टूट गए और मुँह दांतों से ख़ाली हो गया -
बुढ़ापा आ गया - चलने के लिए हाथ में लाठी पकड़ ली - बिना सहारे के चलने में असमर्थ हो गया -
लेकिन तब भी आशा नहीं छूटती -
इतना सब होने के बाद भी इंसान आशा - मन्शा एवं तृष्णा में उलझा रहता है - इन्हें छोड़ नहीं पाता।
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गलित गात्र झाले, टक्कल पडले, दातही झडले सारे।
काठी घेऊनी म्हातारा चाले, परि आशा जात न कारे ॥
Well said 🙏🙏
ReplyDeleteVery true 🙏
ReplyDeleteसंस्कृत मराठी हिन्दी का इस्तेमाल कर बजुरगी का जो चित्रण किया है आपने अत्यंत ही सुन्दर है ������
ReplyDeleteDhan Nirankar.
ReplyDeleteSad but true.🙏🙏🙏