भक्ति हो या शांति - सिर्फ मांगने से ही नहीं मिल जाती।
क्योंकि भक्ति और शांति - कर्म अथवा क्रिया नहीं -
बल्कि फल हैं।
हम देखते हैं कि प्रकृति में बहुत सी चीज़ें उनके स्तोत्र से निकटता होने पर बिना मांगे ही मिल जाती हैं।
जैसे गर्मी या ठंडक मांगने से नहीं मिलतीं।
लेकिन अग्नि के पास जाने पर गरमाहट - बर्फ के निकट जाने पर शीतलता - और फूलों के निकट बैठने पर सुगंधि -
बिना मांगे - स्वयंमेव ही मिल जाती हैं।
इसी तरह परमात्मा के निकट रहने से भक्ति एवं शांति स्वयं ही मिल जाती हैं।
मांगने की ज़रुरत नहीं पड़ती।
केवल प्रभु से निकटता बनाने की ज़रुरत है।
जैसे अमीर लोग गर्मियों में गर्मी से बचने के लिए मंसूरी और शिमला जैसे ठंडे पर्वतीय शहरों में चले जाते हैं।
जैसे सर्दियों में सुदूर उत्तर (North ) में रहने वाले पक्षी और हिरण इत्यादि भीष्ण सर्दी से बचने के लिए दक्षिण (South) के गर्म इलाकों में पलायन कर जाते हैं।
जैसे दुर्गंध को मिटाने के लिए धूप -अगरबत्ती जलाई जाती है, और एयर फ्रेशनर (Air-freshener) इत्यादि का छिड़काव किया जाता है -
और शोर शराबे से बचने के लिए हम किसी एकांत स्थान पर चले जाते हैं।
अर्थात जो हम चाहते हैं उसके स्तोत्र के पास जाने का प्रयास करते हैं।
गर्मी हो या शीतलता - सुगन्धि हो या नीरवता -- उनके स्तोत्र के पास जाते ही ये सब चीज़ें अपने आप ही मिलने लगती हैं।
इसी तरह परमात्मा के निकट रहने से भक्ति और शांति इत्यादि भी स्वयंमेव ही - अपने आप ही मिल जाती हैं।
मांगने की नहीं - बल्कि परमात्मा से निकटता बनाने की ज़रुरत है।
' राजन सचदेव '
Dhan nirankar ji 🙏
ReplyDeleteWah ji Wah uncle ji
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