Thursday, September 30, 2021

जीवन एक यात्रा है

आज सुबह कुछ पुरानी जम्मू की घटनाएं याद आ गईं जब मैं प्रचार के सिलसिले में काफी यात्रा किया करता था। 
उन दिनों भारत में यात्रा के साधन और अनुभव आज से काफी अलग थे।
ट्रेनें और बसें काफी असुविधाजनक थीं और उनमें आमतौर पर बहुत भीड़ होती थी।
मैं अक्सर रेलगाड़ी में एक general कंपार्टमेंट में यात्रा करता था - बिना आरक्षण के - जहाँ आमने सामने की बर्थ पर दस से पंद्रह लोग एक-दूसरे के सामने बैठे होते थे।
लंबी यात्राओं के दौरान अक़्सर लोग आपस में बातचीत करने लगते थे। 
कभी-कभी कुछ ऐसे लोगों से मिलना हो जाता था जो एक लंबे समय तक दोस्त बन जाते 
और कभी कुछ लोगों के साथ इतना अच्छा अनुभव नहीं होता था।
अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचने पर, बहुत से लोग ट्रेन से उतर जाते।
हर स्टेशन पर 20 - 30 या कभी कभी 100 लोग उतरते चढ़ते होंगे लेकिन किसी को भी किसी की याद नहीं रहती। 
न ही किसी के उतरने से किसी को कोई फ़र्क़ पड़ता होगा।

लेकिन दो तरह के लोग सबको याद रहते हैं -
एक अच्छे और एक बुरे।
जिन लोगों का बर्ताव अच्छा न हो  - जो अशिष्ट - असभ्य, रुखे और असहयोगी हों - उनके जाने पर सब को राहत सी महसूस होती -
लेकिन ऐसे लोग जो नेक और दयालु - मित्रतापूर्ण एवं मददगार होते हैं वो हमेशा याद रहते हैं और इच्छा होती है कि वो कुछ देर और साथ रहते तो अच्छा था।

जीवन भी एक यात्रा ही है।

हमारे जीवन में कई सुखद और अविस्मरणीय घड़ियां आती हैं और कभी-कभी ऐसी घटनाओं का सामना भी होता है जो इतनी सुखद नहीं होती - कुछ भाग-दौड़ वाली और कुछ दम घुटने वाली - दुखद।

जीवन नामक इस यात्रा के दौरान हम कई लोगों से मिलते हैं 
कुछ अच्छे - और कुछ जो ज़्यादा अच्छे नहीं।
अपने जीवन में सैकड़ों - हजारों लोगों को आते और चले जाते देखते हैं - लेकिन उनमें से कोई भी हमें याद नहीं रहते।

लेकिन ऐसे लोग हमेशा याद रहते हैं जिनके साथ हमारे कुछ अच्छे या बुरे अनुभव हुए हों।
एक तरफ - जिन्हें हम अपने विरोधी या द्वेषी मानते हैं, उन लोगों के जाने से शायद कुछ राहत सी महसूस हो - वहीं जब कुछ अच्छे - नेक और दयालु लोग चले जाते हैं तो हमें बहुत दुःख होता है - खासकर वे, जिनके साथ हमारा काफी करीबी नाता रहा हो।
और ऐसे प्रियजन तो बहुत ही याद आते हैं जो हमारे जीवन में एक रिक्तता - एक ख़ालीपन छोड़ जाते हैं।

लेकिन, कभी कभी एक अजीब सा सवाल मन में उठता है जिसका कोई उत्तर नहीं मिल पाता -
कि वो सह-यात्री - जो हमें हमारी जीवन यात्रा के बीच में छोड़ कर चले जाते हैं, क्या वे भी संसार से प्रस्थान करने के बाद हमें याद करते होंगे?
                                                         ' राजन सचदेव '

                           (इंग्लिश से हिंदी रुपांतरण -  विश्वास शिंदे - मुंबई)

DNA makes us what we are

DNA makes us what we are.
Our thinking, learning, and circumstances make us who we are.

What we are, never changes -
Who we are … never stops changing.

Environment and circumstances have a great influence on our thinking.
Favorable conditions make us happy and optimistic
while unfavorable conditions tend to make us sad, depressed, and even angry. 
Most of the time, 'positive or negative thinking' depends mainly on the circumstances.

However, a Gyani or the enlightened person chooses to reverse this course.
Instead of letting the circumstances influence his thinking, he tries to change the circumstances with his thoughts and Karma.
As an ancient sage and Guru Ashtavakra said -
                       "Ya mati, Sa gatirbhavait " 
 As we think, So we become - (or so it happens) 
                         (Ashtavkra Gita 1:11)

With Gyana and Vichar - knowledge, logic, and reasoning, a Gyani does not let the circumstances influence his mind. He sticks to his Gyan and principles and acts accordingly.  
                                           ' Rajan Sachdeva '

किंवदन्तीह स्त्येयम, या मति: सा गतिर्भवेत 
                               (अष्टावक्र गीता १:११ )

अपनी कमियों पे भी - Keep an eye on your ....

एक नज़र अपनी कमियों पे भी रखा करो
हमेशा सामने वाला ही ग़लत नहीं होता

Keep an eye on your own shortcomings too.
Every time, it's not the others who are wrong.

Wednesday, September 29, 2021

नव-रस

प्राचीन संस्कृत साहित्य में नौ प्रकार की मानवीय भावनाओं (Emotions) का उल्लेख मिलता है - जिन्हें नव-रस कहा जाता है।

यही अवधारणा प्राचीन संगीत शास्त्रों, भारतीय शास्त्रीय संगीत साहित्य में भी पाई जाती है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत का अध्ययन करते हुए, मैंने इस विषय पर एक प्रामाणिक श्लोक पढ़ा और फिर इसे कई वर्षों तक पढ़ाया भी - जो इन नव-रस अर्थात नौ भावनाओं अथवा संवेदनाओं - Emotions और Feelings की व्याख्या करता है।

                    श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक: 
                    वीभत्स-ओ-अद्भुत इति अष्टो रस शान्तस्तथामतः


अर्थात - प्रेम, हास्य, करुणा, आतंक, साहस, भय, घिनौना या घृणास्पद और आश्चर्य 
- ये आठ रस (भावनाएं) हैं, और फिर - शांति भी है।"
                                        ~~~~~~~~~~~~~~
एक दिन, फिर से इस श्लोक पर विचार करते हुए, मुझे इस श्लोक का एक बिल्कुल अलग ही अर्थ दिखाई दिया। 
मुझे आश्चर्य हुआ कि लेखक ने ऐसा क्यों कहा कि "ये आठ रस हैं, और फिर शांत रस भी है?

पहले हम हमेशा यही अर्थ करते रहे थे कि आठ रस और शांत रस मिल कर नौ हो जाते हैं । 

लेकिन फिर मन में एक सवाल उठा कि लेखक ने इसे पहले ही शामिल क्यों नहीं किया? 
सीधा ही कह देते : "इति नव रस" - कि ये नौ रस हैं?

क्या यह किसी काव्यात्मक कारण से था - श्लोक को - कविता को एक सुंदर रुप देने के लिए ? 
या इसके पीछे कोई और गहरा, छिपा हुआ अर्थ भी है?

हो सकता है कि लेखक यह कहने का प्रयास कर रहा हो कि उपरोक्त आठ भावनाएँ हैं जिन्हें बाहरी प्रभाव से अनुभव किया जा सकता है - लेकिन शांत रस ऐसा नहीं है - इन से अलग है - इसलिए इसे आठों से अलग रख दिया।

हम शांति खोजते रहते हैं - बाहर से शांति ढूंढने की कोशिश करते हैं। 
क्योंकि हम इसे भी अन्य भावनाओं के समान समझते हैं - 
कि इसे भी बाहरी प्रभाव से प्राप्त किया जा सकता है।
जबकि वास्तव में, यह अन्य सभी भावनाओं की अनुपस्थिति है।
 
शांति खोजने की कोशिश करने के बजाय - हमें दूसरी भावनाओं को समाप्त अथवा कम करने की कोशिश करनी चाहिए।
क्योंकि - एक शांत और विचारहीन मन हमेशा शांत ही रहता है।
                                          ' राजन सचदेव '

Nav Ras - The Nine Human Emotions

In ancient Sanskrit literature, there is a mention of nine types of human emotions - called Nav-Rasa.


The same concept is found in the ancient Sangeet Shastras, the Indian classical music literature. 

While studying Indian classical music, I read an authentic Shloka on this topic and then taught it also for many years, which explains these Nav-Rasa - the nine emotions.


    “Shringaar, Haasya, Karuna, Raudra, Veer, Bhyaankah

     Veebhats-o-Adbhut Iti Ashto Rasa ShaantsTathaamatah”


“Passion, happiness, sympathy, Courage, Terror, Fear,

disgust, and confusion - these are the eight Rasas (emotions), and then there is also the peace.”


One day, however, it caught my eye again - and while pondering over it, I found a whole different meaning of this shloka.

I wondered why the author said, “these are the eight Rasas, and then there is peace also.”


Initially, we always thought that eight plus the Shaant Ras makes it nine. But then a question comes to mind - why the author did not include it in the first place and said: “iti Nava Rasa” - that these are the nine Rasas?

Was it for some poetical reason - or is there another deeper, hidden meaning behind it? 


Perhaps the writer was trying to say that the above are the eight emotions that can be experienced with the outside influence- and the Shaant Rasa or Peace is not the same. 


We are always trying to find Shaanti - the peace from the outside. We think of it as similar to the other emotions - that it can also be created from outside influence. 


While in fact, it is nothing but the absence of all other emotions. 

Instead of trying to find peace - perhaps we should try to eliminate the others.

Because - a still and thoughtless mind is always at peace.

                                         ‘Rajan Sachdeva’

माना - कि जितना औरों को मिला - Maana ki jitnaa auron ko milaa

माना - कि जितना औरों को मिला मैंने कभी पाया नहीं 
पर खुश हूँ कि ख़ुद को गिरा के कभी कुछ उठाया नहीं

Maana ki jitnaa auron ko milaa - mainay kabhi paaya nahin
Par khush hoon ki khud ko giraa kay kabhi kuchh uthaaya nahin

Tuesday, September 28, 2021

Don't try to become a man of success

Don't try to become a man of success, 
Rather 
Try to become a man of value.
                                - Albert Einstein -

सफल व्यक्ति नहीं - 
बल्कि नीतिवान,नेक एवं मूल्यवान बनने का प्रयास करें

My well-wishers asked me - how old are you?

Many of my well-wishers have asked me - 
how old are you?

I laugh at the question -
and tell them it is hard to answer.

Because when I play with a little child, 
I am one year old.
When I watch cartoons - I am three.

When I dance to the tune of music, 
I am a sweet sixteen.

When I try to heal someone's wounds -
I am sure I have crossed six decades of my life span.

And when I chat with sparrows or bulbuls,
Or run after my dog and his ball -
I become their age.
                    ~~~
Anyway, what is there in age?
Isn't it just a number only?

Like the light of the sun
And the flowing river waters
I am ageless.
I keep changing with time and my experience.

Days are marching towards night -
No doubt 
Whenever it extends its hand -
I shall hold it.

Till then, 
it’s not my age that matters -
How fully have I lived thus far -
That is the consideration
                                 (Writer unknown)

Monday, September 27, 2021

Sat-Sangatvay Nis-Sangatvam - The ultimate goal of doing Satsang

In his famous, beautiful poetical composition known as 'Bhaj-Govindam' - Aadi Shankaracharya talks about the purpose of life - human nature - and how to achieve the ultimate universal Truth - regardless of time and place.

In one of the later verses, he says:
          सत्संगत्वे नि:संगत्वं, नि:संगत्वे निर्मोहत्वम् ॥
         निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं, निश्चलतत्वे जीवन मुक्तिः ||

        "Sat-Sangatvay Nis-Sangatvam
          Nis-Sangatvay Nir-Mohatvam
          Nir-Mohatvay Nischal-Tatvaam
          Nischal-Tatvay Jeevan Muktih"

Keeping the company of Saints - noble and righteous people results in being free from the company (of five Vikaaras). Free from the company or association with vices and delusions, excessive worldly desires, greed, ego, etc. - and the person tries to spend more time with the Self.

The state of being 'Nis-Sangatavam' - free of all company can also be translated as the Thoughtless state of mind - known as freedom from the mind.

This state of being Nis-Sangatavam gradually results in being free from the 'Moha' or attachment. Free from attachment with ignorance - beliefs, assumptions, and dogmas. 
Therefore not getting confused or perplexed - and going away from the desired destination of achieving the Truth.

This state of mind - being free from the attachments - further results in perceiving and having union with the 'Unchangeable Truth' - the one and the only Reality.

Apprehending and establishing the Self in the Unchangeable Truth ultimately results in achieving the Jeevan-Mukti - Liberation while living in the world and from the repetitive cycle of birth and death.

As long as we are attached to something - a person or a  personality - a dogma, place, or situation - we are bound, confined, and imprisoned. And cannot be called as Jeevan-Mukta.

Being free from all kinds of binding is called Jeevan-Mukti - the Living-Salvation - the True Liberation.
                     ' Rajan Sachdeva '

Word by word meanings:

Sat -- Truth
Sangatwam -- Keeping the company of
Nis-Sangatvam -- Not having any company
Nis-Sangatvay -- By not having any company
Nir-Mohatvam -- Free of attachments
Nir-Mohatvay  -   Being free of attachments
Nischal -- Unchangeable
Tatvam -- Reality, The Truth.
Nischal-Tatvay - Being established in Unchangeable Reality
Jeevan -- Life
Mukti -- Salvation, Liberation.
Jeevan-Mukti -- Living Salvation or Liberation

Sunday, September 26, 2021

There will always be sunshine

Whatever your cross - Whatever your pain
There will always be sunshine
After the rain

Bhakti - Devotion and Peace are not attained by asking

Whether it's Bhakti or Shanti - Devotion or Peace - 
it can not be attained by merely asking.

Because devotion and peace are not actions or Kriya - they are fruits - the outcomes.

We see that many things in nature are available just by being in the proximity of their source - without asking.

We can't get heat or cold merely by asking for them -
but, when we go near the fire, we get the warmth.
When we go near the snow, we get the coolness.
And when we sit near the flowers - the fragrance is received automatically - without asking.

Similarly, by staying close to God, devotion and peace are attained by themselves.
There is no need to ask.
All that is needed is to make closeness to the Lord.

For example, rich people go to cool hill stations such as Mussoorie and Shimla to escape the summer heat.
To escape the severe winter- birds, and deers living in the far north migrate to the warm areas of the south.
Like incense sticks are lit, and air fresheners are sprayed to remove the nasty, unpleasant smell - 
and to avoid the noise, we go to some calm, isolated place.
In other words, we try to find and go to the source of what we want.

Whether it is heat or coolness - silence or fragrance - all these things start coming to us automatically as soon as we approach their source.

Similarly, devotion and peace are automatically obtained by staying close to God - in the proximity of Almighty.
There is no need to ask - 
just build closeness to the source of everything.
                                                     ' Rajan Sachdev '

भक्ति या शांति सिर्फ मांगने से नहीं मिलती

भक्ति हो या शांति - सिर्फ मांगने से ही नहीं मिल जाती। 
क्योंकि भक्ति और शांति - कर्म अथवा क्रिया नहीं - 
बल्कि फल हैं। 

हम देखते हैं कि प्रकृति में बहुत सी चीज़ें उनके स्तोत्र से निकटता होने पर बिना मांगे ही मिल जाती हैं। 
जैसे गर्मी या ठंडक मांगने से नहीं मिलतीं। 
लेकिन अग्नि के पास जाने पर गरमाहट - बर्फ के निकट जाने पर शीतलता - और फूलों  के निकट बैठने पर सुगंधि -
बिना मांगे - स्वयंमेव ही मिल जाती हैं।  
 
इसी तरह परमात्मा के निकट रहने से भक्ति एवं शांति स्वयं ही मिल जाती हैं।  
मांगने की ज़रुरत नहीं पड़ती। 
केवल प्रभु से निकटता बनाने की ज़रुरत है। 

जैसे अमीर लोग गर्मियों में गर्मी से बचने के लिए मंसूरी और शिमला जैसे ठंडे पर्वतीय शहरों में चले जाते हैं।  
जैसे सर्दियों में सुदूर उत्तर (North ) में रहने वाले पक्षी और हिरण इत्यादि भीष्ण सर्दी से बचने के लिए दक्षिण (South) के गर्म इलाकों में पलायन कर जाते हैं।  
जैसे दुर्गंध को मिटाने के लिए धूप -अगरबत्ती जलाई जाती है, और एयर फ्रेशनर (Air-freshener) इत्यादि का छिड़काव किया जाता है - 
और शोर शराबे से बचने के लिए हम किसी एकांत स्थान पर चले जाते हैं। 
अर्थात जो हम चाहते हैं उसके स्तोत्र के पास जाने का प्रयास करते हैं।
गर्मी हो या शीतलता - सुगन्धि हो या नीरवता -- उनके स्तोत्र के पास जाते ही ये सब चीज़ें अपने आप ही मिलने लगती हैं। 

इसी तरह परमात्मा के निकट रहने से भक्ति और शांति इत्यादि भी स्वयंमेव ही - अपने आप ही मिल जाती हैं। 
मांगने की नहीं - बल्कि परमात्मा से निकटता बनाने की ज़रुरत है। 
                                                        ' राजन सचदेव '

Saturday, September 25, 2021

Do what makes you happy

 

image source: unknown

Where the heart is willing अगर कुछ करना चाहें

Where the heart is willing, 
it will find a thousand ways

Where it is unwilling - 
it will find a thousand excuses

कुछ करना चाहें 
तो सैंकड़ों विकल्प मिल सकते हैं

न करना चाहें 
तो हज़ार बहाने बनाए जा सकते हैं 

Friday, September 24, 2021

The Journey of Life

This morning, a few reflections from the past flashed in my mind -
from the days when I used to travel quite a bit in India.

Traveling modes and experiences were quite different in those days.
Trains and buses were very uncomfortable and usually overcrowded.
My tours in trains were always in general compartments - without reservation - where ten to fifteen people would be sitting on two berths facing each other. 
During long journeys, people would engage in conversations. Sometimes we would meet some wonderful people who would become long-term friends. And sometimes the experience with some people was not so good.

On their arrival at their destination, many people would get off the train. You would probably see 20-30 or even a hundred people getting off at every station. But you would not remember any of them or care about them.

However, you will remember two kinds of people - the good ones and the bad ones. 
Those who were not so good to you - who were unfriendly and non-cooperative would give you a sense of relief when they left. 
But you would miss those who were kind - friendly, and helpful. 
You would wish they had stayed longer.

Life is also a similar kind of journey.

There are many pleasant and unforgettable moments in our lives. 
And sometimes we encounter events, which are not so comfortable - crowded and suffocating.

We meet so many people during this journey called life - some good ones and some not so good ones.
We see hundreds of thousands of people around who come and go - but we don't remember any of them.

However, we always remember those with whom we had some good or bad experiences.
We might feel a sense of relief at the departure of those whom we might consider our opponents and adversaries.
And we feel a huge loss when some good and kind people leave - especially those with whom we had close contacts. We intensely miss the departure of our loved ones, who leave a void in our life.

However, a million-dollar question remains unanswered.
Do the co-travelers - who leave us in the middle of our journey also remember and miss us after departing at their destination?
                                                  ' Rajan Sachdeva '

Thursday, September 23, 2021

Thanks to all for the well-wishes and blessings

Since this morning - I have been getting many messages containing happy birthday greetings, well-wishes, and prayers, from dozens of my students and many other well-wishers. 

I thought I would thank everyone through this blog collectively.


On the one hand, a feeling of happiness - along with thanks and gratitude for everyone arises in my mind.

And at the same time, the idea also comes to my mind that all of us often celebrate an event that happened so many years ago - but we hardly think about or pay any attention to an equally important event of the future.


As I wrote in yesterday's blog - ​It's better to look ahead and prepare than to look back.


I also remembered this verse written by Sahir Ludhyanvi:

Mai pal do pal ka shaayar hoon - Pal do pal meri kahaani hai
Pal do pal meri hasti hai - Pal do pal meri jawaani hai 

Mujh say pehlay kitnay shaayar aaye aur aa kar chalay gaye
Kuchh aahen bhar kar laut gaye kuchh nagmay gaa kar chalay gaye

Vo bhee ik pal ka kissaa thay main bhee ik pal ka kissaa hoon 

Kal tum say judaa ho jaoongaa - go aaj tumharaa hissaa hoon          

                  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~



But then - another thought comes to mind.


Each person leaves his mark - his thoughts, ideology, and Sanskar in his children and loved ones by natural process.

Whether they want it or not - knowingly or unknowingly - some thoughts, views, ideas, and principles of the previous generation continue in the new generation.


We will be gone one day, but our thoughts and values ​​will survive through our children and loved ones - through our supporters and followers.

Our ideas, beliefs, and principles will live on in them even after we are gone.


       Ik phool mein tera roop basaa - ik phool mein meri jawaani hai 

       Ik chehraa teri nishaani hai, ik cheharaa meri nishaani hai 

      Mai har ik pal ka shaayar hoon, har ik pal meri kahaani hai 
      Har ik pal meri hasti hai, har ik pal meri javaani hai 

                  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~


               For the Blog readers and other well-wishers


I am glad that I was able to pass on some of my thoughts to others - 

and I am grateful to all those who graciously welcomed my views and helped to improve them.


Just as Sahir Sahib said:


Pal do pal main kuchh keh paaya itni hee sa'aadat kaafi hai 

Pal do pal tum nay mujh ko suna itni hee inaayat kaafi hai 

Kal aur aayengay nagmon kee khilti kaliyaan chunanay waalay 
Mujh say behtar kehnay waalay, tum say behtar sunanay waalay

Har nasal ik fasal hai dharti kee aaj ugati hai kal katati hai 
Jeevan vo mehangi madiraa hai jo qataraa qataraa batatee hai 

Saagar say ubhari lehar hoon mai saagar mein phir kho jaoonga
Mittee kee rooh ka paseenaa hoon phir mittee mein so jaoonga 

Kal koyi mujh ko yaad karay - kyon koyi mujh ko yaad karay
Masroof zamaana meray liye kyon vaqt apnaa barbaad karay

    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

Rishton ka roop badaltaa hai, buniyaaden khatm nahin hoteen
Khwaabon aur umangon kee miyaaden khatm nahin hoteen 

Ik phool mein tera roop basaa - ik phool mein meri jawaani hai 
Ik chehraa teri nishaani hai, ik cheharaa meri nishaani hai 

Tujh ko mujh ko jeevan amrit ab in haathon say peena hai 
In kee dhadakan mein basnaa hai, in kee saanson mein jeena hai 

Tu apni adaayen bakhsh inhen, main apni vafaayen detaa hoon 
Jo apnay liye sochee thin kabhee, vo saari duaayen deta hoon 

 "Mai har ik pal ka shaayar hoon, har ik pal meri kahaani hai 
Har ik pal meri hasti hai, har ik pal meri javaani hai 

                           (Nazm by Sahir Ludhyanvi)

शुभकामनाओं और आशीर्वचनों के लिए धन्यवाद

आज सुबह से ही जन्मदिन के उपलक्ष्य में दर्जनों Students और शुभचिंतकों के  शुभकामनाओं, अभिनन्दन एवं दुआओं से भरे कल्याणमयी संदेश मिल रहे हैं।  
सोचा कि इस ब्लॉग के ज़रिये से ही सब का धन्यवाद कर लूँ। 

जहाँ एक तरफ मन में प्रसन्नता और सब के लिए धन्यवाद, आभार और कृतज्ञता का भाव उठता है - वहीं  दूसरी तरफ मन में  यह विचार भी आता है कि हम लोग अक़्सर इतने वर्ष पुरानी एक घटना को याद करके खुश होते हैं और उसे बड़ी धूमधाम से मनाते हैं लेकिन भविष्य की  एक उतनी ही महत्वपूर्ण घटना की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता। 

जैसा कि कल के ब्लॉग में लिखा था - अब पीछे की बजाए आगे देखना और उसके लिए तैयारी करना ही बेहतर है। 
और साहिर लुध्यानवी साहिब की यह नज़्म भी याद आती है :

             मैं पल दो पल का शायर हूँ पल दो पल मेरी कहानी है
             पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है 

            मुझसे पहले कितने शायर आए और आ कर चले गए
           कुछ आहेँ भर कर लौट गए कुछ नग़मे गा कर चले गए

          वो भी इक पल का किस्सा थे मैं भी इक पल का किस्सा हूँ
          कल तुम से जुदा हो जाऊँगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ
                  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~

मगर फिर ख़्याल आता है कि  
हर शख़्स अपनी निशानी, अपने संस्कार - अपनी संतान - अपने बच्चों में छोड़ जाता है। अगली नस्ल बेशक़ चाहे या न चाहे - पुरानी नस्ल के कुछ न कुछ कुछ विचार और संस्कार जाने या अनजाने में नई नस्ल में भी रह जाते हैं।  

हम तो एक दिन चले जाएंगे लेकिन हमारे विचार एवं संस्कार हमारे बच्चों और हमारे चाहने और मानने वालों में ज़िंदा रहेंगे। 
हमारे जाने के बाद भी हमारे विचार उनमें ज़िंदा रहेंगे। 

     इक फूल में तेरा रुप बसा, इक फूल में मेरी जवानी है
      इक चेहरा तेरी निशानी है, इक चेहरा मेरी निशानी है

    मैं हर इक पल का शायर हूँ हर इक पल मेरी कहानी है
    हर इक पल मेरी हस्ती है हर इक पल मेरी जवानी है
                  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~

                      ब्लॉग पढ़ने वाले औरअन्य शुभचनितकों के लिए 

मुझे खुशी है कि मैं अपने कुछ विचार दूसरों तक पहुंचाने में सक्षम रहा -
और मैं उन सभी का आभारी हूं जिन्होंने मेरे विचारों का स्वागत किया और उन्हें सुधारने में मदद की।
साहिर साहिब के शब्दों में :

पल दो पल मैं कुछ कह पाया इतनी ही सआदत काफी है
पल दो पल तुमने मुझको सुना इतनी ही इनायत काफी है

कल और आएँगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले तुम से बेहतर सुनने वाले

हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की आज उगती है कल कटती है
जीवन वो महंगी मदिरा है जो क़तरा क़तरा बटती है

सागर से उभरी लहर हूँ मै सागर में फिर खो जाऊँगा
मिट्टी की रुह का पसीना हूँ फिर मिट्टी में सो जाऊँगा

कल कोई मुझको याद करे क्यों कोई मुझको याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बरबाद करे

                  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~


इक फूल में तेरा रुप बसा, इक फूल में मेरी जवानी है
इक चेहरा तेरी निशानी है, इक चेहरा मेरी निशानी है

तुझको मुझको जीवन अमृत अब इन हाथों से पीना है
इनकी धड़कन में बसना है, इनकी साँसों में जीना है

तू अपनी अदाएं बख़श इन्हें, मैं अपनी वफ़ाएं देता हूँ
जो अपने लिए सोचीं थी कभी, वो सारी दुआएं देता हूँ

मैं हर इक पल का शायर हूँ हर इक पल मेरी कहानी है
हर इक पल मेरी हस्ती है हर इक पल मेरी जवानी है

Wednesday, September 22, 2021

​It's better to look ahead आगे देखना बेहतर है

​It's better to look ahead and prepare
than to look back and regret

पीछे मुड़कर देखने और पछताने के बजाय
आगे देखना और उसके लिए  तैयारी करना बेहतर है


सुमधुर आठवण - शहनशाह बाबा अवतार सिंह जी

बाबा अवतार सिंह जी - ज्यांना सर्वजण प्रेमाने आणि आदराने शहनशहाजी म्हणून संबोधत - 17 सप्टेंबर 1969 च्या दिवशी, आपल्या नश्वर देहाचा त्याग करून निराकार स्वरूपात विलीन झाले.

जेव्हा मला ही बातमी मिळाली तेव्हा मी हरियाणातील कैथल येथे होतो - जिथे नुकतीच एक शिक्षक म्हणून माझी पहिली नोकरी सुरू केली होती.
बातमी मिळताच कैथलचे प्रमुख महात्मा श्री दलीपसिंह जी आणि त्यांच्या कुटुंबासह आम्ही काहीजण दिल्लीला जायला निघालो आणि रात्री संत निरंकारी कॉलनीला पोहोचलो.
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मला लहानपणापासूनच हिंदू धर्मग्रंथांमध्ये खूप रस होता आणि सत्याचा शोध घेण्याची तीव्र जिज्ञासा देखील होती. जेव्हा मी तेरा वर्षांचा होतो, तेव्हा मला हायस्कूलमधील एका मित्राद्वारे बाबा अवतार सिंहजी यांच्या संपर्कात येण्याचे सौभाग्य प्राप्त झाले.

त्यांनी स्वतः मला ब्रह्मज्ञान दिले आणि माझ्या मनावर त्यांचा कायमचा ठसा उमटला. माझ्या मनात नेहमीच त्यांच्याबद्दल प्रेम, आदर आणि श्रद्धेची भावना राहिली आणि आजही आहे. मी स्वतःला खूप भाग्यवान समजतो की मला त्यांचे प्रेम आणि आशीर्वाद वैयक्तिकरित्या अनेक वेळा मिळाले आहेत.
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त्या दिवशी निरंकारी भवनात जेव्हा मी त्यांचे निश्चल शरीर पाहिले आणि माझ्या डोळ्यातून अश्रू घळाघळा वाहू लागले.
ग्यानी जोगिंदर सिंहजी माझ्या शेजारीच उभे होते.
माझे अश्रूयुक्त डोळे पाहून ते म्हणाले -
"राजन जी! तुम्ही एक ब्रह्मज्ञानी आहात - तुम्हाला तर माहीतच आहे की हे फक्त शरीर आहे आणि शरीर कोणाचेही असले तरी ते नाशिवंतच असते.

शहनशाह जी आपल्यासोबतच आहेत. त्यांचे विचार लक्षात आहेत ना? ते अनेकदा म्हणायचे की "शरीर म्हणजे गुरु नाही, गुरु म्हणजे ज्ञान आहे जे शरीरापलिकडे आहे. शरीरे येत जात राहतात - रूप बदलत राहतात, म्हणून फक्त सर्वशक्तिमान निराकाराचे ध्यान करा. आपले लक्ष फक्त ज्ञानावर केंद्रित करा - माझ्या नश्वर शरीरावर नाही"!
ग्यानीजी पुढे म्हणाले की "शहनशाहजींनी आपल्याला जे शिकवले आणि समजावले ते आपण कायम लक्षात ठेवले पाहिजे. आपण निरंकारी आहोत - निराकाराचे उपासक आहोत - म्हणून आपण गुरूंच्या शरीराबरोबर आसक्ती न ठेवता त्यांनी दिलेल्या शिकवणीचे पालन केले पाहिजे."

ग्यानीजींच्या शब्दांनी माझ्या मनाला धीर आला आणि शहनशाहजींनी निरंकाराप्रती शिकवलेला दृष्टीकोन अजूनच दृढ झाला.

परंतु तरीदेखील - आजही शहनशाहजींचा दिव्य आणि तेजस्वी चेहरा नेहमी डोळ्यांसमोर येतो, त्यांचे प्रेम आणि त्यांची शिकवण मी कधीही विसरु शकत नाही.
ते नेहमीच माझ्या हृदयात आहेत आणि नेहमी राहतील.
                                                ' राजन सचदेव '



Mantra - How it works

Mantra is a Sanskrit word.
It is a combination of two words - Man and Tra.

Man means mind - and Tra means to overcome - subdue, control, tame, or discipline.
So the Mantra, by definition, is by which one can control and train the mind.
According to Sages and Holy Scriptures, Sumiran - repeating a Mantra or a phrase over and over is the best way to tame the mind.

It's a known fact that the mind cannot do two things at the same time.
Although, we can train our body and the senses to do certain things with auto-memory by practicing it.
We do not have to pay much attention to perform many routine actions - such as cooking, cleaning, driving or jogging, etc. Our mind could be thinking of hundred other things while doing these habitual things that we are so used to doing every day. 
Once we have perfected it, some professional works - like weaving, sewing, farming, or operating small harmless machines, etc. can be done automatically - without much guidance from the mind.
We can listen to music, talk to friends over the phone, or think about other things, and yet, our body can keep working almost like a machine.

But the mental work - like serious mathematical calculations and accounting - solving an intricate problem or a puzzle, performing a complex musical composition in an orchestra - requires undivided concentration on the task at hand. One distraction or even a single unrelated thought for a second can become the cause of a big mistake.
Because the mind cannot be in two places.

And this is precisely how the Mantra works.

If we concentrate on a Mantra, the mind cannot wander around.
If it does, then it means the mind is not on the Mantra or the Sumiran.
Because it can only be in one place

We can train our tongue to keep repeating the Mantra while the mind is wandering somewhere else.
But that will defy the whole purpose of the Mantra or Sumiran - which is to control the mind - not to train the senses*.

Although we should try to focus on the name of Nirankar, Almighty God - while doing the daily routine work. 
But practically, doing Sumiran 24/7 with total concentration is not possible. Especially while doing some serious mental work.

Therefore, we should set aside or find some time for the concentrated Sumiran - by focusing only on Nirankar**.
                                              ‘Rajan Sachdeva’

*Maala to kar me phiray - Jeebh phiray mukh maanhi
Manuaa to deha dis phiray - yeh to Sumiran naahin      
                                    (Sant Guru Kabeer ji)

**Hari ka naam japahu sant meet
Saavdhaan ekaagra cheet 
                             (Gurbani)
                                      

Tuesday, September 21, 2021

सच्चे लोग तारीफ़ के मोहताज़ नहीं होते Genuine people do not depend on applause

सच्चे लोग कभी तारीफ़ के मोहताज़ नहीं होते
जंगल में भी 'राजन फूल खुशबु ही लुटाते हैं

Sachay log kabhi taareef kay mohtaaz nahin hotay
Jungle mein bhee 'Rajan' phool khushbu hee lutaatay hain
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Genuine people do not depend on applause and praise.

Even in the wilderness, flowers keep on spreading their fragrance.

                  

Sometimes you sense something

Sometimes you sense something
It’s not a thought
It’s not a feeling
It’s not even an instinct
You just cannot find the right words to describe it
But you know it’s there inside you

Just be with it and flow with it
And let it remain till it’s ready to show itself

And maybe one day you will know what it is
And it will become clear to you 

And then you might be able to put it in words
And share it with everyone in this world
                  By: Ram Nagrani ji (USA)

ਮਾ ਕੁਰੂ ਧੰਨਜਨਯੋਵਨ ਗਰਵਮ੍ (ਧਨ, ਜਵਾਨੀ ਅਤੇ ਸ਼ਕਤੀ ਦਾ ਮਾਣ ਨਾ ਕਰੋ)

ਮਾ ਕੁਰੂ ਧੰਨਜਨਯੋਵਨ ਗਰਵਮ੍  - ਹਰਤਿ ਨਿਮੇਸ਼ਾਤਕਾਲ੍ਹ ਸਰਵਮ੍
ਮਾਯਾਮਯਮਿਦਮ ਅਖਿਲਮ ਬੁੱਧਵਾ - ਬ੍ਰਹ੍ਮਪਦਂ ਤ੍ਵਮ੍ ਪ੍ਰਵਿਸ਼ ਵਿਦਿਤਵਾ ॥ ११॥
                                                 (ਆਦਿ ਸ਼ੰਕਰਾਚਾਰੀਆ -- ਭਜ ਗੋਵਿੰਦਮ - 11)

ਧਨ, ਜਵਾਨੀ ਅਤੇ ਸਮਾਜਕ ਸ਼ਕਤੀ ਦਾ - ਯਾਨੀ  ਦੋਸਤਾਂ, ਯਾਂਰਾ, ਪੈਰੋਕਾਰਾਂ, ਸ਼ੁਭਚਿੰਤਕਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਦਾ ਕਦੇ ਵੀ ਮਾਣ ਨਾ ਕਰੋ।
ਇਹ ਸਭ ਇੱਕੋ ਝਟਕੇ ਵਿੱਚ ਖੱਤਮ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ।
ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਮਾਇਆ ਦੇ ਭੁਲੇਖਿਆਂ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰੋ ਅਤੇ ਗਿਆਨ ਦੁਆਰਾ ਬ੍ਰਹ੍ਮਪਦਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰੋ ।
                                               (ਆਦਿ ਸ਼ੰਕਰਾਚਾਰੀਆ)

ਇੱਥੇ ਆਦਿ ਸ਼ੰਕਰਾਚਾਰੀਆ ਇੱਕ ਚੇਤਾਵਨੀ ਦੇ ਰਹੇ ਹਨ ਕਿ ਕਿਸੇ ਵੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਦੌਲਤ ਜਾਂ ਤਾਕਤ ਦਾ ਹੰਕਾਰ ਸਿਰਫ ਇੱਕ ਭੁਲੇਖਾ ਹੈ - ਝੂਠ ਹੈ।
ਕਿਉਂਕਿ ਇਸ ਅਸਥਾਈ ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਵੀ ਵਸਤੂ ਜਾਂ ਕੋਈ ਵੀ ਸਥਿਤੀ ਹਮੇਸ਼ਾਂ ਇੱਕੋ ਜਿਹੀ ਨਹੀਂ ਰਹਿੰਦੀ। 
ਵਧਦੀ ਉਮਰ ਦੇ ਨਾਲ ਜਵਾਨੀ ਢਲ ਜਾਂਦੀ ਹੈ।
ਪੈਸਾ ਅਤੇ ਹੋਰ ਜਾਇਦਾਂਦਾ ਚੋਰੀ ਹੋ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ - ਗੁੰਮ ਹੋ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ - ਜਾਂ ਖਰਚ ਕੀਤੀਆਂ ਜਾ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ।
ਸਮਾਜਿਕ ਅਤੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਸੱਤਾ ਰਾਤੋ ਰਾਤ ਬਦਲ ਸਕਦੀ ਹੈ।

ਸਿਰਫ ਇਹ ਆਤਮਾ ਦਾ ਸਵੈ-ਬੋਧ ਹੀ ਹੈ ਜੋ ਸਥਿਰ ਅਤੇ ਸਦੀਵੀ ਸੱਚ ਹੈ।
ਇਸ ਸੱਚਾਈ ਨੂੰ ਗਿਆਨ ਦੁਆਰਾ ਜਾਣ ਕੇ ਤੇ ਸਮਝ ਕੇ ਸਵੈ-ਬੋਧ ਦੀ ਅਵਸਥਾ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ।
ਗਿਆਨ ਦਾ ਅਸਲ ਉਦੇਸ਼ ਆਤਮਾ ਵਿੱਚ ਸਥਾਪਤ ਹੋ ਕੇ ਬ੍ਰਹ੍ਮਪਦ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨਾ ਹੈ।
                           ' ਰਾਜਨ ਸਚਦੇਵ '

Monday, September 20, 2021

Why do we talk about our mentors?

Some people ask why do we talk about our mentors so often?

We talk about them because we're proud of them.
We talk about them because they deserve to be remembered.
We talk about them because even though they are not physically with us, they are never far from our minds.
We talk about them because they are part of us - a part that we could never ignore or disown.
We talk about them because we love them still and always will.
Nothing will ever change that.

मधुर संस्मरण - शहंशाह बाबा अवतार सिंह जी

बाबा अवतार सिंह जी - जिन्हें सब प्रेम और श्रद्धा से शहंशाह जी कह कर बुलाया करते थे - 17 सितंबर 1969 के दिन अपने नश्वर शरीर को त्याग कर निरंकार में विलीन हो कर निराकार रुप हो गए। 

जब मुझे ये समाचार मिला तब मैं कैथल, हरियाणा में था - जहाँ मैंने हाल ही में एक शिक्षक के रुप में अपनी पहली नौकरी शुरु की थी। 
समाचार मिलते ही हम कुछ लोग कैथल के प्रमुख महात्मा श्री दलीप सिंह जी तथा उनके परिवार के साथ दिल्ली के लिए रवाना हो गए और रात को संत निरंकारी कॉलोनी में पहुँच गए।
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मुझे बचपन से ही हिंदू धर्मग्रंथों में गहरी दिलचस्पी थी और सत्य को खोजने की तीव्र जिज्ञासा भी थी। जब मैं तेरह वर्ष का था तब मुझे हाई स्कूल में एक मित्र के माध्यम से बाबा अवतार सिंह जी के संपर्क में आने का सौभाग्य मिला।
उन्होंने स्वयं मुझे ब्रह्मज्ञान प्रदान किया और मेरे मन पर हमेशा के लिए एक अमिट छाप छोड़ गए। मेरे मन में हमेशा उनके लिए बेहद सम्मान - प्रेम और श्रद्धा रही है और आज भी है। मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानता हूं कि मुझे अनेक बार व्यक्तिगत रुप से भी उनका प्रेम और आशीर्वाद मिलता रहा था।
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जब उस दिन मैंने निरंकारी भवन में उनका निष्चल शरीर पड़ा देखा, तो मेरी आंखों से अश्रु बहने लगे।
ज्ञानी जोगिंदर सिंह जी मेरे पास ही खड़े थे। 
मेरी अश्रुपूर्ण आँखें देख कर उन्होंने कहा -
"राजन जी! आप तो ज्ञानी हैं - आप तो जानते हैं कि यह सिर्फ एक शरीर है और शरीर चाहे किसी का भी हो - वो नाशवान ही होता है। 
शहनशाह जी हमारे साथ ही हैं - उनकी विचारें याद हैं न - वो अक्सर कहा करते थे कि शरीर गुरु नहीं होता - गुरु तो वह ज्ञान है जो उस शरीर में है। शरीर आते जाते रहते हैं - रुप बदलते रहते हैं - शरीर आते हैं और चले जाते हैं - इसलिए केवल सर्वशक्तिमान निरंकार का ध्यान करो - उसी पर अपना ध्यान केंद्रित करो - मेरे नश्वर शरीर पर नहीं "!

ज्ञानी जी ने आगे कहा कि "हमें याद रखना चाहिए कि शहनशाह जी ने हमें क्या सिखाया और समझाया था। हम 'निरंकारी हैं - निरंकार के उपासक हैं - इसलिए हमें शरीरों में आसक्ति रखने की बजाय उनकी दी हुई शिक्षाओं पर चलना चाहिए।"

ज्ञानी जी की बातों से मन को ढारस मिला और शहनशाह जी का निरंकार के प्रति सिखाया हुआ दृष्टिकोण फिर से परिपक्व हो गया। 

लेकिन फिर भी -- आज भी  शहनशाह जी का दिव्य, और तेजस्वी चेहरा अक़्सर आँखों के सामने आ जाता है और उनका प्रेम एवं उनके उपदेश कभी भुलाए नहीं जा सकते।
वह हमेशा मेरे हृदय में रहे हैं और हमेशा रहेंगे।
                                      ' राजन सचदेव '

जल सेवा - फ़िरोज़पुर 1963 

शहंशाह जी के साथ मोगा सत्संग में 
(संत अमर सिंह जी और निहाल सिंह जी की बगल में)
मोगा (पंजाब) 1963 

Blissful Memories - Shehanshah Baba Avtar Singh ji

September 17, 1969, was the day when Baba Avtar Singh Ji - who was lovingly called Shehanshah ji by all his disciples and devotees - left this mortal world.
When I heard the news of his passing- I was in Kaithal, Haryana - where I had recently joined my first job as a teacher. Along with the family of Sh. Dalip Singh ji - then Pramukh of Kaithal, we immediately went to Sant Nirankari Colony, Delhi.

Since my early childhood, I have had a keen interest in the Hindu Scriptures and a longing to find the Truth.
Through a classmate at high school, I came in contact with Baba Avtar Singh ji when I was thirteen.
I took Gyan directly from him, and he had become very close to my heart. I loved him deeply and had the utmost respect for him in my heart. I also consider myself very fortunate to have received his love and blessings personally.

That day, when I saw his motionless body lying on a raised platform in the Nirankari Bhavan, suddenly tears began to flow from my eyes.

Giani Joginder Singh ji was standing next to me.
Seeing my tearful eyes, he said:
Rajan ji! You should know better - this is just a body.
Shehanshah ji has not left us. Remember what he used to say - that Guru is not the body - Guru is what is in that body. The forms - the bodies come and go. So, focus only upon Almighty Nirankar - not the body.

Giani ji further said that we should remember what Shehanshah ji taught us. We are Nirankari - followers of Nirankar. So, instead of getting attached to the body, we should follow his teachings.

However, I can never forget Shehanshah Ji's divine and radiant face - and the way he taught with a direct and to-the-point approach towards Almighty Nirankar.

He has always been alive in my heart and mind - and always will be.
                                                  ' Rajan Sachdeva '


Offering water to Shehansha ji - Ferozepur 1963

On the Stage with Shehanshah ji - (in dark shirt sitting 
next to Nihal Singh ji and Sant Amar Singh ji 
At Moga (Punjab) 1963

What is Moksha?

According to Sanatan Hindu/ Vedantic ideology, Moksha is not a physical location in some other Loka (realm), another plane of existence, or ...