भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
"जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:" ( 2-27)
अर्थात — जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है।
यह केवल एक आध्यात्मिक उपदेश नहीं है —
यह एक सार्वभौमिक सत्य है।
हम सभी इस बात को जानते हैं। इसके बारे में पढ़ते सुनते हैं
और अक्सर इस बारे में बात भी करते हैं कि असल में तो मृत्यु ही एकमात्र ऐसी चीज़ है जो निश्चित है।
लेकिन फिर भी क्या हम इस सत्य को सच में ही गंभीरता से लेते हैं?
जब बात अपने पर आती है, तो हम अक्सर नज़रें फेर लेते हैं
मानो मृत्यु तो केवल दूसरों के लिए है —
अपने लिए तो ये एक अनजानी और बहुत दूर की बात लगती है।
इसलिए हम खुद को व्यस्त रखते हैं, इस विचार से बचते हैं, और ऐसे जीते हैं जैसे हमारे पास तो अनंत समय पड़ा है।
हम दूर भविष्य की योजनाएँ बनाते हैं, अनेक महत्वाकांक्षाओं के पीछे भागते हैं - छोटी छोटी बातों पर बहस करने लगते हैं, और आपसी मतभेदों व धार्मिक धारणाओं को लेकर लड़ने और मारने के लिए तैयार हो जाते हैं — और यह भूल जाते हैं कि हमारा अपना समय भी सीमित है।
हमारे अवचेतन में यह भ्रम रहता है कि हम तो हमेशा ज़िंदा रहेंगे।
लेकिन सत्य हमारे सामने है:
मृत्यु कोई दूर की संभावना नहीं है — यह जीवन का एक निश्चित और अटल सत्य है।
सत्य को अनदेखा करने से वह झुठलाया नहीं जा सकता - वह मिटता नहीं है।
बल्कि हमें इस सत्य का सामना करने के लिए तैयार होने से रोक देता है।
" राजन सचदेव "
Truly said
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