शब्दों को तोड़ मरोड़ कर उनके नए अर्थ बनाना भी आजकल एक फैशन सा हो गया लगता है।
जैसे Harmoney हारमनी को तोड़ कर हार - मन्नी, और दीवाली को तोड़ कर दीवा-अली इत्यादि।
सदियों से धर्म शास्त्र और सन्त महात्मा कहते आ रहे हैं कि "नाम-धन" एकत्रित करो।
आज ऐसा लगता है कि हम ने इसका अर्थ भी "नाम और धन" कर लिया या समझ लिया है।
और हम जोर शोर से नाम और धन यानी धन और ख्याति एवं प्रसिद्धि इकट्ठा करने में लग गए हैं।
आज हम "नाम-धन" को छोड़ कर "नाम और धन" के पीछे भाग रहे हैं।
युग पुरुष सतगुरु बाबा अवतार सिंह जी महाराज के समय में धर्म ग्रंथों के अघ्ययन, तीव्र जिज्ञासा और एक लम्बी खोज के बाद कहीं जाकर ज्ञान मिलता था - इसलिए भक्त लोग ज्ञान के सही मूल्य को समझते हुए दिल से समर्पण और भक्ति करते थे।
आज के समय में बिना अध्ययन और बिना खोज किए ही - बल्कि बहुत बार तो सिर्फ किसी के कहने मात्रा से ही अर्थात बिना जिज्ञासा के ही आसानी से ज्ञान मिल जाता है इसलिए ज्यादातर भक्ति दिल की बजाय दिमाग से हो रही है।
और जब केवल दिमाग से भक्ति होती है - जिस में मन की विशुद्ध भावना शामिल न हो - तो श्रद्धा का कम होना भी स्वाभाविक ही है।
आज हमें - एकत्रित अथवा व्यक्तिगत रुप से - स्वयं अपने मन में विचार करने की ज़रुरत है कि हम "नाम-धन" इकट्ठा करने के लिए सत्संग, सेवा, सुमिरन इत्यादि कर रहे हैं ? या "नाम और धन" - संसार में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए के लिए ही ये सब कुछ कर रहे हैं ?
राजन सचदेव
जैसे Harmoney हारमनी को तोड़ कर हार - मन्नी, और दीवाली को तोड़ कर दीवा-अली इत्यादि।
सदियों से धर्म शास्त्र और सन्त महात्मा कहते आ रहे हैं कि "नाम-धन" एकत्रित करो।
आज ऐसा लगता है कि हम ने इसका अर्थ भी "नाम और धन" कर लिया या समझ लिया है।
और हम जोर शोर से नाम और धन यानी धन और ख्याति एवं प्रसिद्धि इकट्ठा करने में लग गए हैं।
आज हम "नाम-धन" को छोड़ कर "नाम और धन" के पीछे भाग रहे हैं।
युग पुरुष सतगुरु बाबा अवतार सिंह जी महाराज के समय में धर्म ग्रंथों के अघ्ययन, तीव्र जिज्ञासा और एक लम्बी खोज के बाद कहीं जाकर ज्ञान मिलता था - इसलिए भक्त लोग ज्ञान के सही मूल्य को समझते हुए दिल से समर्पण और भक्ति करते थे।
आज के समय में बिना अध्ययन और बिना खोज किए ही - बल्कि बहुत बार तो सिर्फ किसी के कहने मात्रा से ही अर्थात बिना जिज्ञासा के ही आसानी से ज्ञान मिल जाता है इसलिए ज्यादातर भक्ति दिल की बजाय दिमाग से हो रही है।
और जब केवल दिमाग से भक्ति होती है - जिस में मन की विशुद्ध भावना शामिल न हो - तो श्रद्धा का कम होना भी स्वाभाविक ही है।
आज हमें - एकत्रित अथवा व्यक्तिगत रुप से - स्वयं अपने मन में विचार करने की ज़रुरत है कि हम "नाम-धन" इकट्ठा करने के लिए सत्संग, सेवा, सुमिरन इत्यादि कर रहे हैं ? या "नाम और धन" - संसार में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए के लिए ही ये सब कुछ कर रहे हैं ?
राजन सचदेव
Thank you very much for sharing this. Is it really possible to receive Gyan without without deep desire to know God? Can we really understand the Gyan without following Satgurus teaching?
ReplyDeleteRegards
Very good ji 🌺🙏
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