ईशावास्य उपनिषद लोकप्रिय और श्रद्धेय उपनिषदों में से एक है।
इसे यजुर्वेद का एक हिस्सा माना जाता है।
ईशावास्य उपनिषद अथवा ईशोपनिषद के अनुसार परम सत्य पूर्ण है
और जगत अर्थात सब कुछ इस पूर्ण का ही अभिव्यक्त रुप है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
(ईशवास्य उपनिषद)
शाब्दिक अनुवाद:
वह पूर्ण है - यह पूर्ण है - पूर्ण से ही पूर्ण निकला है।
और यदि हम पूर्ण से पूर्ण निकाल लें - तो भी पूर्ण ही शेष बचता है।
अर्थात इस परम सत्ता को हम चाहे परम-सत्य, ब्रह्म, परमात्मा, गॉड या ईश्वर इत्यादि कोई भी नाम दे दें - वह पूर्ण है।
अदह और इदम शब्दों का शाब्दिक अर्थ है - वह और यह ।
लेकिन इस संदर्भ में इन शब्दों का बहुत गहरा अर्थ है।
यहाँ पर - 'वह और यह' का अर्थ है अव्यक्त और प्रकट।
यह अद्वैत की विचारधारा है।
अर्थात हम जो कुछ भी देखते हैं, महसूस करते हैं या जानते हैं, वह अव्यक्त ईश्वर - वास्तविकता अथवा परम्-सत्य का ही हिस्सा है।
यह परम्-सत्य - वहाँ और यहाँ - तब और अब - अर्थात भूतकाल वर्तमान और भविष्य में हमेशा पूर्ण ही रहता है।
यह हमेशा था और हमेशा रहेगा।
सृष्टि के प्रकट होने से पहले भी केवल यह पूर्ण ही था और सृष्टि के लुप्त होने के बाद भी केवल पूर्ण ही शेष रहेगा।
इसी पूर्ण से सारी सृष्टि की रचना होती है - सब कुछ इसी से उत्पन्न होता है।
पूरी सृष्टि इस पूर्ण से निकली है -
भले ही पूरी सृष्टि इस पूर्ण में जोड़ दें या पूरी सृष्टि इस पूर्ण से निकाल दें -
पूर्ण हर अवस्था में पूर्ण ही है।
उपनिषदों में कहीं कहीं इसे शून्य की संज्ञा भी दी गई है - शून्य अर्थात ख़ाली - या कुछ भी नहीं।
शून्य के ज़रिए से इस बात को आसानी से और शायद अधिक स्पष्ट रुप से समझा जा सकता है।
गणित में शून्य का अर्थ होता है ज़ीरो।
यदि हम शून्य में शून्य जोड़ दें या घटा दें - यानी ज़ीरो में ज़ीरो जमा करें या माईनस करें तो उत्तर शून्य अथवा ज़ीरो ही रहेगा।
ख़ाली में ख़ाली डाल दें - या ख़ाली में से ख़ाली निकाल दें - हर अवस्था में ख़ाली तो ख़ाली ही रहेगा।
इसी तरह पूर्ण में पूर्ण जोड़ दें या निकाल दें - पूर्ण ही शेष रहता है।
और दूसरी बात - इस तरह का पूर्ण केवल एक ही हो सकता है - एक से अधिक नहीं।
इसलिए केवल एक ही परम्-सत्य है - जिसे हम ब्रह्म, परमात्मा, गॉड या ईश्वर इत्यादि अलग अलग नामों से जानते हैं।
यह एक अद्वैतवादी विचारधारा है।
लेकिन देखा जाए तो इस बात से इस प्रचलित अवधारणा का खंडन होता है कि यह दृश्यमान ब्रह्मांड केवल एक भ्रम है - एक भ्रान्ति से ज्यादा और कुछ भी नहीं है और इसकी अवहेलना की जानी चाहिए। इसका त्याग कर देना चाहिए।
क्योंकि ईशोपनिषद के इस मंत्र के अनुसार यदि पूरी सृष्टि उस पूर्ण से ही निकली है और पूर्ण की ही एक अभिव्यक्ति है - पूर्ण का ही हिस्सा है - तो इसे भी पूर्ण ही होना चाहिए।
पूर्णमदः पूर्णमिदम्
वह पूर्ण है - यह भी पूर्ण है - अर्थात अव्यक्त रचयिता और प्रकट रचना - दोनों ही पूर्ण हैं ।
यहां पर वेदांतिक हिंदू विचारधारा - बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म से थोड़ी अलग हो जाती है।
बौद्ध धर्म के अनुसार: "सर्व दुःखं - सर्व दुःखं"
अर्थात संसार की मूल संरचना दुख और पीड़ा है।
इसलिए संन्यास की अवधारणा - संसार को त्यागने का संकल्प है।
और ईसाई धर्म का मानना है कि हम पाप से पैदा हुए हैं - पाप ही हमारा मूल है इसलिए कोई भी कभी पूर्ण नहीं हो सकता और न ही पूर्ण से मिल सकता है।
लेकिन वेद कहते हैं:
पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते
वह भी पूर्ण है और यह भी पूर्ण है।*
इस मंत्र का व्यावहारिक - उद्देश्यपूर्ण और उपयोगी अर्थ इस प्रकार से लेना चाहिए कि -
वह अव्यक्त ब्रह्म पूर्ण है - यह प्रकट रचना भी पूर्ण है -
बेशक ये अस्थायी और क्षणभंगुर है लेकिन इस रचना के पीछे अवश्य ही कोई उद्देश्य तो होगा।
इसलिए, प्रकट सृष्टि को केवल एक भ्रम मान कर इसे अस्वीकार करने की बजाय, इसका उपयोग शांतिपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने के लिए किया जाना चाहिए।
हो सकता है कुछ सम्मानित विद्वान मेरी उपरोक्त व्याख्या से सहमत न हों।
क्योंकि ऐसा माना जाता है कि अद्वैत के अनुसार संसार एक भ्रम है - केवल एक छल - एक भ्रान्ति है।
और दूसरी तरफ - द्वैत विचारधारा के अनुसार ईश्वर और जगत - दोनों ही सत्य हैं।
मेरे विचार में अद्वैत को भी एक प्रैक्टिकल - क्रियात्मक रुप में देखना और समझना चाहिए ताकि ये बातें केवल फिलॉसफी तक ही सीमित न रह जाएं - सिर्फ कहने और सुनने तक ही न रहें बल्कि सांसारिक जीवन में भी उपयोगी हो सकें।
ईशोपनिषद का पहला ही मंत्र इस बात को स्पष्ट और कर देता है -
ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥
(ईशावास्य उपनिषद - मंत्र 1-5)
अर्थात ईश्वर, इस जगत - इस ब्रह्मांड के कण कण में व्यापक है। हर चीज़ में ईश्वर का निवास है।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः
त्याग-भाव से - अनासक्त भाव से इस जगत् का भोग करो।
मा गृधः कस्य स्विद् धनम्
किसी का धन मत छीनो -
किसी को धोखा न दो - जो तुम्हारा नहीं है - जो किसी और का है उसे छीनने और हड़पने की कोशिश न करो।
" राजन सचदेव "
* कुछ विद्वानों के मतानुसार "वह और यह" से भाव निराकार और साकार भी हो सकता है।
No words !
ReplyDeleteOnly thanks !!!!
May Almighty bless you with more prosperity, health and wealth uncle ji!!!
BAHUT HI SUNDER VIVECHNA KI H APJI NE IS SATYA KI
ReplyDeleteजो खुद इसके इस रूप को समझने वाला है, केवल
ReplyDeleteवो ही दूसरों को समझा सकता है।
Thanks 🙏🙏JK
ReplyDeleteThank you for beautiful explanation. 🙏🙏
ReplyDeleteExplained so very well!!🙏🙏
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