मूढ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम् ।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥ २ ॥
(भज गोविन्दम - मोह मुद्गर - श्लोक 2)
हे अज्ञानी - मूढ़ इन्सान ! अत्यधिक धन संचय की लालसा को त्याग दो।
अपनी बुद्धि और विचारों को सत्य, पर केंद्रित करो - और मन को वैराग्य की ओर मोड़ो।
अपने निज कर्म से जो मिले - निष्कपट और ईमानदार कार्य के माध्यम से जो प्राप्त हो -
उसी में प्रसन्न और संतुष्ट रहो ।
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इस श्लोक में विचार करने के लिए कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं।
यहां शंकराचार्य ऐसा नहीं कह रहे हैं कि धन कमाना बुरा है - अनैतिक या पाप है -
न ही वह ये कह रहे हैं कि धन एवं सांसारिक जीवन को त्याग दिया जाना चाहिए।
वो ये कह रहे हैं कि धन-संचय की प्यास - ज़्यादा से ज़्यादा धन इकठ्ठा करने की अभिलाषा और लालच करना मूर्खता है - क्योंकि कुछ भी स्थायी नहीं है। हर प्राणी इस संसार से खाली हाथ ही जाता है - सब कुछ यहीं छोड़ जाता है।
इसलिए धन के लोभ और संपत्ति के मोह का त्याग करो।
भले ही शंकराचार्य स्वयं एक संन्यासी थे - उन्होंने संसार का त्याग कर दिया था और भिक्षा के माध्यम से - भिक्षा में जो भोजन मिलता - उसी से अपना निर्वाह करते थे।
लेकिन फिर भी वे सभी को सन्यासी या साधु बनने की सलाह नहीं देते।
वे कहते हैं - कि नेक कार्य करो। अपने शुद्ध सात्विक और ईमानदार कार्य से जो कुछ भी मिलता है उसी में संतुष्ट रहना चाहिए।
दूसरे शब्दों में - किसी को धोखा न दें - धन कमाने के लिए गलत साधनों को न अपनाएँ, और लालची न बनें।
ईशोपनिषद में भी ऐसा ही कहा गया है:
"मा गृधः कस्य स्विद्धनम "
अर्थात - किसी की संपत्ति मत छीनो - जो किसी और का है - जो तुम्हारा नहीं है उस पर अपना अधिकार मत जताओ।
वेदों के अनुसार, लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए - संसार से मुक्त होने के लिए दो मार्ग हैं।
एक है संन्यास मार्ग - संसार का त्याग और केवल सत्य एवं वास्तविकता पर ध्यान।
दूसरा है गृहस्थ मार्ग - संसार में एक गृहस्थ के रुप में रहते हुए भी मन को सत्य पर केंद्रित रखना।
शंकराचार्य ने अपने लिए पहला मार्ग चुना।
लेकिन इस श्लोक में वह उन लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं जिन्हों ने दूसरा रास्ता - अर्थात गृहस्थ मार्ग को चुना है। जो संसार में भी रहना चाहते हैं - और संसार से मुक्त भी होना चाहते हैं।
उनके लिए शंकराचार्य कह रहे हैं कि :
उचित - निष्कपट, सच्चे और ईमानदार तरीके से धन कमाओ।
अपने निज कर्म से जो प्राप्त हो उसी में संतुष्ट रह कर प्रसन्नता पूर्वक अपना जीवन यापन करो।
दूसरों का धन छीनने का यत्न न करो ।
लालची मत बनो - आसक्तियों को छोड़ो -
और अपनी बुद्धि और मन को सत्य के प्रति समर्पित करो।
' राजन सचदेव ''
संस्कृत शब्दों के अर्थ:
मूढ़ = अज्ञानी, भ्रांतिपूर्ण
जहीही = छोड़ दो - त्याग दो
धन-आगम तृष्णां = लोभ - धन संचय की प्यास
कुरु सद-बुद्धिं = शुद्ध विचार रखें, सही निर्णय लें
मनसि वितृष्णाम = मन विरक्त रहे
यल्लभसे निज कर्मो-पातम् = अपने स्वयं के सच्चे कर्म से प्राप्त किये हुए
वित्तम तेन विनोदय चित्तम - ऐसे धन से ही हृदय को प्रसन्न और सन्तुष्ट रखो।
Thought provoking
ReplyDeleteDnj Bhaisahib ji. Really very true Path. Very hard but Baba ji made it so easy and you explained exactly Shankaracharya maharaj wanted to convey us. Thank you sooooooooooo much 🤲🤲🤲🙏🏻🙏🏻
ReplyDelete🙏🙏🙏
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