आमतौर पर, हम दूसरों की आलोचना करने में बहुत तेज होते हैं
लेकिन उनकी प्रशंसा करने में संकुचाते हैं - बहुत धीमे होते हैं।
जब कोई कुछ अच्छा करता है या कहता है, तो हम कभी उसकी सराहना - उनकी तारीफ़ नहीं करते।
अक्सर, हम उस के बारे में बात भी नहीं करते और किसी से उस का जिक्र तक नहीं करते।
और अगर वास्तव में ही उनकी कही हुई कोई बात हमें पसंद आ जाए -
और वो बात औरों को भी बताना चाहें - तो हम उनका नाम छिपा लेते हैं।
उनका नाम नहीं लेते ताकि इस से उनकी बड़ाई या प्रशंसा न हो जाए।
लेकिन अगर कोई कुछ ऐसा कह दे या कर दे - जो कि हमें पसंद नहीं है
तो हम तुरंत सवाल उठाने लगते हैं - उन की आलोचना और निंदा करने लगते हैं
और उसे चारों ओर फैला देते हैं।
बाईबल कहती है -
"तुझे अपने भाई की आंख में पड़ा तिनका तो दिखाई देता है
लेकिन अपनी आंख में पड़ा लठ्ठा दिखाई नहीं देता ?"
(बाईबल - लूक: 41)
इसी प्रकार, 15वीं शताब्दी के एक महात्मा संत रेन जी कहते हैं:
"बट बीज सम पर अवगुण जिन को कर तू मन मेरु दिखावे
मेरु सम अपनो अवगुण - तिन को कर तू बट बीज जनावे
ईम संतन 'रेन ' कहै मन स्यों पर अवगुण ढांप तबहै सुख पावे
(संत रेन जी)
हर समय दूसरों की आलोचना करने और उन पर दोषारोपण करने की बजाय हमें अपने स्वयं के दोषों और कमियों को देखना चाहिए और स्वयं को सुधारने का प्रयास करना चाहिए।
क्योंकि, अंत में तो हम केवल अपने ही विचारों और कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं - दूसरों के लिए नहीं।
" राजन सचदेव "
हम भी तो यही करते हैं प्रशंसा में संकोच करते हैं अगर छोटी सी कमी देखते हैं उस कमी को बड़े जोर_शोर ज़माने को सुनाने लगते हैं रहमत करो जी हम यह न करें 💐💐
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ReplyDeleteBahot hee sundar aur keemti bachan ji.🙏
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