भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।
सम्प्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुकृङ्करणे ॥
(आदि शंकराचार्य रचित भज गोविंदम - १ )
एक बार, आदि शंकराचार्य ने देखा कि एक विद्वान् - पंडित अथवा गुरु अपने शिष्यों को मंत्रों का पाठ करते समय व्याकरण और उच्चारण की गलतियों के लिए बड़े क्रोध से डांट रहा था ।
यह देखकर शंकराचार्य ने कहा:
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् - गोविन्दम् भज मूढ़मते
संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे
अर्थात : हे मूढ़ - माया ग्रसित मोहित मित्र -
गोविंद गोविंद जप - गोविंद का नाम जप - गोविंद को याद कर।
केवल मंत्रों का शुद्ध एवं सही उच्चारण और उपयुक्त व्याकरण ही अंतकाल में (जन्म मरण के बंधन से) रक्षा नहीं कर सकता।
आज भी कुछ लोग ग्रंथों और शास्त्रों में लिखे गए शब्दों के शुद्ध उच्चारण और व्याकरण की तरफ ही ज़्यादा ध्यान देते हैं और ऐसा न करने पर नाराज़ हो जाते हैं।
निस्संदेह, शब्दों को बदलना या कुछ शब्दों और मात्राओं को छोड़ देना - या शब्दों का उच्चारण इस ढंग से करना जिससे उस का अर्थ ही बदल जाए - ये अच्छा नहीं होता।
लेकिन मंत्रों, मूलमंत्रों और महावाक्यों के वास्तविक अर्थ और सार को समझना और उस पर विचार करना अन्य बातों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
बिना किसी भावना और श्रद्धा के मंत्रों या वाक्यों को दोहराते रहने का कोई फायदा नहीं - चाहे उनका उच्चारण कितना भी सही और शुद्ध क्यों न हो।
भक्ति में तो श्रद्धा और प्रेम भावना का महत्व है - नियमों और व्याकरण या शब्दों के उच्चारण का नहीं।
भले ही जाने या अनजाने में किसी भक्त के मुख से कोई गलत शब्द निकल जाए - लेकिन सर्वज्ञ एवं अन्तर्यामी ईश्वर जानते हैं कि उन के दिल में क्या है।
गोविन्द भाव भक्ति का भूखा
गोविंद - अर्थात भगवान तो विशुद्ध प्रेम और और सच्ची भक्ति चाहते हैं - और कुछ नहीं।
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लेकिन यहाँ गोविंद शब्द को भी विभिन्न दृष्टिकोणों से लिया जा सकता है।
क्योंकि सब लोग अपने अपने ज्ञान, विश्वास और पृष्ठभूमि के आधार पर - हर चीज को अपने नजरिए से ही देखते हैं।
बहुत से लोग और भक्त मानते हैं कि गोविंद का अर्थ है भगवान कृष्ण।
क्योंकि गोविंद और गोपाल - दोनों ही भगवान कृष्ण के लिए बहुत लोकप्रिय वैकल्पिक नाम हैं।
लेकिन गोविंद का शाब्दिक अर्थ कुछ और है।
गोविन्द शब्द 'गो और विन्द' के मेल से बना है।
संस्कृत में 'गो' का प्रयोग गाय और पृथ्वी दोनों के लिए किया जाता है।
लेकिन इस संदर्भ में यह शब्द पृथ्वी नहीं - ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है।
'विंद या बिंद' का अर्थ है बीज, उत्पत्ति का कारण अथवा स्रोत, इत्यादि।
इस प्रकार - गोविन्द का अर्थ हुआ - सृष्टि का रचयिता अथवा स्रोत्र एवं कारण।
अद्वैत विचारधारा के अनुसार - जिसका आदि शंकराचार्य प्रतिनिधित्व करते हैं - सृष्टि का स्रोत है निर्गुण परब्रह्म - परमआत्मा जो रुप और गुण से परे है।
आदि ग्रंथ अर्थात गुरु ग्रंथ साहिब में भी 'गोविंद और गोपाल' शब्दों का बार-बार उल्लेख आया है।
गोपाल -- गो + पाल।
'गो अर्थात गाय - निर्बल, कमजोर और असहाय का प्रतीक है।
और 'पाल' का अर्थ है - पालनहार - रक्षक एवं संरक्षक।
सिख और निरंकारी विद्वान भी गोविंद और गोपाल शब्दों का अनुवाद - निर्गुण और निरंकार परमात्मा के रुप में करते हैं - किसी एक विशेष साकार भगवान के रुप में नहीं।
लेकिन फिर भी - प्रारम्भ में सुमिरन और ध्यान के लिए अपनी रुचि के अनुसार किसी भी नाम और रुप पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है।
जैसा कि भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं -
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ||
(भगवद गीता 4-11)
अर्थात जो मुझे जिस रुप में देखता है - मेरा ध्यान करता है - मैं उसी रुप में स्वीकार करके उन्हें प्रतिफल दे देता हूँ।
क्योंकि हे पार्थ - जाने या अनजाने में सभी मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं - मेरा ही ध्यान करते है "।
चाहे हम किसी भी नाम का जाप करें - किसी भी रुप पर ध्यान केंद्रित करें - मूल बात तो मन को वश में रखने की है।
इसलिए, आदि शंकराचार्य कहते हैं:
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् - गोविन्दम् भज मूढ़मते
जब हम किसी वस्तु का वर्णन या उसकी व्याख्या करना चाहते हैं, तो उसे कोई नाम देना ही पड़ता है।
लेकिन अंततः - सत्य को समझने के लिए हमें शरीरों से ऊपर उठ कर - हर एक नाम और रुप से परे जाना पड़ेगा।
' राजन सचदेव '
sunder bachan ji.🙏
ReplyDeleteक्या कमाल की व्याख्या है
ReplyDeleteस्वागत 🙏
Beautiful🙏
ReplyDelete"Govind" "Gopal" interpreted very correctly. Aap ji ki itni study aur deep thinking ko parnam ji.!
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