भिक्षा का पात्र तो भरा जा सकता है
लेकिन इच्छा का पात्र कभी नहीं भरता
जीवन की ज़रुरतें तो पूरी हो सकती हैं
लेकिन इच्छाएं नहीं।
अंततः संतोष से ही सुख का अनुभव हो सकता है
क्योंकि एक इच्छा पूरी होती है, तो दूसरी पैदा हो जाती है।
और ये अंतहीन सिलसिला जीवन पर्यन्त चलता रहता है -
इच्छा और तृष्णा कभी तृप्त नहीं होतीं।
ये एक ऐसा चक्र है जिसमें हर व्यक्ति उलझ कर रह जाता है।
जीवन में सच्चा सुख बाहर से नहीं - भीतर से आता है
और वह केवल संतोष से ही प्राप्त हो सकता है।
" राजन सचदेव "
कठिन पर अटल सत्य
ReplyDeleteVery true. Bahut hee Uttam aur shikhshadayak Bachan ji.🙏
ReplyDeleteVery true Rajanjee 🙏
ReplyDeleteBeautiful 🙏🙏
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