धर्मं यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत् ।
अविरोधात् तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम ।
(महाभारत - वन पर्व - श्लोक 131/11)
अर्थात:
हे नरेश सत्यविक्रम!
जो धर्म किसी दूसरे के धर्म का बाधक हो - अवरोधक हो - वह धर्म नहीं कुधर्म है ।
जो अन्य किसी धर्म का विरोध न करके प्रतिष्ठित होता है, वही वास्तविक धर्म है।
भावार्थ:
जो धर्म स्वयं को सबसे श्रेष्ठ और उत्तम होने का दावा करते हुए अन्य धर्मों का विरोध करे - उन्हें ग़लत सिद्ध करके उन का तिरस्कार करने और उन्हें रोकने के लिए प्रोत्साहित करे - उनसे लड़ने और उन्हें पराजित करने के लिये प्रेरित करे, वह धर्म नहीं - कुधर्म है।
जो दूसरों का और अन्य धर्मों का विरोध न करते हुए केवल मानवता और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे, वही सच्चा और यथार्थ धर्म है |
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समावेशिता - सर्व कल्याण
भारतीय संस्कृति में - भारतीय दर्शन के आधार वेदों, उपनिषदों एवं सनातन ग्रंथों ने हमेशा समावेशिता और सर्व मानव मात्र के कल्याण की सार्वभौमिक भावना को बनाए रखा है।
बृहदारण्यक उपनिषद की एक प्रसिद्ध और सबसे अधिक की जाने वाली प्रार्थना सभी के कल्याण की भावना को दर्शाती है:
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।
बृहदारण्यक उपनिषद (1.4.14)
अर्थात:
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें
सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने।
यह प्रार्थना धर्म के सार्वभौमिक, करुणामय और समावेशिता का रुप है
संघर्ष या शत्रुता का नहीं, बल्कि समानता, सद्भाव और आपसी सम्मान का प्रतीक है।
" राजन सचदेव "
Yes very true 🙏
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