Friday, October 5, 2018

सतगुरु के नाम - तेरी आरज़ू - तेरी जुस्तजू ​

                                   सतगुरु के नाम                            
(ये नज़्म  2015 में  बाबा हरदेव सिंह जी के अमेरिका टूर के क़रीब दो महीने बाद लिखी थी )
                           तेरी आरज़ू -  तेरी जुस्तजू ​

कभी कभी मैं तन्हा बैठा ......
तेरी तस्वीर निहारता हूँ
तुझे मन ही मन पुकारता हूँ
तुझे दिल में उतारता हूँ
तेरा हर रंग -​
हर रूप चितारता 
हूँ
तेरी बातें विचारता हूँ
और दिल में उठती है ये आरज़ू
कि तेरा साथ मिल जाए
तेरे साथ मेरी ज़िंदगी की शाम ढ़ल जाए
तेरे साथ बैठूं - तेरे साथ खाऊं
जहां भी तू जाए, तेरे साथ जाऊं
तेरे संग चलूँ , तेरे संग ​हसूँ ​
छोड़ अपना देस, तेरे संग बसूँ
तेरे साथ घूमूं - तेरे क़दम चूमूँ
​देखूं तेरी सूरत ​- तेरी मुस्कुराहट ​  ​
सुनता रहूँ तेरे क़दमों की आहट
रख  दे मेरे  सर पे तू अपना हाथ
खिंचवा लूँ मैं सैंकड़ों ही फोटो तेरे साथ 

मगर फिर ख़याल आता है .......
कि ये सब कुछ पाकर भी
क्या मैं तुझ को पा लूँगा ?
नहीं .......

क्योंकि तू ये सब तो नहीं है
ये बातें जिस्म की बातें हैं
और तू जिस्म तो नहीं है

                                  और ... अगर कहीं ऐसा भी हो ......

कि तू भी करे मुझको कभी याद
करनी ना पड़े मुझे कभी कोई फ़रयाद
ख़ुद ही तू ले के चले मुझको अपने साथ
रख दे कभी प्यार से कंधे पे मेरे हाथ
कभी मुस्कुरा के ​तू ​ बुला ले अपने पास
​​होने न पाए कभी जुदाई का एहसास
तेरी बातों में कभी ​- मेरा भी ज़िकर हो
मैं कैसा हूँ, कहाँ हूँ ​ - तुझको ये फ़िक़र हो
​पूछ ले किसी से तू मेरा भी कभी हाल ​
तेरे ज़ेहन में कभी ​- ​मेरा भी हो ख्याल ......

मगर फिर सोचता हूँ -
कि ये सब कुछ हो भी जाए अगर
तो क्या तू मेरा - और मै तेरा हो जाऊँगा ?

शायद नहीं .......
क्योंकि तू ये सब ​भी ​तो नहीं है

ये बातें भी जिस्मो -दिल की बातें हैं
और तू जिस्मो-दिल ​भी तो नहीं है

और ये सब कुछ होने पर भी -
आरज़ूएँ, - तमन्नाएँ - मेरी हसरतें
​कहीं प्यार का एहसास - कहीं नफ़रतें ​
दिलो दिमाग़ में छायी हुईं क़दूरतें
हसद की आग में जलती हुई वो पिन्हां सूरतें
ख़त्म हो जाएँगी क्या ?
मिट जाएँगी क्या ?
ये बे-सबरी, ये मग़रूरी ख़त्म हो जाएगी क्या ?
और मेरी हस्ती तेरी हस्ती में मिल जाएगी क्या ?

मुझे याद है -  कभी तूने कहा था .....
"तू किसको ढूंडता है ? किसकी है जुस्तजू
तू मुझमें है, मैं तुझमें हूँ - तू मैं है - मैं हूँ तू "

अगर ​ये सच है ​ ...
                      तो मुझे तेरी जुस्तजू क्यों है ? 
अगर हम एक हैं - तो ​देखने में दो क्यों हैं ?
​साथ होते हुए भी मुझे तू लगता दूर है
ये आँखों का है क़सूर या दिल का क़सूर है ?

मगर जब ग़ौर से देखा तो 

                                   राज़ ये खुला
और हक़ीक़त का आखिर

                                  पता मुझे चला
कि ​क़सूर किसी का नहीं ​ - मैं ख़ुद ही खो गया ​था ​
ग़फ़लत की नींद में ही बेख़बर सो गया ​था
और, ये रास्ता भी मैंने खुद ही तो चुना था
ये जाल हसरतों का खुद ही तो बुना था
दीवारें जो बनाईं थीं हिफ़ाज़त की ख़ातिर
उन्हीं में रह गया ​था ​मैं क़ैद हो के आख़िर 
इसीलिए तो ख़त्म ना हो पाई जुस्तजू
और न पूरी हो सकी तुझे पाने की आरज़ू

हाँ - -
मगर ये हसरत​ ...... ​पूरी हो तो सकती है
ज़हानत की क़ैद से रिहाई हो तो सकती है
तेरी हस्ती में मेरी हस्ती खो तो सकती है
मेरी ज़ात तेरी ज़ात से ​- इक हो तो सकती है

मगर न जाने ये सब कब होगा ?​
कभी होगा भी - या नहीं होगा ?

पर इतना जानता हूँ - ख़त्म हो सकती है जुस्तजू
अगर वो याद रहे मुझको तेरी पहली ग़ुफ़्तग़ू
जब तूने ये कहा था .....

"तू मुझमें है - मैं तुझमें हूँ - तू मैं है - मैं हूँ तू "

जिस्मों की क़ैद से कभी जो ऊपर उठ जाता हूँ मैं
तब तेरी ​इस ​बात का मतलब समझ पाता हूँ मैं

और तब अचानक ही मुझे, यूँ महसूस होता है.... 

कि मैं तुझ में हूँ ...... तू मुझ में है
तू सब में है ..... सब तुझ में है
सब तू ही है - सब तू ही है
सब तू ही है ​ - बस तू ही है


​      'राजन सचदेव '
    (10 नवंबर - 2015)


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1 comment:

Easy to Criticize —Hard to Tolerate

It seems some people are constantly looking for faults in others—especially in a person or a specific group of people—and take immense pleas...