Monday, May 21, 2018

धर्म क्या है

आमतौर पर "धर्म " शब्द का अनुवाद Religion  के रूप में  किया जाता है।
लेकिन संस्कृत के विद्वान इसका अर्थ दो तरह से समझाते हैं
एक प्रचलित अनुवाद है:
                             "धारयते इति धर्मः"
अर्थात जो धारण किया जाए वह धर्म कहलाता है।
दुसरे शब्दों में - जो भी विचारधारा या दर्शन (Philosophy) हम अपनाने का संकल्प करते हैं, उसे धर्म कहा जाता है। 
यही नियम संबंधों पर भी लागू होता है  - इसी कारण से भारत में गोद लिए हुए - 'अपनाए' हुए यानी adopt किए हुए बेटे 
या बेटी को 'धर्म-पुत्र या धर्म-पुत्री' कहा जाता है। और 'मुँह बोले ' भाई या बहन को 'धर्म-भाई एवं धर्म-बहन' कहा जाता है।
चूंकि वैवाहिक संबन्धों को भी सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक या कानूनी समारोहों के माध्यम से स्वीकार किया जाता है 
अर्थात 'अपनाया जाता है' - इसीलिए पत्नि को भी औपचारिक रूप से 'धर्म-पत्नि' कहा जाता है।

लेकिन अपने आप में  'धर्म' शब्द को आम तौर पर किसी आध्यात्मिक विचारधारा से जोड़ा जाता है; जो कि जन्म से या 
अपनी पसंद से अपनाया गया हो । इस परिभाषा के अनुसार, आमतौर पर धर्म को अंग्रेजी में 'Religion ' के रूप में 
अनुवादित कर दिया जाता है, लेकिन ये वास्तव में इसके सही अर्थ को नहीं दर्शाता है । 
रिलिजन Religion का अर्थ है एक ख़ास किस्म की विचारधारा या मान्यता।
पाश्चात्य विचारधारा के अनुसार -
"भगवान क्या है, मनुष्य और ब्रह्मांड के साथ उस का क्या सम्बन्ध है - 
मानव जीवन का अर्थ और उद्देश्य, और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन एवं तरीके 
भगवान को क्या पसंद है और क्या नहीं - 
हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए" - इत्यादि नियमों और विचारों पर आधारित होता है Religion अथवा धर्म।  

चूंकि इन बुनियादी सवालों पर अधिकांश प्रचलित धर्मों के विचार अलग अलग हैं, इसलिए कुछ लोग उस धर्म या Religion  को - 
जो उन्हें अधिक तार्किक लगता है या उन्हें अधिक समझ में आता है - अपनाने का विकल्प चुन लेते हैं। 
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वैदिक संदर्भ में 'धर्म' का मतलब है 'मूल प्रकृति' - Constitution या Basic-nature. 
उदाहरण के लिए, आग की मूल प्रकृति है जलाना - गर्मी और प्रकाश प्रदान करना। 
यदि आग जला नहीं सकती - अगर यह गर्मी और प्रकाश नहीं दे सकती, तो इसे आग नहीं कहा जा सकता। 
हिंदी में एक प्रचलित वाक्यांश है कि :
"आग का धर्म है जलाना, और पानी का धर्म है शीतल और शुद्ध करना "।
संसार की प्रत्येक वस्तु की अपनी एक मूल प्रकृति है - अपना अपना स्वभाव है - जिसे उसका मौलिक धर्म कहा जाता है। 
पृथ्वी की प्रकृति या धर्म है हर वस्तु को अपनी ओर खींचना एवं स्थित रखना - गुरुत्वाकर्षण (gravity) की शक्ति से स्थिरता 
प्रदान करना - जबकि आकाश का धर्म है विशालता और असीमता। 
वनस्पति का धर्म भोजन प्रदान करना है, और वायु का धर्म है जीवन को बनाए रखना।
वेदों के अनुसार ब्रह्मांड में हर जीवित और अजीवित वस्तु की अपनी अपनी संवैधानिक प्रकृति या धर्म है।
सांप और बिच्छू का धर्म या प्रकृति काटने की है और कुत्ते का धर्म या स्वभाव चौकीदारी और रक्षा करना है।

स्वाभाविक तौर पर अब यह प्रश्न उठता है कि :
"मनुष्य का 'मौलिक धर्म' क्या है?"
स्पष्ट है कि मानव का धर्म है 'मानवता' 
धारयते इति धर्मः  के अनुसार तो जिसे धारण कर लिया या अपना लिया वही धर्म है। 
और इस परिभाषा के अनुसार तो हमारे पास चुनने के लिए कई धर्म हो सकते हैं।
लेकिन दूसरी परिभाषा के अनुसार - मनुष्य मात्र का केवल एक ही मौलिक अथवा स्वाभाविक धर्म हो सकता है; 
और वह है  'मानवता'।

'मानवता' क्या है?

मनुष्य की मूल प्रकृति एवं स्वाभाविक धर्म है  - " प्रेम और सेवा "

यह सत्य है कि पक्षी और अधिकांश पशु भी अपने नवजात और युवा संतान को प्रेम और सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन 
उनका प्रेम - उनकी सेवाएं कुछ सीमित समय के लिए होती हैं; जब तक कि उनके नवजात बच्चे अपना भोजन स्वयं नहीं 
ढूंढ पाते और अपनी सुरक्षा का ख्याल स्वयं नहीं रख सकते। 
लेकिन मनुष्य तो - न केवल अपने बच्चों और माता-पिता - बल्कि सगे सम्बन्धियों, रिश्तेदारों, दोस्तों-मित्रों और यहां तक ​​कि 
अपरिचित - अजनबियों को भी जीवन भर के लिए अपना प्रेम और सेवाएं प्रस्तुत करते रहते हैं। 
हम तो जीवन भर अपनी इंद्रियों को भी प्रसन्न रखने का प्रयास करते रहते हैं। 
जबकि पशु और पक्षी तो केवल अपने परिवार को भोजन और सुरक्षा प्रदान करने के लिए अपना प्रेम और अपनी सेवाएं प्रस्तुत करते हैं, 
हम मनुष्य तो  अपनी इंद्रियों को भी प्रसन्न करने के लिए - और अपने प्रियजनों की प्रसन्नता और उनके मनोरंजन के उद्देश्य से भी अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। मनुष्य मात्र की सुविधाओं और मनोरंजन के लिए - मानव जीवन को आसान और सुविधा-जनक बनाने के लिए ही वैज्ञानिक प्रतिदिन नए नए आविष्कार करते रहते हैं।  
तो इसका अर्थ यह हुआ कि मूल रूप से, हम जो कुछ भी करते हैं - आविष्कार करते हैं या बनाते हैं - उसका मूल उद्देश्य हमारे अपने शरीर या हमारे आस-पास के लोगों को सेवा प्रदान करना है। यही मनुष्यों की मौलिक प्रकृति एवं मूल-स्वभाव है; 
यही मानव जाति का असली और एकमात्र स्वाभाविक धर्म है।
जैसे आग यदि जलाती नहीं, या गर्मी और प्रकाश प्रदान नहीं करती, तो इसका अर्थ है कि वह अपने स्वभाव के उलट - 
अपने धर्म के खिलाफ जा रही है।
इसी प्रकार, अगर हम दूसरों को सेवा प्रदान नहीं कर रहे, तो हम अपने स्वाभाविक धर्म के उलट जा रहे हैं; 
मानवता के धर्म के खिलाफ जा रहे हैं 
हमारे प्राचीन शास्त्रों के अनुसार :
                          सेवा परमो -धर्म:
                                         अर्थात सेवा ही सर्वोच्च धर्म है 

                                                    'राजन सचदेव'

4 comments:

  1. Really tremendous knowledge.....thanks for sharing......keep blessings

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  2. बहुत सही कहा है ।

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  3. वह भाई राजन जी , बहुत खूब। अच्छा लिखते हो, बधाई ।

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