Thursday, January 9, 2020

महाभारत पर आधारित एक आलोचनात्मक विवेचना

       पिछले दिनों web के सौजन्य से एक मित्र ने निम्नलखित लेख भेजा....

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था। युद्धभूमि में यत्र-तत्र योद्धाओं के फटे वस्त्र, मुकुट, टूटे शस्त्र, टूटे रथों के चक्रआदि बिखरे हुए थे और वायुमण्डल में फैली हुई थी घोर उदासी ! गिद्ध, कुत्ते, सियारों की डरावनी आवाजों के बीच उस निर्जन भूमि में द्वापर का सबसे महान योद्धा देवव्रत (भीष्म पितामह) शरशय्या पर पड़ा हुआ सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था। 
तभी उनके कानों में एक परिचित - शहद सी मीठी ध्वनि सुनाई दी
 "प्रणाम पितामह!
भीष्म के सूख चुके अधरों पर एक मरी हुई मुस्कुराहट तैर उठी - 
"आओ देवकीनंदन ! स्वागत है तुम्हारा !!  मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था!!
कृष्ण बोले: "अब क्या कहूँ पितामह ! अब तो यह भी नहीं पूछ सकता कि आप कैसे हैं !
भीष्म चुप रहे , कुछ क्षण बाद बोले  "बड़े अच्छे समय से आये हो !  कुछ पूछना चाहता हूँ। 
सम्भवतः संसार छोड़ने से पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जाएँ !!
कृष्ण बोले - कहिये पितामह - क्या पूछना चाहते हो! 
"एक बात बताओ प्रभु!  तुम तो ईश्वर हो..... 
कृष्ण ने बीच में ही टोका , "नहीं पितामह ! मैं ईश्वर नहीं, मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह "
भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े !  
बोले, " मैं अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया, सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा,
पर अब तो इस जगत से जा रहा हूँ - कन्हैया, अब तो ठगना छोड़ दे रे!!"
कृष्ण भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले " कहिये पितामह !"
भीष्म बोले , "एक बात बताओ कन्हैया !  इस युद्ध में जो हुआ वो सब ठीक था क्या ?"
  "किसकी ओर से पितामह ? पांडवों की ओर से ? या कौरवों की?"

 " कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया !  
पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था 
आचार्य द्रोण का वध , दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार, दुःशासन की छाती का चीरा जाना , जयद्रथ के साथ हुआ छल, 
निहत्थे कर्ण का वध - यह सब ठीक था क्या ?  यह सब उचित था क्या?"

 कृष्ण बोले - इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह! इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह सब किया !!  
उत्तर दें दुर्योधन का वध करने वाले भीम, उत्तर दें कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन!!  
मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह !!
भीष्म - "अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण? 
अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है, 
पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है!  
इसलिए मैं उत्तर भी तुम्ही से मांगूंगा !"

कृष्ण बोले  "तो सुनिए पितामह !  
कुछ भी अच्छा - बुरा या नैतिक - अनैतिक नहीं हुआ ! 
बस वही हुआ है जो होना चाहिए था !"

"यह तुम कह रहे हो केशव? यह मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है ?  
यह छल तो किसी भी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे हो गया ? " भीष्म ने पूछा 

 कृष्ण : इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह, पर निर्णय तो वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर ही लेना पड़ता है! 
हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है !! 
राम त्रेता युग के नायक थे - मेरे भाग में द्वापर आया था !  
हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता !!

भीष्म:  मैं समझ नहीं पाया कृष्ण ! तनिक विस्तार से समझाओ !

कृष्ण:  राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है !  
राम के युग में खलनायक भी रावण जैसा विद्वान् शिवभक्त होता था !!  
तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण जैसे सन्त हुआ करते थे !
तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे! 
उस युग में खलनायक एवं शत्रु भी धर्म का ज्ञान रखता था!!
इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया! 
किंतु मेरे युग के भाग में कंस, जरासन्ध, दुर्योधन, दुःशासन, शकुनी और जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं !! 
उनकी समाप्ति के लिए साम-दाम, दंड -भेद इत्यादि हर उपाय उचित है ! 
पाप का अंत आवश्यक है पितामह, वह चाहे जिस विधि से हो!!"
भीष्म पितामह ने फिर पुछा :
 "तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव?  
क्या भविष्य में लोग तुम्हारी इन बातों का अनुसरण नहीं करेंगे?  
और यदि करेंगे तो क्या यह उचित होगा?" 

" भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह !  
कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा !
वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा। नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा !  
जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ सत्य एवं धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, 
तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह !  
तब महत्वपूर्ण होता है अधर्म का नाश - और धर्म की विजय ! 
भविष्य को भी यह सीखना ही होगा पितामह !!"

भीष्म: "क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव ? 
और यदि धर्म का नाश होना ही है, तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है?"

 कृष्ण:  "सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह! 
 ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता ! केवल मार्ग दर्शन करता है
कार्य तो मनुष्य को स्वयं ही करना पड़ता है ! 
आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं - तो बताइए पितामह, क्या मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया?  सब पांडवों को ही तो करना पड़ा न ? 
यही प्रकृति का विधान है !  
युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से ! 
यही परम सत्य है !!"

भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे ! 
उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी ! 
कृष्ण भीष्म को प्रणाम कर लौट चले पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भी भविष्य को जीवन का एक सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था .... !

जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ  सत्य और धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ दोहराना और निष्क्रिय हो कर बैठ जाना आत्मघाती होता है।।
                                                 धर्मों रक्षति रक्षितः 
                                     - - - - - - - - - - - - - 
जैसा कि मैने ऊपर कहा - उपरोक्त कहानी web के सौजन्य से एक मित्र ने भेजी थी लेकिन इस के रचयिता अथवा प्रेषक का नाम नहीं लिखा।   
मैं नहीं जानता कि इसे लिखते समय लेखक का भाव - मन्तव्य अथवा उद्देश्य क्या था - 
इसलिए उनके विचारों से मेरा सहमत होना या न होना कोई मायने नहीं रखता। 
लेकिन यदि इस कहानी को आध्यात्मिक पहलू से देखा जाए तो हमें इस से जीवन में काफी मार्गदर्शन मिल सकता है।  
जब प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण नकारात्मक विचार हमारे मन पर हावी होने लगते हैं तो अक़्सर हम उदास हो कर - इसे प्रभु इच्छा मान कर  निष्क्रिय हो कर बैठ जाते हैं। या ये कह कर स्वयं को तथा औरों को तसल्ली देने की कोशिश करते हैं कि जो भगवान् चाहेंगे वो हो जाएगा। 
हम नकारात्मक विचारों को रोकने और परिस्तिथियों को बदलने की कोशिश करने की बजाए सब कुछ प्रभु पर छोड़ कर बैठ जाते हैं। 
महाभारत युद्ध में कृष्ण ने स्वयं कुछ नहीं किया - केवल अर्जुन का रथ चलाया। अर्थात उसे दिशा दी तथा जिस तरफ अर्जुन जाना चाहता था उसे वहां जाने में मदद की लेकिन युद्ध अर्जुन को स्वयं ही करना पड़ा। 
भगवान कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है :
                     "नादत्ते कस्य चित्तपापं न सुकृतं विभुः "
अर्थात ईश्वर न किसी के पाप चितारता है न शुभ कर्म 
प्रभु एक शक्ति है - एक प्रेरणा है 
कर्म मनुष्य के अधिकार में है -
कर्म करना मनुष्य का कर्तव्य है 
अपनी नकारात्मक भावनाओं से हमें स्वयं लड़ना होगा 
ज्ञान और भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए हमें स्वयं अपने वातावरण को अनुकूल बनाने का प्रयास करना होगा। 
बेशक़ अरदास और परार्थना का प्रभाव पड़ता है लेकिन कर्म सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

भगवान् कृष्ण ने गीता में एक और प्राकृतिक नियम की ओर भी ध्यान दिलाया है कि  मनुष्य कर्म के बिना कभी रह ही नहीं सकता। 
कोई न कोई कर्म तो हमें हर समय करना ही पड़ता है - कुछ न करते हुए निठल्ले बैठे रहना भी एक प्रकार से कर्म ही है। 
इसलिए - यदि हम कर्म से बच ही नहीं सकते तो क्यों न शुभ कर्मों की ओर अग्रसर हों? 
क्यों न कंस,शकुनी एवं दुःशासन जैसे नकारात्मक विचारों का वध करके शुभ विचारों को लाने का प्रयास करें ? 
अपने मन के धर्मक्षेत्र में अधर्म का नाश करके धर्म की स्थापना करें। 

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