पतझड़ का टुटा पत्ता ही हूँ
अभिशप्त नहीं मैं
आती जाती ऋतुओं के संग
आँख मिचोली खेली मैने
बसंत, सावन भादों की
भर दी झोली मैने
और पतझड़ के संग तो कितनी
खेली होली मैने
जीवन के हर प्रहर
हर छण रस पिये मैने
अंकुर से बीज तक
न जाने कितने जीवन सींचे मैने
टूट कर शाख से दूर अब
सोचता हूँ।
नहीं अभिशप्त नहीं
नहीं अभिशप्त नहीं
कितना तृप्त हूँ मैं
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