अकसर कोई भी काम करने से पहले हर व्यक्ति के मन में एक प्रश्न उठता है कि ऐसा करने से मुझे क्या मिलेगा ।
जब किसी को सत्संग के लिए प्रेरणा दी जाती है तो स्वभाविक है कि उनके मन में भी यह प्रश्न उठता होगा ।
या हम स्वयं ही, प्रेरणा देने के साथ साथ सत्संग के लाभ भी ब्यान कर देते हैं ।
जैसे कि : सत्संग करने से दुःख दूर हो जाएंगे - बिगड़े काम बन जाएंगे तथा इच्छाएँ पूर्ण होंगी । अथवा भक्ति भाव बढ़ेगा तथा मन को शान्ति मिलेगी इत्यादि । ऐसा सुन कर कुछ लोग दुःख निवृति के लिए आ जाते हैं तो कुछ इच्छाओं की पूर्ति के लिए । कुछ जिज्ञासु लोग ज्ञान प्राप्ति के लिए और कुछ भक्ति भाव से केवल मन की शान्ति के लिए भी सत्संग में आते हैं ।
इस में कोई शंका नहीं कि सत्संग में आने से उपरोक्त सभी बातें पूर्ण हो सकती हैं लेकिन श्री आदि शंकराचार्य एक बहुत सुंदर एवं गहरी बात कहते हैं :
"सत्संगत्वे नि:संगत्वं, नि:संगत्वे निर्मोहत्वम् ॥"
अर्थात सत्संग करते करते धीरे धीरे मन 'नि:संगत ' अथवा संगत - रहित हो जाता है ।
नि :संगत होने के पश्चात निर्मोहत्व की अवस्था प्राप्त होती है अर्थात मिथ्या मोह से बच कर मन स्वयं में स्थित हो जाता है ।
यदि हम गहराई से विचार करें तो हम पाएंगे कि हमारा मन हर समय किसी न किसी की संगत में ही रहता है । कभी भी अकेला नहीं रहता । मन के परम मित्र हैं आशा - तृष्णा , काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद (अभिमान) और मत्सर (ईर्ष्या ) जो किसी भी समय मन को अकेला नहीं छोड़ते ।
आदि शंकराचार्य कहते हैं कि सत्संग का सब से बड़ा लाभ ये है कि मन काम क्रोधादि की संगत से हट कर 'अकेला ' हो जाता है तथा 'स्वयं ' अर्थात 'निश्चल तत्व ' में स्थित हो जाता है ।
"निर्मोहत्वे निश्चल तत्वम, निश्चल तत्वे जीवन मुक्ति:"
अर्थात निर् - मोहत्व की अवस्था प्राप्त करने के पश्चात 'निश्चल तत्व ' में स्थित होने से ही जीवन मुक्ति प्राप्त हो सकती है ।
सत्संग करने से लोभ मोहादिक का संग छूट जाता है तथा गुरु कृपा से निराकार पारब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करके निज-स्वरूप में स्थित जीव अमर हो जाता है ।
'राजन सचदेव '
Sooo true
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