यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥
" भज गोविन्दम ॥१९॥
अर्थ:
योग में संलग्न हों या भोग में -
संगति में या संगति से रहित - एकांत में
जिसका मन ब्रह्म - अर्थात परम सत्य में स्थिर रहता है
वह सदैव शांतिपूर्ण और प्रसन्न रहता है।
(आदि शंकराचार्य - भज गोविंदम)
इस श्लोक से दो अर्थ निकाले जा सकते हैं
1
कुछ लोग योग अर्थात त्याग और अनुशासन पूर्ण जीवन को अच्छा मानते हैं
और कुछ भोग अर्थात विलासिता पूर्ण जीवन जीना चाहते हैं
कुछ लोग हमेशा दूसरों का संग चाहते हैं - जबकि कुछ को अलगाव - अकेले रहना पसंद है।
लेकिन यथार्थ में जिनका मन निरंतर ब्रह्म अर्थात ईश्वर के ध्यान में मग्न रहता है
केवल वही परम आनंद का अनुभव करते हैं।
2
चाहे योग में संलग्न हों या भोग में -
आसक्ति या वैराग्य में - संगति में या एकांत में -
जिसका मन हर अवस्था में निरंतर ब्रह्म में स्थिर रहता है
वह हमेशा शांत और परम आनंद की अवस्था में रहता है।
"राजन सचदेव "
2
चाहे योग में संलग्न हों या भोग में -
आसक्ति या वैराग्य में - संगति में या एकांत में -
जिसका मन हर अवस्था में निरंतर ब्रह्म में स्थिर रहता है
वह हमेशा शांत और परम आनंद की अवस्था में रहता है।
"राजन सचदेव "
🙏🙏🙏🙏👌
ReplyDeleteThis is beautiful 🙏
ReplyDeleteअंतर्मुखी सदासुखी
ReplyDeleteअनूठी व्याख्या.. अहोभाव।
ReplyDeleteVeer ji aap ke jase koi hame samjha nahi sakta aap Salaamat raho ur har ek ka margdarshan karte raho 🌺🌷
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