दो बूँदें सावन की
इक सागर की सीप में टपके और मोती बन जाए
दूजी गंदे जल में गिरकर अपना आप गँवाए
किसको मुजरिम समझे कोई, किसको दोष लगाए
दो कलियां गुलशन की
इक सेहरे के बीच गुँधे और मन ही मन इतराए
इक अर्थी की भेंट चढ़े और धूलि में मिल जाए
किसको मुजरिम समझे कोई, किसको दोष लगाए
दो सखियाँ बचपन की
एक सिंहासन पर बैठे और रुपमति कहलाए
दूजी अपने रुप के कारण गलियों मे बिक जाए
किसको मुजरिम समझे कोई किसको दोष लगाए
" साहिर लुध्यानवी "
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Is this destiny or Karma?
ReplyDeleteAmazing thought
ReplyDeleteधन निरंक़ार।
ReplyDeleteयही सच्चाई है।
Ati sunder!
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