और पिता सोचता है कि बेटा कल भूखा ना रहे
माँ घंटों इंतज़ार करती है कि बेटे को खिला कर सोएगी -
कहीं बेटा भूखा न सो जाए।
और पिता सारी उमर अपने सुख आराम का त्याग करता रहता है -
और पिता सारी उमर अपने सुख आराम का त्याग करता रहता है -
अपने शौक़ मन में ही दबाए रखता है - पैसा बचाता है - कंजूस कहलाता है -
किसलिए ?
बच्चों को पढ़ाने के लिए - उनका कारोबार - उनका business set करवाने के लिए -
बच्चों को पढ़ाने के लिए - उनका कारोबार - उनका business set करवाने के लिए -
ताकि उसके मरने के बाद भी कहीं बच्चे भूखे न रहें।
मां और पिता - दोनों का जीवन त्यागमयी होता है
अंतर केवल इतना है कि
मां अक़्सर कहती रहती है कि याद रखो कि मैंने तुम्हारे लिए कितना त्याग किया है
और पिता खामोश रहता है - कभी कहता नहीं।
माताएँ भावुक और अभिव्यंजक होती हैं - अपनी भावनाओं को प्रकट करना चाहती हैं -
अपने मन की बात कहने में संकोच नहीं करतीं।
पिता स्वभाव से ही मितभाषी और संकोची होते हैं
उनके आंसू और भय अदृश्य होते हैं
उनका प्यार अव्यक्त होता है
लेकिन उनकी देखभाल और सुरक्षा की अदृश्य भावना -जीवन भर हमारे लिए शक्ति का स्तंभ और प्रेरणा का स्तोत्र बनी रहती हैं।
अक़्सर लोगों में ये बहस रहती है कि मां और बाप में से किसका त्याग बड़ा है ?
लेकिन क्या ये तुलना करना ज़रुरी है ?
दोनों का त्याग अपनी अपनी जगह है - दोनों का त्याग महान एवं मूल्यवान है।
महत्वपूर्ण बात ये है कि तुलना करने की अपेक्षा हम दोनों के त्याग के मूल्य एवं महत्त्व को समझें और दोनों का सामान रुप से आदर करें।
तथा समय आने पर दोनों की सेवा करके उनके त्याग का कुछ तो फल उन्हें लौटाने का प्रयत्न करें।
' राजन सचदेव '
🙏🙏
ReplyDeleteतुलना आवश्यक तो नही हैं परन्तु जब भी किसी प्रकार की दो वस्तु होती है चाहे प्रेम ही क्यों न हो, दिमाग उन्हें परखने लग ही जाता है।
ReplyDelete🙏🏿
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