संगत में हमें विनम्र होना सिखाया जाता है - कहा जाता है कि विनम्रता सबसे अच्छा गुण है।
लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है जब हमें अपमान का सामना करना पड़ता है - विशेष रुप से जब हमारे वरिष्ठ अधिकारी हमें निरादर की दृष्टि से देखते हैं और सब के सामने अपमानित भी कर देते हैं तो मन में अशांति पैदा होती है - तो ऐसे में हम विनम्र कैसे रह सकते हैं ?
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विनम्रता बनाम निरादर एवं अपमान
विनम्रता और निरादर अथवा अपमान सहने में अंतर है।
विनम्रता एक सकारात्मक गुण है - जिसका चयन हम स्वयं करते हैं - जिसे हम स्वयं अपनाते हैंजबकि निरादर एवं अपमान एक नकारात्मक भावना है जो दूसरों से मिलती है - जो दूसरों के द्वारा दी जाती है - जिसे किसी मजबूरी के कारण सहन करना पड़ता है - उसमे विवशता है - असहायता का भाव है।
इसलिए विनम्रता - और निरादर एवं अपमान को सहन करना - इन के बीच के अंतर को समझना ज़रुरी है।
विनम्रता - निस्संदेह, सबसे बड़ा गुण है - लेकिन आत्म-सम्मान की कीमत पर नहीं।
स्वाभिमान का न होना लोगों को हमारा निरादर और अपमान करने का निमंत्रण दे सकता है।
अपमान से मन में कई अन्य नकारात्मक भावनाएँ - जैसे क्रोध, ईर्ष्या, खिन्नता, दीनता और पछतावा इत्यादि मन में पैदा होने लगती हैं जो किसी के लिए भी अपने मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए बाधा बन जाती हैं।
दूसरी ओर, विनम्रता और आत्म-सम्मान हमें आगे बढ़ने में मदद करते हैं।
जहां अपनी दुर्बलताओं - कमज़ोरियों और कमियों का ज्ञान होना विनम्रता की एक निशानी है वहीं विनम्रता का अर्थ है कि अपने ज्ञान - अपनी क्षमताओं - योग्यता और प्रतिभा (talents) का मिथ्या अभिमान एवं अहंकार का न होना।
यह अहंकार की भावना ही है जो हमें अपनी श्रेष्ठता को दूसरों पर थोपने की इच्छा पैदा करती है - जो हमें दूसरों को अपमानित करने के लिए उत्साहित करती है।चाहे किसी के पास कितना भी ज्ञान, धन, या पद-प्रतिष्ठा इत्यादि क्यों न हो - किसी को भी किसी और का निरादर करने और उन्हें सबके सामने अपमानित करने का कोई अधिकार नहीं है।
शिष्टाचार की सीमाओं का उलंघन करना अच्छा नहीं होता। कभी न कभी उनके परिणाम भी सामने आ जाते हैं।
और वैसे भी एक आध्यात्मिक व्यक्ति तो स्वभावतः ही- स्वभाविक रुप से सभी का सम्मान ही करता है और किसी का अपमान करने के बारे में सोच भी नहीं सकता।
जैसा कि गुरबानी कहती है:
भय काहू को देत नहिं - नहिं भय मानत आन
कहु नानक सुनि रे मना ग्यानी ताहि बखान "
(गुरबानी - महला 9)
अहंकार स्वयं के विकास के साथ-साथ अन्य लोगों और साथियों के विकास को भी रोक देता है
जैसा कि गुरबानी कहती है:
भय काहू को देत नहिं - नहिं भय मानत आन
कहु नानक सुनि रे मना ग्यानी ताहि बखान "
(गुरबानी - महला 9)
ज्ञानी किसी को भी भय दे कर उसका निरादर नहीं करता।
अहंकार स्वयं के विकास के साथ-साथ अन्य लोगों और साथियों के विकास को भी रोक देता है
जबकि विनम्रता हमें और आगे ले जा सकती है।
इसलिए अभिमानी नहीं - विनम्र बनें और साथ ही साथ अपना आत्म-सम्मान भी बनाए रखें।
' राजन सचदेव '
इसलिए अभिमानी नहीं - विनम्र बनें और साथ ही साथ अपना आत्म-सम्मान भी बनाए रखें।
' राजन सचदेव '
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