Friday, October 16, 2020

सेवा की भावना

कठोपनिषद में नचिकेता की कहानी फिर से पढ़ते हुए मुझे लगा कि यह वाक्यांश काफी महत्वपूर्ण है और इस पर विचार किया जाना चाहिए।

“पुरोहितों (धर्म प्रचारक एवं संतों) को प्रसाद एवं सेवा के रुप में जो कुछ भी दिया जाता है, उन्हें उसको प्रेम से स्वीकार करना चाहिए, चाहे वे इसे पसंद करें या न करें। साथ ही उन्हें 'यजमान' -अर्थात सेवा करने वाले को आशीर्वाद देना चाहिए। यह उनके पुरोहित धर्म के कर्तव्यों में से एक है ”।

इस पर चिंतन करते हुए, मुझे इस विषय से संबंधित कुछ व्यक्तिगत प्रसंग याद आ गए।
1

सौभाग्य से कभी कभी मुझे भापा राम चंद जी की प्रचार यात्राओं में उनके साथ जाने का सुअवसर प्राप्त हो जाता था।  
एक प्रचार टूर के दौरान हुई एक घटना ने मेरी धारणा - मेरे सोचने का ढंग बदल दिया। 

सुबह, नाश्ता करने के बाद हम अगले स्टेशन के लिए रवाना होने के लिए तैयार थे। मेजबान महात्मा ने परिवार सहित भापा जी को नमस्कार करने के बाद उनके चरणों में एक बैग रखा - जिसमें कुछ कपड़े थे - और बहुत विनम्रता से उसे स्वीकार करने का अनुरोध किया। 
भापा जी ने उन की ओर देखा और बहुत प्यार से कहा आप तो पहले ही बहुत सेवा कर चुके हैं - संगत और लंगर की व्यवस्था के इलावा और भी कई तरह से अन्य संतों की सेवा की है। आपको यह मेरे लिए नहीं खरीदना चाहिए था।

उस 
महांपुरुष ने हाथ जोड़कर कहा - महाराज - यह हमारी हार्दिक इच्छा है। कृपया इस छोटी सी सेवा के रुप में हमारे श्रद्धा सुमन स्वीकार करें। 

उस समय, भापा जी ने बहुत प्रेम से उन कपड़ों को अपने हाथ में लिया, और प्यार से उनकी पीठ सहलाते हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि सच्चा पातशाह मेहर करे- निरंकार दातार सुख दे और बेमोहताज़ रखे। 

फिर वो महांपुरुष मेरी तरफ मुड़े और मुझे एक लिफाफा देते हुए 
कहा कि यह आपके लिए एक छोटी सी सेवा है। 
मैं दो क़दम पीछे हटा और बड़ी दृढ़ता से कहा "नहीं जी नहीं। मैं नहीं लूंगा। 
उन्होंने फिर जोर देकर दो-तीन बार कहा लेकिन मैंने हर बार इंकार कर दिया और कहा कि आप पूज्य भापा जी की सेवा करो ... मैं तो सेवादार हूँ - मुझे कुछ नहीं चाहिए। 

भापा जी ये सब देख रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा - कोई बात नहीं बेटा - वो इतने प्रेम से दे रहे हैं तो ले लो। 

मैंने कहा “नहीं भापा जी। मैं नहीं लूंगा।
उन्होंने पूछा क्यों? 
मैंने कहा कि मैं तो आपकी सेवा करने के लिए आपके साथ आया हूँ - सेवा करवाने के लिए नहीं - मैं किसी से कोई सेवा नहीं लेना चाहता। वैसे भी मुझे किसी चीज़ की ज़रुरत नहीं है। 

फिर जो उन्होंने कहा , उसने मुझे अंदर तक हिला दिया। 
“उन्होंने कहा बच्चू - सेवा का भी अहंकार अच्छा नहीं होता। ये कहना कि मैं सेवा करुँगा - करवाऊंगा नहीं - ये भी अहंकार का ही एक रुप है। क्या तुम इस अहंकार की वजह से इंकार कर रहे हो ?     
मैंने कहा नहीं भापा जी - मेरा मतलब यह नहीं है।

उन्होंने कहा: तो फिर बेटा ! इसे ले लो और उन्हें नमस्कार करके उनका धन्यवाद करो और उनके सुख के लिए अरदास करो।

चूंकि मैं भापा जी की अवज्ञा नहीं करना चाहता था, इसलिए मैंने अनिच्छा से उसे ले तो लिया - लेकिन मन में कुछ उथल पुथल सी होती रही।

बाद में, रास्ते में बस में यात्रा करते समय, उन्होंने मुझे समझाया कि क्या सही है और क्या नहीं - उपयुक्त व्यवहार क्या है और क्या नहीं । 

उन्होंने कहा कि जब लोग हमें कोई उपहार देते हैं - कोई सेवा करते हैं तो इसलिए नहीं कि उन्हें लगता है कि हमें उन चीज़ों की आवश्यकता है। 
यह तो उनकी श्रद्धा, और प्रेम है। 
किसी महात्मा या प्रचारक को कभी भी किसी से कोई मांग नहीं करनी चाहिए - उनसे किसी वस्तु या किसी प्रकार की सेवा की अपेक्षा और उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। लेकिन अगर कोई आपको श्रद्धा और प्रेम से कुछ देता है, तो उसे कृतज्ञता के साथ स्वीकार करके उनके लिए अरदास करो। 
इनकार करने से उनकी भावनाओं को चोट पहुंचेगी। 
वे सोचेंगे कि आप बहुत अहंकारी हैं और उनकी भावना का निरादर कर रहे हैं। उन्हें लगेगा कि उनकी दी हुई चीज़ आपको पसंद नहीं आई इसलिए इंकार कर रहे हो। जो कुछ भी कोई प्रेम से दे - चाहे वो आपको पसंद हो या न हो - उसे उसी प्रेम और श्रद्धा से ले लो बल्कि सर माथे से लगा कर उसकी सराहना करो।  मन में लालच मत रखो लेकिन इंकार करके किसी की भावना का तिरस्कार भी मत करो।"

इस प्रकार की बहुत सी सुनहरी बातें उनके साथ रह कर सीखने को मिलीं जो कि नियमित एवं आयोजित सत्संग में नहीं मिल सकती थीं। 

2

फरीदकोट पंजाब में मेरे कॉलेज के दिनों के दौरान, डाक्टर अत्तर सिंह जी 
लुधियाना (जो बाद में पटना और फिर मुखर्जी नगर दिल्ली चले गए थे ) अक़्सर फरीदकोट और आसपास के इलाकों में प्रचार के लिएआया करते थे। ज्ञानी जोगिंदर सिंह जी ने डॉक्टर अत्तर सिंह जी के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया था इसलिए वे उनका बहुत सम्मान करते थे। 
उनका मानना ​​था कि जो संत आप को ज्ञान प्रदान करता है, उसे गुरु के समान ही आदर और सम्मान देना चाहिए इसलिए  ज्ञानी जी के मन में डाक्टर साहिब के प्रति बहुत आदर का भाव था। 

मुझे भी डाक्टर अत्तर सिंह जी के व्यक्तित्व और उनके शास्त्रों तथा गुरबाणी के ज्ञान ने काफी प्रभावित किया था। वे एक प्रभावशाली वक्ता थे।
उनके बोलने और समझाने का ढंग बहुत अच्छा था - हर बात को बहुत धैर्य के साथ बड़ी गहराई और व्याख्या सहित समझाते थे। 
मुझे हमेशा उनकी प्रचार यात्रा का इंतज़ार रहता था और जब भी संभव होता, उनके साथ आसपास के शहरों और गांवों में जाने का सौभाग्य भी मिल जाता था।

ऐसे ही एक टूर के दौरान, मुझे और दो अन्य युवा सदस्य कुलवंत सिंह जी* और मदन लाल जी** को डाक्टर अत्तर सिंह जी और ज्ञानी जी के साथ पास के दो गाँवों में जाने का अवसर मिला। दोनों स्थानों पर 
सत्संग के बाद वे कुछ भक्तों के घर भी गए। कुछ महांपुरुषों ने उन्हें कुछ कपड़े भेंट किए। चूँकि हम तीनों सेवादार के रुप में उनके साथ थे। उनका सामान लाने - लेजाने और उस की देखभाल करने की सेवा कर रहे थे इसलिए वो कपड़े हमने लिए और एक अलग बैग में रख लिए।

जब हम वापस फरीदकोट भवन पर पहुँचे, तो हमने डाक्टर साहब का सूटकेस उनके कमरे में रखा और उन कपड़ों के बैग खोले। 
उन में बहुत ही साधारण किस्म के सस्ते कपड़े थे। उन को देखकर हम सोचने लगे कि क्या डाक्टर साहब उन्हें पसंद करेंगे?

 डाक्टर अत्तर सिंह जी अपने पहनावे का ख़ास ख्याल रखते थे। हालांकि वो हमेशा सफेद कुर्ता- पायजामा ही पहना करते थे लेकिन उनके कपड़े बहुत बढ़िया क़्वालिटी के होते थे। उस दिन गाँवों में मिले हुए कपड़े उनके मतलब के नहीं थे। हम ने सोचा कि अगर वह उनका उपयोग ही नहीं करेंगे तो उन के सामान में और वजन बढ़ाने का क्या फ़ायदा ?
उनमे से दो कपडे - जो हमें कुछ ठीक लगे - जिनका इस्तेमाल शायद नाइट सूट जैसी किसी चीज़ के लिए किया जा सकता था - वो उनके सामान के साथ रख दिए और बाकी कपड़े सतसंग हाल की अलमारी में रख दिए। 

डाक्टर साहब ने देखा और कहा "मुझे लगता है कि कुछ कपड़े और भी थे।"
कुलवंत जी ने कहा - वो अच्छे नहीं है ... आपके मतलब के नहीं हैं । हमने उन्हें स्टोरेज में ज़रुरतमंद  लोगों को देने के लिए रख दिया है । 
वो बोले - "नहीं नहीं। वो भी ले के आओ और मुझे दो।

मदन जी जल्दी से गए और वो कपड़े ले आए और सम्मानपूर्वक उनके सामने रख दिए।
उन्होंने एक कपड़ा उठाया - अपने हाथ में लेकर मुस्कुराते हुए देखा और उसे अपने बिस्तर पर फैला कर उस पर बैठ गए। फिर दूसरा कपड़ा उठाया - उसे खोला, और अपने पैरों पर रख लिया।

और फिर अपनी सामान्य मुस्कुराहट और आकर्षक शैली में, उन्होंने हमें नरम और मधुर स्वर में संबोधित किया - जो हम सब के लिए एक महान सबक बन गया जो उस समय उस कमरे में मौजूद थे।

उन्होंने कहा " कभी किसी के श्रद्धा-भाव को कम मत समझो और उनकी भावनाओं के साथ मत खेलो। आपको क्या पता है कि 
जब उन्होंने यह सेवा की तो उनके मन में क्या भाव था ? 
शायद वो ग़रीब हैं और महंगे कपड़े नहीं खरीद सकते - लेकिन उनकी भावना तो किसी से कम नहीं है। वे ये कपड़े मेरे लिए लाए - प्रेम और सत्कार से मुझे दिए - मेरे शरीर के लिए - मेरे द्वारा उपयोग किए जाने के लिए। मुझे उसी भाव से, उसी प्रेम के साथ, स्वीकार करना चाहिए और किसी न किसी तरह इसका इस्तेमाल भी करना चाहिए। यह सच है कि मैं इन के कुर्ते बनवा कर शायद न पहनूं , लेकिन आज रात के लिए इन्हें बेडशीट के रुप में तो इस्तेमाल कर सकता हूँ। इस तरह उनकी श्रद्धा पूरी हो जाएगी। फिर बाद में हम इन्हें किसी अन्य उद्देश्य के लिए उपयोग कर सकते हैं या किसी ऐसे व्यक्ति को दे सकते हैं जो इनका उपयोग कर सकता है।"

सभी की भावना को समझना और उसका सम्मान करना -
 उनकी यह सोच कितनी महान थी।
                                            ' राजन सचदेव '

*कुलवंत सिंह जी --- उपाशक जी के छोटे भाई 
**मदन लाल जी  --- आजकल वेनकुवर - कैनेडा में हैं 

6 comments:

  1. Never thought so deeply on these acts..even at home also when we get gifts,we comment..
    Mahapursho,thanks for the valuable advice

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  2. Real sense of service which matters n not what n how is that matters. "Pearls of wisdom"

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  3. Very true but unfortunately it has become a ritual and many are doing this for the sake of doing and I have seen many just copy it without understanding the feelings. I have interacted with many nirankari saints stating ye toa karna padta hai na...and those who can't afford they don't call saints at home out of fear that we have to spend so much...thats the reality secondly many have cultivated the habit of taking and started demanding and getting angry if they don't get anything...side effects to saved from..unless this feelings of seva is there all becomes Vyavhar...returning etc..

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    1. You are right Virendra ji. Seva should be done from the heart - not as a ritual or for a show-off. Not with Majboori- that karnaa hi padega......
      Everyone who is doing the Seva and the one who is being served should be responsible for their own action and motive.
      As I mentioned in the article, Honesty and integrity are very important from both sides.

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