मानव स्वभाव के अनुसार हम जो कुछ भी देखते या सुनते हैं अथवा किसी परिस्थिति का सामना करते हैं तो उसका मूल्यांकन करने की कोशिश करते हैं। हर बात को अच्छे और बुरे के तराज़ू पर तोलना चाहते हैं।
हम अपनी समझ और धारणा के अनुसार हर चीज और हर घटना को सही या गलत - अच्छे या बुरे के रुप में देखते हैं - उन धारणाओं के आधार पर जो कि हमारे पिछले अनुभवों और पूर्व-संचित विचारों के आधार पर बनी होती हैं।
और हमारी धारणाओं के अनुसार जब हमें लगता है कि कोई बात ग़लत है - या जो हुआ वह ठीक नहीं है तो हम उस की आलोचना करना शुरु कर देते हैं।
चाहे वो आलोचना हम दूसरों के सामने करें या सिर्फ अपने मन में।
दोनों ही तरह से, वह सबसे पहले हमारे अपने मन में अशांति पैदा करती है।
और जब हमारा मन अशांत होता है तो हम अपनी प्रगति - अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकते - उस अवस्था तक नहीं पहुँच सकते जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं।
प्रकृति किसी चीज़ या घटना को सही या ग़लत - अच्छे या बुरे के रुप में नहीं देखती।
हम इंसान उन्हें सही या गलत के रुप में देखते हैं - उन पर अच्छे और बुरे के लेबल लगा देते हैं।
इसलिए जब हमारी दृष्टि में कुछ बुरा हो जाता है, तो हम सवाल करते हैं कि प्रकृति या ईश्वर ऐसा कैसे कर सकते हैं ?
हम पूछने लगते हैं - इस समय भगवान कहाँ है?
वह बुरे लोगों या बुरी बातों और भयानक घटनाओं को होने से क्यों नहीं रोकता?
क्योंकि हम अपने हित - अपने स्वार्थ के अनुसार हर चीज को अच्छा या बुरा समझते हैं।
इसलिए, हम न केवल लोगों और परिस्थितियों को परखने और उनका मूल्यांकन करने की कोशिश करते हैं बल्कि प्रकृति और परमात्मा के कामों को भी आंकने और उनमे दोष निकालने का प्रयत्न करते हैं।
समर्पण का अर्थ है हर परिस्थिति को जैसी है वैसे ही स्वीकार कर लेना और प्रकृति और समय के प्रवाह के साथ बहते जाना।
ऐसा करना कठिन लगता है -
लेकिन क्या कभी किसी ने ये कहा है कि ईश्वर या प्रकृति की इच्छा के आगे समर्पण आसान है?
' राजन सचदेव '
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