कठोपनिषद के पहले भाग से सीखने योग्य कुछ महत्वपूर्ण बातें
वेद अधिकतकर "कर्म-कांड" पर आधारित हैं, जो समय, स्थिति एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि के अनुसार इच्छाओं की पूर्ति के लिए दैनिक व्यवस्थित अनुष्ठान करने की प्रेरणा एवं आज्ञा देते हैं।
लेकिन समय के साथ, ये अनुष्ठान लगभग यांत्रिक एवं भावना रहित हो गए हैं - और न ही कोई इनका सही अर्थ एवं कारण जानने की कोशिश करता है।
और ठीक यही नचिकेता के पिता भी कर रहे थे।
वह अपनी इच्छापूर्ति के लिए एक विशेष यज्ञ कर रहे थे। लेकिन यह सिर्फ एक यांत्रिक अनुष्ठान था।
वह पुरोहितों और गरीब ब्राह्मणों को दान के नाम पर एक हज़ार बूढी - मरणासन्न गायों को बिना सोचे समझे दे रहे थे कि वह उनके लिए उपयोगी भी होंगी या नहीं? क्या वो उनके किसी काम आएंगी या नही?
नचिकेता, इतनी छोटी उम्र में भी देख सकता था कि यह वास्तव में कोई दान का कार्य नहीं था।
उसने देखा कि वे गायें उन ब्राह्मण पुजारियों के लिए बेकार होंगी क्योंकि वे न तो दूध दे सकतीं थीं और न ही संतान पैदा कर
सकतीं थीं। वो इतनी निर्बल थीं कि उठ कर घास चरने के लिए जाने में भी असमर्थ थीं। ब्राह्मणों को उनसे कुछ भी लाभ होने की संभावना नहीं थी - उल्टा उन्हें उनकी देखभाल - उनके भोजन और पानी इत्यादि का प्रबंध करना पड़ेगा
वे गायें इतनी कमजोर थीं, कि वे वास्तव में उन पुजारियों के लिए बोझ बनने वाली थीं।
नचिकेता एक बुद्धिमान युवा बालक है और इस बात को समझ रहा है।
वह यह भी जानता है कि वे ब्राह्मण पुजारी ऐसा दान स्वीकार करने के लिए मना भी नहीं कर सकते।
क्योंकि उन्हें प्रसाद एवं दक्षिणा के रुप में जो कुछ भी दिया जाता है, उसे स्वीकार करना उनका धर्म है - चाहे वह उन्हें अच्छा लगे या नहीं।
उनका धर्म है कि यजमान से जो भी दक्षिणा मिले, वो उसे ले कर यजमान को आशीर्वाद दें।
दुनिया भर में सभी धर्म और समाज कल्याण संगठन दान देने का प्रचार प्रसार करते हैं।
लेकिन दान, दक्षिणा, सेवा एवं भेंट (Gift) एक पवित्र कार्य है - इसलिए इसे हृदय से - प्रेम और श्रद्धा के साथ
दिया जाना चाहिए।
लेने वाले की (जिसे दान, सेवा अथवा भेंट इत्यादि दी जा रही हो) उसकी ज़रुरत और दी जाने वाली वस्तु की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए विनम्र भाव से की गई भेंट ही सही सेवा मानी जा सकती है।
कुछ साल पहले एक रविवारीय सत्संग के दौरान अपने प्रवचन में, इंग्लैंड के एक प्रसिद्ध प्रचारक महात्मा ने अपने प्रवचन के दौरान इस विषय पर भी बात की।
उन्होंने कहा कि कई बार हम कपड़े और अन्य चीजें इत्यादि खरीद लेते हैं लेकिन उसी समय उनका इस्तेमाल नहीं करते। जब हम कुछ समय बाद उन्हें देखते हैं, तो वे हमें बेकार लगती हैं या अच्छी नहीं लगतीं। लेकिन अगर उनकी रसीद संभाल के न रखी हो तो हम उन्हें वापस भी नहीं कर सकते।
ऐसे में क्या करें? अब क्या किया जाए?
तो हम सोचते हैं कि अब ये हमारे काम की तो है नहीं - पर चलो - जब कोई मेहमान आएंगे - या किसी प्रचरक महात्मा को घर बुलाएंगे तो उनकी सेवा में भेंट के रुप में दे देंगे।
एक पंजाबी कहावत के अनुसार: 'नाले पुन्न, ते नाले फलियां।'
अवांछित चीजों से छुटकारा पाने के लिए ये अच्छा तरीका है और साथ ही साथ दान भी हो जाएगा - सेवा भी हो जाएगी।
और कितने ही लोग ऐसा करते हैं।
उन्होंने आगे कहा कि ऐसा करने में कुछ ग़लत भी नहीं है।
लेकिन अगर हम बिना सोचे समझे कोई भी चीज़ उठा कर दे दें - चाहे वो उनके मतलब की हो या न हो - उनके किसी काम की न हो - तो उसका क्या प्रयोजन है? क्या फायदा है?
उदाहरण के लिए, बड़े क़द के लोगों को छोटे साइज़ के कपड़े - और छोटे या दुर्बल शरीर वाले लोगों को एक्स्ट्रा लार्ज (Extra large size) के कपड़े दे दें तो उनके किस काम आएंगे?
उन्होंने अपनी कुछ देश-विदेश यात्राओं के दौरान कुछ व्यक्तिगत अनुभव भी साँझे किए, जब उन्हें बड़ी मात्रा में कपड़े और अन्य उपहार मिले, जो उनके या उनके परिवार के लिए किसी काम के नहीं थे। न केवल वो उन्हें स्वीकार करने के लिए बाध्य हुए - बल्कि जहां जहाँ भी गए वहां उन्हें अतिरिक्त भार उठाना पड़ा। यहां तक कि एयरलाइन ने भी उनसे अतिरिक्त सामान के लिए चार्ज कर लिया। वापिस इंग्लैंड में अपने घर पहुंच कर उन्होंने उन कपड़ों और अन्य वस्तुओं Gifts इत्यादि को ये सोच कर अलमारी में रख दिया कि उनके पास आने वाले मेहमान और प्रचारक महात्माओं की सेवा कर देंगे। इस तरह से ये रीसाइकल (Recycling) का सिलसिला चलता रहता है।
ज़रा विचार करें कि इस तरह के दान या सेवा से किस को लाभ होता है?
वैसे भी हम अमीर लोगों को महंगे उपहार देते हैं और गरीबों की उपेक्षा करते हैं जिन्हें उन चीजों की ज़रुरत है। ग़रीबों की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता - बल्कि अक़्सर हम गरीबों से लेते हैं और अमीरों को दे देते हैं।
कठोपनिषद की इस कहानी से
सीखने योग्य कुछ महत्वपूर्ण बातें :
1. सेवा, दान, या उपहार - प्राप्तकर्ता के लिए उस की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए प्रेम और श्रद्धा भाव से दिया जाना चाहिए।
2. दूसरी ओर अतिथि, पुजारी, उपदेशक या प्रचारक को जो भी प्रसाद, भेंट अथवा सेवा मिलती है, उसे देने वाले की भावनाओं का आदर करते हुए प्रेम से स्वीकार कर लेना चाहिए - उनकी सेवा को मामूली अथवा तुच्छ कह कर उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए।
जिस तरह इस कहानी में हैं - यह देखने के बाद भी कि वे गायें उनके किसी काम की नहीं थीं - बल्कि उन पर एक बोझ था - उन ब्राह्मण पुजारियों ने कुछ भी नहीं कहा। अपने ब्राह्मण धर्म और पुरोहित होने के नाते अपने कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए वे चुपचाप अपने यजमान के लिए यज्ञ करते रहे।
3. अपने धर्म और पुरोहित कर्तव्यों के कारण पुजारी अथवा महात्मा तो कुछ भी नहीं कह सकते - लेकिन क्या किसी और को उनके कल्याण और आवश्यकताओं की चिंता नहीं करनी चाहिए? क्या उनके लिए सोचना - और उनके लिए बोलना नहीं चाहिए? जैसा नचिकेता ने किया?
नचिकेता ने ठीक सोचा और समझा कि उन पूज्यनीय पुजारियों और गरीब ब्राह्मणों के लिए उन बूढ़ी और कमजोर गायों की देखभाल करना कितना कठिन होगा जो बदले में उन्हें कुछ भी प्रदान नहीं कर सकतीं।
और साथ ही, वह अपने पिता की प्रतिष्ठा और कल्याण के बारे में भी सोच रहा है - वह पिता जो यह समझ नहीं पा रहा कि इस तरह के उपहार और दक्षिणा देना कोई भलाई का कार्य नहीं है।
शायद शास्त्रों को पढ़कर या अपने सामान्य ज्ञान और विवेक के कारण नचिकेता जानता है कि इस प्रकार का निरर्थक दान करने से उसके पिता को स्वर्ग प्राप्त नहीं हो सकता -
वो जानता है कि ये दान नहीं बल्कि ब्राह्मणों के लिए एक बोझ है - एक सज़ा है।
इसलिए वह अपने पिता को चेतावनी देता है:
जो इस प्रकार की दक्षिणा देता है, उसे आनन्दहीन - दुःख भरा जगत मिलता है।
यदि अच्छे इरादे से - शुद्ध भावना और उचित तरीके से किया जाए तो संबंधियों, मित्रों और प्रियजनों को सत्य-असत्य - सही या गलत का मार्गदर्शन करने में कोई हर्ज़ नहीं है।
जैसा कि नचिकेता ने किया।