Wednesday, December 5, 2018

आदत से मजबूर हूँ मैं

While driving back from Chicago late at night, I looked thru the window on my right side. There was a spectacular view of the full moon, running across the sky at a fast pace. It seemed as if it was racing along with my car.
My mind started wondering; wanting to ask the moon "Where are you going? What is your destination?  What is it that you are trying to find?  You have been moving night after night; for so long and still have not found your destination yet?
And a Kavita, a poem was born while wondering and pondering over these questions.

                      आदत से मजबूर हूँ  मैं

चाँद से मैंने पूछा क्यों तू  रात रात भर चलता है
किसको मिलने की खातिर तू सारी रात भटकता है  
सदियों चलने पर भी मंज़िल ना तुमको मिल पाई है
इस छोर से उस छोर तक - क्यों ये  दौड़ लगाई है
वो बोला चाह नहीं मंज़िल की, इसीलिए पुरनूर हूँ मैं   
चलना मेरी आदत है  - और आदत से मजबूर हूँ  मैं

मैना से पूछा मैंने  - क्यों मीठे राग तू गाती है
मधुर मधुर गीतों से अपने सब का दिल बहलाती है
मीठी वाणी सुनके करते लोग तुझे पिंजरे में बंद
छोडो मीठी वाणी, रहो आज़ाद  - उड़ो स्वछंद
वो बोली अपने गीतों में ही बस रहती मसरुर हूँ मैं 
गाना मेरी आदत है  - और आदत से मजबूर हूँ मैं 

पूछा मैंने झरने से क्यों कल कल, कल कल बहता है
निर्मल शीतल जल अपना धरती  को अर्पण करता है
न जाने पतली सी ये धारा कहाँ तलक जा पाएगी
सागर तक पहुंचेगी या फिर मिट्टी में मिल जाएगी  
वो बोला गिरते जल की मीठी कल कल में मख़मूर हूँ मैं
बहना मेरी आदत है  -  और आदत से मजबूर हूँ  मैं 

पूछा मैंने शम्मा से  - तू  क्यों  रात भर जलती है
रौशन औरों को करने की ख़ातिर ख़ुद भी जलती है
काम निकल जाने पे सब उपकार भुला देते हैं लोग
सूरज जब निकले तो देखो  शमा  बुझा देते हैं लोग
वो बोली सच है रौशनी की ख़ातिर ही मशहूर हूँ मैं
जलना मेरी आदत है  - और आदत से मजबूर हूँ मैं

डूब रहे इक बिच्छू को देखा - तो मैंने लिया उठा 
लेकिन उस बिच्छू ने फौरन मेरे हाथ को काट लिया
पूछा मैने  बिच्छू  से - कि ये कैसा अन्याय है
उसी हाथ को काटे है जो तेरी जान बचाये है
वो बोला ज़हर मिला क़ुदरत से इसीलिए मग़रुर हूँ मैं
डसना मेरी आदत है  -  और आदत से मजबूर हूँ  मैं 

पेड़ से मैंने पूछा - इतने ज़ुल्म तू क्योंकर सहता है 
गर्मी सर्दी सह कर अपना सब कुछ देता रहता है 
लोग तेरी साया में  बैठें  -  फल भी तेरे खाते हैं 
सूख जाए तो काट तुझे वो अपना घर बनवाते हैं 
वो बोला सदियों से निभाता आया ये दस्तूर हूँ मैं 
सहना मेरी आदत है और आदत से मजबूर हूँ मैं 

इकदिन गुरु से पूछा क्यों तुम सोए लोग जगाते हो 
क्यों  तुम भूले भटके लोगों को  रस्ता दिखलाते हो 
लोगों ने तो कभी किसी रहबर की बात ना मानी है 
गुरुओं  पीरों से  दुनिया ने  दुश्मनी  ही  ठानी  है 
वो बोले दुनिया क्या करती है, इन बातों से दूर हूँ मैं 
जगाना मेरी आदत है - और आदत से मजबूर हूँ मैं 

पूछे हैं कुछ लोग मुझे  क्यों रोज़ रोज़ तुम लिखते हो 
जो कहते वो करते हो या बस लिखते और कहते हो 
मैंने कहा - विद्यार्थी हूँ मैं,  ज्ञान-अर्जन है काम मेरा
पेशा है अध्यापन,और  ' प्रोफेसर राजन'  नाम मेरा
प्रचारक हूँ, उपदेशक हूँ पर कर्म से कोसों दूर हूँ मैं
कहना मेरी आदत है -  और आदत से मजबूर हूँ  मैं

                                             'राजन सचदेव'
                                             नवंबर 6, 2014


6 comments:

  1. & I hope you keep writing. Your words, written and verbal and your actions are molding a person like me and lot more .... May Nirankar bless you always ....

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  2. This comment has been removed by the author.

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  3. Bahut Khoob. I agree with Datta Korde Ji. Educating and changing many like me.

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  4. I couldn’t control my tears...Really very touchy and full of truth
    God bless you Bhaisahib... you are amazing writer
    Luv you Bhaisahib ji����������������❤❤❤
    Shat shat pranam!!!!!

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  5. Meri dhadkan ka chalana bi yahi pagaam deeta hai,jahan bi hai Mera dilbar yakninin kheriyaat see hai.. keep blessings..

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