भारत में आदिकाल से ही एक निराकार निर्गुण पारब्रह्म की उपासना का भाव प्रचलित रहा है।
यह समझना ग़लत है कि भारत के धर्म हमेशा से अनेक-ईश्वरवादी, और मूर्ति अथवा किसी वस्तु-पूजा के समर्थक रहे हैं।
ये ग़लत धारणा विशेष तौर पर हिन्दू धर्म के बारे में प्रचलित है
जबकि सभी पुरातन हिन्दू धर्म शास्त्र जैसे कि उपनिषद - कठोपनिषद, मुण्डकोपनिषद, छान्दोग्य, वृहदारण्यक एवं ईशावास्य इत्यादि - भगवद गीता, अष्टावक्र गीता, रिभु गीता, योगवशिष्ठ एवं अनेकानेक अन्य शास्त्र हमेशा से ही केवल एक ब्रह्म - निराकार, निर्गुण, स्वयंभू एवं सर्व व्यापक परमात्मा की उपासना का संदेश देते रहे हैं।
ये ग़लत धारणा विशेष तौर पर हिन्दू धर्म के बारे में प्रचलित है
जबकि सभी पुरातन हिन्दू धर्म शास्त्र जैसे कि उपनिषद - कठोपनिषद, मुण्डकोपनिषद, छान्दोग्य, वृहदारण्यक एवं ईशावास्य इत्यादि - भगवद गीता, अष्टावक्र गीता, रिभु गीता, योगवशिष्ठ एवं अनेकानेक अन्य शास्त्र हमेशा से ही केवल एक ब्रह्म - निराकार, निर्गुण, स्वयंभू एवं सर्व व्यापक परमात्मा की उपासना का संदेश देते रहे हैं।
"एक: ब्रह्म - द्वितीय नास्ति " (वेद )
अर्थात केवल एक ही ब्रह्म है, दूसरा कोई नहीं।
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥१॥
: रुद्राष्टकम :
शब्दार्थ :
"भगवान ईशान को मेरा प्रणाम जो कि निर्वाण रूप हैं
जो स्वयंभू हैं - स्वयं अपने आपको धारण किये हुए हैं
अर्थात जो न तो किसी के द्वारा बनाए गए और न ही उत्पन्न हुए।
जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्यापत हैं।
जो निर्गुण हैं - जिनके लिए गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं,
जिसका कोई विकल्प नहीं - जो निष्पक्ष हैं
जो आकाश के समान असीम है, एवं चिदाकाश - अर्थात चित्त के आकाश (Consciousness) में जिनका निवास है -
तिसहि बुझाए नानका जिसु होवै सुप्रसंन ॥१॥
(गउड़ी सुखमनी 122)
"एको सिमरो नानका जो जल थल रिहा समाए
दूजा काहे सिमरिए जो जम्मे ते मर जाए"
ऐसे ही निरंकारी मिशन भी एक निराकार परब्रह्म परमेश्वर की उपासना का ही संदेश देता है:
"रूप रंग ते रेखों न्यारे तैनू लख प्रणाम करां"
"इक्को नूर दी उपज है सारी - इक दा सगल पसारा है" -
"ऐसे इक चों बने अनेकां "
"इक्को इक दी खेल है सारी इक दा सगल पसारा है "
- अवतार बाणी -
प्रकृति में ईश्वर को - और ईश्वर में प्रकृति को -
अनेकता में एकता एवं एकता में अनेकता को देखने से ही एकत्व की स्थापना हो सकती है
'राजन सचदेव '
अर्थात केवल एक ही ब्रह्म है, दूसरा कोई नहीं।
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥१॥
: रुद्राष्टकम :
शब्दार्थ :
"भगवान ईशान को मेरा प्रणाम जो कि निर्वाण रूप हैं
जो स्वयंभू हैं - स्वयं अपने आपको धारण किये हुए हैं
अर्थात जो न तो किसी के द्वारा बनाए गए और न ही उत्पन्न हुए।
जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्यापत हैं।
जो निर्गुण हैं - जिनके लिए गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं,
जिसका कोई विकल्प नहीं - जो निष्पक्ष हैं
जो आकाश के समान असीम है, एवं चिदाकाश - अर्थात चित्त के आकाश (Consciousness) में जिनका निवास है -
मैं उनकी (ऐसे ईश्वर की) उपासना करता हूँ "
यही भाव आगे चल कर गुरु ग्रन्थ साहिब में प्रदर्शित हुआ है :
रुप न रेख न रंगु किछु त्रिहु गुण ते प्रभ भिंन ॥यही भाव आगे चल कर गुरु ग्रन्थ साहिब में प्रदर्शित हुआ है :
तिसहि बुझाए नानका जिसु होवै सुप्रसंन ॥१॥
(गउड़ी सुखमनी 122)
"एको सिमरो नानका जो जल थल रिहा समाए
दूजा काहे सिमरिए जो जम्मे ते मर जाए"
ऐसे ही निरंकारी मिशन भी एक निराकार परब्रह्म परमेश्वर की उपासना का ही संदेश देता है:
"रूप रंग ते रेखों न्यारे तैनू लख प्रणाम करां"
"इक्को नूर दी उपज है सारी - इक दा सगल पसारा है" -
"ऐसे इक चों बने अनेकां "
"इक्को इक दी खेल है सारी इक दा सगल पसारा है "
- अवतार बाणी -
प्रकृति में ईश्वर को - और ईश्वर में प्रकृति को -
अनेकता में एकता एवं एकता में अनेकता को देखने से ही एकत्व की स्थापना हो सकती है
'राजन सचदेव '
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