वयम् अमृतस्य पुत्राः
' श्वेताश्वर उपनिषद '
वेद कहते हैं कि हम अमृत-पुत्र हैं - मृत्यु से रहित अविनाशी ईश्वर की संतान हैं
चूँकि संतान में पिता के गुण होना स्वाभाविक है
इसलिए वेदानुसार हम भी अमृत हैं - मृत्यु से रहित हैं
लेकिन प्रश्न ये है कि क्या हम सच में ही ऐसा महसूस करते हैं ?
यदि हम जानते हैं कि हम अमृत-पुत्र हैं तो मृत्यु से भय क्यों लगता है ?
कारण स्पष्ट है - क्योंकि हम स्वयं को शरीर माने हुए हैं और शरीर अमृत पुत्र नहीं हो सकता।
शारीरिक अर्थात सांसारिक जीवन तो प्राकृतिक सिद्धांत अनुसार माता पिता के द्वारा पैदा होता है और प्रकृति के नियम अनुसार संसार की कोई भी वस्तु - जड़ या चेतन - गतिशील या स्थिर - जीवित या मृत कभी एक जैसी नहीं रह सकती। बदलाव प्रकृति का नियम है जिस के अनुसार संसार की हर वस्तु प्रति क्षण बदलती रहती है। पूरे ब्रह्मांड में जन्म-मरण एवं बनने और टूटने की प्रक्रिया प्रतिक्षण चलती रहती है।
भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं :
जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु
अर्थात जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है - जो बना है उसका मिटना अनिवार्य है।
इसलिए शरीर रूप में तो कोई भी अमृत अर्थात मृत्यु से रहित नहीं हो सकता।
लेकिन आत्मा जन्म मरण से रहित है।
वेद का ये महामंत्र - 'वयम् अमृतस्य पुत्राः' शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को सम्बोधित करते हुए कहा गया है।
अष्टावक्र गीता में महाराज जनक से अष्टावक्र कहते हैं :
यदि देहं पृथक्कृत्य - चिति विश्राम्य तिष्ठसि
अधुनैव सुखी शांत: - बन्धमुक्तो भविष्यसि
अर्थात: यदि स्वयं को देह से अलग कर के देखोगे और चित को स्थिर करके आत्मा में स्थित हो जाओगे तो अभी सुखी और शांत हो जाओगे और बंधन मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त कर लोगे।
फिर प्रश्न उठता है कि :
जागने के बाद, अमृत रूप का ज्ञान और अनुभव हो जाने के पश्चात क्या करना चाहिए ? शास्त्र कहते हैं :
यावत जीवेत - सुखम् जीवेत, धर्मकार्यम कृत्वा अमृतं पिबेत्।।
अर्थात: जब तक संसार में जीओ - सुख पूर्वक जीओ।
धर्म के कार्य करते हुए - अर्थात जो भी कार्य करो, धर्म को सामने रखते हुए करो - नेक कमाई से जीवन यापन करते हुए भलाई के काम भी करते रहो - दूसरों का भी भला करो। तथा ज्ञान रुपी अमृत पान करते रहो।
' राजन सचदेव '
' श्वेताश्वर उपनिषद '
वेद कहते हैं कि हम अमृत-पुत्र हैं - मृत्यु से रहित अविनाशी ईश्वर की संतान हैं
चूँकि संतान में पिता के गुण होना स्वाभाविक है
इसलिए वेदानुसार हम भी अमृत हैं - मृत्यु से रहित हैं
लेकिन प्रश्न ये है कि क्या हम सच में ही ऐसा महसूस करते हैं ?
यदि हम जानते हैं कि हम अमृत-पुत्र हैं तो मृत्यु से भय क्यों लगता है ?
कारण स्पष्ट है - क्योंकि हम स्वयं को शरीर माने हुए हैं और शरीर अमृत पुत्र नहीं हो सकता।
शारीरिक अर्थात सांसारिक जीवन तो प्राकृतिक सिद्धांत अनुसार माता पिता के द्वारा पैदा होता है और प्रकृति के नियम अनुसार संसार की कोई भी वस्तु - जड़ या चेतन - गतिशील या स्थिर - जीवित या मृत कभी एक जैसी नहीं रह सकती। बदलाव प्रकृति का नियम है जिस के अनुसार संसार की हर वस्तु प्रति क्षण बदलती रहती है। पूरे ब्रह्मांड में जन्म-मरण एवं बनने और टूटने की प्रक्रिया प्रतिक्षण चलती रहती है।
भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं :
जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु
अर्थात जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है - जो बना है उसका मिटना अनिवार्य है।
इसलिए शरीर रूप में तो कोई भी अमृत अर्थात मृत्यु से रहित नहीं हो सकता।
लेकिन आत्मा जन्म मरण से रहित है।
वेद का ये महामंत्र - 'वयम् अमृतस्य पुत्राः' शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को सम्बोधित करते हुए कहा गया है।
अष्टावक्र गीता में महाराज जनक से अष्टावक्र कहते हैं :
यदि देहं पृथक्कृत्य - चिति विश्राम्य तिष्ठसि
अधुनैव सुखी शांत: - बन्धमुक्तो भविष्यसि
अर्थात: यदि स्वयं को देह से अलग कर के देखोगे और चित को स्थिर करके आत्मा में स्थित हो जाओगे तो अभी सुखी और शांत हो जाओगे और बंधन मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त कर लोगे।
फिर प्रश्न उठता है कि :
जागने के बाद, अमृत रूप का ज्ञान और अनुभव हो जाने के पश्चात क्या करना चाहिए ? शास्त्र कहते हैं :
यावत जीवेत - सुखम् जीवेत, धर्मकार्यम कृत्वा अमृतं पिबेत्।।
अर्थात: जब तक संसार में जीओ - सुख पूर्वक जीओ।
धर्म के कार्य करते हुए - अर्थात जो भी कार्य करो, धर्म को सामने रखते हुए करो - नेक कमाई से जीवन यापन करते हुए भलाई के काम भी करते रहो - दूसरों का भी भला करो। तथा ज्ञान रुपी अमृत पान करते रहो।
' राजन सचदेव '
Thnxs for explaining in detail 🙏
ReplyDeleteBut add on more paragraph on karma karo fal ki chinta mat karo it's very important for us
Vayam amrutasya putraha
ReplyDeleteस्पष्ट समझाने के लिए धन्यवाद 🙏
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