एक पिंजरे में कुछ पक्षी रहते थे।
दिन-प्रति दिन, वे एक ही दिनचर्या का पालन करते थे।
सूर्योदय के समय गीत और भोजन, दोपहर में चहचहाहटऔर भोजन, रात में मौन।
एक सुबह, एक नन्हा पक्षी देखता है कि दरवाज़ा खुला हुआ है।
साहस कर के धड़कते हुए दिल के साथ वह बाहर निकला और खुले आकाश में उड़ गया।
नीचे - पिंजरे के अंदर बैठे बाकी पक्षी चिल्लाए:
“मूर्ख! तुम कहाँ जा रहे हो। बाहर तो अनंत आकाश है—तुम भटक जाओगे - खो जाओगे !
फिर तुम्हें वापस लौटने का रास्ता भी नहीं मिलेगा।
तुम भूख से मर जाओगे।”
लेकिन वह नन्हा पक्षी मुस्कराया।
"अगर मैं कोशिश ही नहीं करुंगा तो कैसे जान पाऊँगा?
मुझे बाहर की असलियत का पता कैसे चलेगा?
और अगर स्वयं को कभी सही मायने में पाया ही नहीं, तो खोना कैसा?"
कुछ पक्षी मुंह मोड़कर, पिंजरे की सलाखों को और ज़ोर से पकड़ कर चिपक गए।
कुछ अन्य पक्षी विस्मय से देखते रह गए।
उनकी आँखें चुपचाप उस पक्षी का पीछा करती रहीं जब तक कि वह विशाल आकाश में ओझल न हो गया।
पहली बार, उन्हें भी अपना पिंजरा कुछ छोटा लगने लगा।
ये तस्वीर, जिस में पिंजरे में क़ैद बैठे हुए पंछी आज़ादी से उड़ने का विकल्प चुनने वाले एक साहसी पक्षी को विद्रोही कह कर उसकी आलोचना कर रहे हैं - इस बात का एक प्रभावशाली रुपक है कि समाज उन लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है जो यथास्थिति को चुनौती देने का साहस करते हैं।
पिंजरे में बंद पंछी उन लोगों के डर और अनुरुपता का प्रतीक हैं जो परिचित सीमाओं की सुरक्षा में बंधे रहने का विकल्प चुनते हैं और उस क़ैद में ही बंधे रहना पसंद करते हैं।
दूसरी तरफ, एक आज़ाद पंछी थोपे गए मानदंडों से मुक्त होने के साहस का प्रतिनिधित्व करता है।
पिंजरे में बंद पंछी उस साहसी विद्रोही का मज़ाक उड़ाते हैं जो खुले आसमान की ओर अपने पंख फैलाने का साहस करता है। उनकी आवाज़ में भय है - डर है —उन हवाओं का डर जिन्हें उन्होंने कभी महसूस नहीं किया, उन क्षितिजों का डर जिन्हें उन्होंने कभी नहीं देखा।
सलाखों के पीछे सुरक्षा है, एक निश्चित दिनचर्या है।
वो जानते हैं कि उनके लिए एक दायरा - और दीवारें निश्चित हैं जिन्हें वो पार नहीं कर सकते।
धीरे धीरे उन्हें उस दायरे में ही रहने की आदत हो जाती है और उसी दायरे में उन्हें सुकून और सुख का एहसास होने लगता है।
दूसरी ओर, पिंजरे के दायरे के बाहर अज्ञात है—विशाल, अथाह और अदम्य अज्ञात।
और हर व्यक्ति - बल्कि हर प्राणी को अज्ञात और अनिश्चितता से डर लगता है ।
कभी कभी कोई व्यक्ति साहस करके दूसरों द्वारा बनाई गई सीमाओं से परे कैद की निश्चितता के बजाय अनिश्चितता को चुनता है।
लेकिन अधिकतर लोग ऐसे साहसी व्यक्तियों को विद्रोही अथवा बाग़ी कह कर उनकी आलोचना करने लगते हैं जो नियमों और प्रतिबंधों पर सवाल उठाने का साहस करते हैं। वास्तव में उनके अपने मन में एक भय होता है।
क्योंकि वे शंकाएं और प्रश्न कहीं न कहीं उनके अपने मन में भी छुपे होते हैं लेकिन वे पूछने और उन पर सवाल उठाने का साहस नहीं कर पाते। वे अपने गिर्द बनाए हुए उस दायरे से बाहर निकलने की कल्पना भी नहीं कर सकते। अपनी सीमित सुरक्षा और सकून को क़ायम रखने के लिए वो उन लोगों का मज़ाक उड़ाने लगते हैं - उनकी आलोचना करने लगते हैं जो प्रश्न उठाते है और उस बंधे हुए दायरे से बाहर निकलने का प्रयास करते हैं।
हमें विद्रोही से भय क्यों लगता है?
शायद इसलिए कि वे उन संभावनाओं को उजागर करते हैं जिनकी कल्पना करने का साहस हम में नहीं है — ऐसी संभावनाएं जो विकास और सच्ची आज़ादी की ओर ले जाती हैं।
यह चित्र हमारे सामने एक विचारणीय प्रश्न खड़ा करता है:
क्या हम सीमित सुरक्षा और सकून के लिए अपने पिंजरे में ही क़ैद रहना चाहते हैं या या सच्ची मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होना?
जैसा कि भगवान कृष्ण कहते हैं, "पिंजरा चाहे लोहे का बना हो या सोने का, पिंजरा तो पिंजरा ही है।
इसलिए वो हमें हर प्रकार के बंधन की क़ैद से बाहर निकल कर मुक्ति अथवा मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयास करने की प्रेरणा देते हैं।
"राजन सचदेव "
(एक ऑनलाइन पोस्ट से प्रेरित)

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